यह व्रत भाद्रपद कृष्ण पक्ष षष्ठी को किया जाता है। इस दिन हल मूसल धारी श्री बलराम जी का जन्म हुआ था। कुछ लोग जनक नंदिनी माता सीता का भी जन्म दिवस इस तिथि को मानते हैं, बलराम जी के मुख्य शस्त्रों में हल और मूसल उल्लेखनीय है। इसी से इनका एक नाम हलधर भी है, इन्हीं के नाम के आधार पर इसका नाम हलषष्ठी पड़ा होगा। पुत्रवती स्त्रियां ही इस व्रत को करती हैं। इस दिन महुए की दातुन करने का विधान है। पारण के समय हल से जोता बोया गया अन्न नहीं खाना चाहिए इस कारण इस व्रत का सेवन करने वाली स्त्रियां नीवार (फरनहीं) का चावल सेवन करती हैं। इस दिन गाय का दूध भी वर्जित है। विधि.विधान में प्रातः सद्यः स्नाता की स्त्रियां भूमि (आंगन) लीपकर एक कुण्ड बनाती हैं। जिसमें बेरी, पलाश, गूलर, कुश, प्रभुत्ति टहनियां गाड़कर ललही की पूजा करती हैं। पूजन में सतनजा (गेहूं, चना, धान, मक्का, अरहर, ज्वार, बाजरे) आदि का भुना हुआ लावा चढ़ाया जाता है। हल्की से रंगा हुआ वस्त्र तथा कुछ सुहाग सामग्री भी चढ़ाई जाती है। पूजनोपरान्त निम्न मंत्र से प्रार्थना करनी चाहिए—
गंगा द्वारे कुशावर्ते विल्वके नील पर्वते।
स्नात्वा कनरवले देवि हर लब्धवती पतिम्।।
अर्थात्— हे देवी ! आपने गंगा द्वारा कुशावर्त विल्वक नील पर्वत और कनखल तीर्थ में स्नान कर के भगवान शंकर को पति रूप में प्राप्त किया है। सुख और सौभाग्य देने वाली ललिता देवी आपको बार-बार नमस्कार है। आप मुझे अचल सुहाग दीजिए ऐसी प्रार्थना करें अन्त में शिवधाम की प्राप्ति होती है।
व्रत की कथा—
प्राचीन काल में एक ग्वालिन थी, जिसका प्रसव काल अत्यन्त सन्निकट था। एक ओर वह पीड़ा से व्याकुल थी तो दूसरी ओर उसका चित्त गोरस विक्रय में लगा था।
उसने विचार किया कि यदि बच्चा उत्पन्न हो गया तो फिर दूध दही ऐसे ही पड़ा रह जाएगा यह सोचकर वह झट उठी तथा सिर पर गोरस (दूध, दही) की मटकिया रखकर बेचने चल दी आगे चलकर कष्ट साध्य पीड़ा के कारण एक बनवेरी की ओट में बैठ गई और वहां उसके एक बालक पैदा हुआ। अल्हड़ ग्वालिन ने नवजात शिशु वही रखकर स्वयं दूध, दही बेचने समीपस्थ गांवों को चल दी। संयोग वश उस दिन हलषष्ठी भी थी। गाय भैंस का मिश्रित दूध होने पर भी उसने केवल भैंस का दूध बतलाकर ग्रामीणों को खूब ठगा।
जिस बनवेरी में उसने बच्चे को छोड़ा था, उसी के समीप एक कृषक हल जोत रहा था। अकस्मात बैलों के भड़कने से चपेट में आकर वह बालक हल का फलक घुसने से मर गया यह घटना देखकर कृषक बहुत दुःखी तथा लाचार हुआ फिर भी उसने धैर्य धारण कर बनवेरी के कांटों से बच्चे के पेट पर टांका लगाकर घटना स्थल पर छोड़ दिया। तत्क्षण ग्वालिन भी विक्रय करके वहां आ गई। बच्चे की यह दशा देखकर उसने अपने ही किये पाप का प्रतिफल समझा फिर वह मन में सोचने लगी कि यदि मैंने हलषष्ठी के दिन दूध.दही विक्रय हेतु मिथ्या भाषण करके उन ग्रामीण नारियों का धर्म नष्ट न किया होता तो यह दशा क्यों होती इसलिए अब लौटकर सब बातें प्रकट कर प्रायश्चित करना होगा। ऐसा निश्चय कर वह उस गांव में गई जहां उसने दूध दही बेचा था वह गली.गली में घूमकर कहने लगी कि मेरा दूध गाय, भैंस का मिश्रण था। यह सुनकर स्त्रियों ने स्वधर्म रक्षार्थ उसे आशीर्वाद दिया बहुत सी युवतियों के द्वारा आशीष लेकर जब वह पुनः वन में आई तो उसका पुत्र जीवित मिला तभी से उसने स्वार्थ सिद्धि के लिए झूठ बोलना ब्रह्म हत्या के समान निकृष्ट कर्म समझकर छोड़ दिया। किन्हीं.किन्हीं प्रान्तों में ललही छठ.ललिता ब्रह्म के नाम से भी जाना जाता है। विधान उपरोक्त ही है।
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