Friday, July 31, 2015

सावन माह

भारत के सभी शिवालयों में श्रावण सोमवार पर हर-हर महादेव और बोल बम बोल की गूँज सुनाई देगी। श्रावण मास में शिव-पार्वत‍ी का पूजन बहुत फलदायी होता है। इसलिए सावन मास का बहुत मह‍त्व है। 
क्यों है सावन की विशेषता? :- हिन्दू धर्म की पौराणिक मान्यता के अनुसार सावन महीने को देवों के देव महादेव भगवान शंकर का महीना माना जाता है। इस संबंध में पौराणिक कथा है कि जब सनत कुमारों ने महादेव से उन्हें सावन महीना प्रिय होने का कारण पूछा तो महादेव भगवान शिव ने बताया कि जब देवी सती ने अपने पिता दक्ष के घर में योगशक्ति से शरीर त्याग किया था, उससे पहले देवी सती ने महादेव को हर जन्म में पति के रूप में पाने का प्रण किया था। 
अपने दूसरे जन्म में देवी सती ने पार्वती के नाम से हिमाचल और रानी मैना के घर में पुत्री के रूप में जन्म लिया। पार्वती ने युवावस्था के सावन महीने में निराहार रह कर कठोर व्रत किया और उन्हें प्रसन्न कर विवाह किया, जिसके बाद ही महादेव के लिए यह विशेष हो गया। 
सावन में शिवशंकर की पूजा :- सावन के महीने में भगवान शंकर की विशेष रूप से पूजा की जाती है। इस दौरान पूजन की शुरूआत महादेव के अभिषेक के साथ की जाती है। अभिषेक में महादेव को जल, दूध, दही, घी, शक्कर, शहद, गंगाजल, गन्ना रस आदि से स्नान कराया जाता है। अभिषेक के बाद बेलपत्र, समीपत्र, दूब, कुशा, कमल, नीलकमल, ऑक मदार, जंवाफूल कनेर, राई फूल आदि से शिवजी को प्रसन्न किया जाता है। इसके साथ की भोग के रूप में धतूरा, भाँग और श्रीफल महादेव को चढ़ाया जाता है।
महादेव का अभिषेक :- महादेव का अभिषेक करने के पीछे एक पौराणिक कथा का उल्लेख है कि समुद्र मंथन के समय हलाहल विष निकलने के बाद जब महादेव इस विष का पान करते हैं तो वह मूर्च्छित हो जाते हैं। उनकी दशा देखकर सभी देवी-देवता भयभीत हो जाते हैं और उन्हें होश में लाने के लिए निकट में जो चीजें उपलब्ध होती हैं, उनसे महादेव को स्नान कराने लगते हैं। इसके बाद से ही जल से लेकर तमाम उन चीजों से महादेव का अभिषेक किया जाता है।
बेलपत्र और समीपत्र :- भगवान शिव को भक्त प्रसन्न करने के लिए बेलपत्र और समीपत्र चढ़ाते हैं। इस संबंध में एक पौराणिक कथा के अनुसार जब 89 हजार ऋषियों ने महादेव को प्रसन्न करने की विधि परम पिता ब्रह्मा से पूछी तो ब्रह्मदेव ने बताया कि महादेव सौ कमल चढ़ाने से जितने प्रसन्न होते हैं, उतना ही एक नीलकमल चढ़ाने पर होते हैं। ऐसे ही एक हजार नीलकमल के बराबर एक बेलपत्र और एक हजार बेलपत्र चढ़ाने के फल के बराबर एक समीपत्र का महत्व होता है।
बेलपत्र ने दिलाया वरदान : बेलपत्र महादेव को प्रसन्न करने का सुलभ माध्यम है। बेलपत्र के महत्व में एक पौराणिक कथा के अनुसार एक भील डाकू परिवार का पालन-पोषण करने के लिए लोगों को लूटा करता था। सावन महीने में एक दिन डाकू जंगल में राहगीरों को लूटने के इरादे से गया। एक पूरा दिन-रात बीत जाने के बाद भी कोई शिकार नहीं मिलने से डाकू काफी परेशान हो गया। 
इस दौरान डाकू जिस पेड़ पर छुपकर बैठा था, वह बेल का पेड़ था और परेशान डाकू पेड़ से पत्तों को तोड़कर नीचे फेंक रहा था। डाकू के सामने अचानक महादेव प्रकट हुए और वरदान माँगने को कहा। अचानक हुई शिव कृपा जानने पर डाकू को पता चला कि जहाँ वह बेलपत्र फेंक रहा था उसके नीचे शिवलिंग स्थापित है। इसके बाद से बेलपत्र का महत्व और बढ़ गया। 
विशेष सजावट : सावन मास में शिव मंदिरों में विशेष सजावट की जाती है। शिवभक्त अनेक धार्मिक नियमों का पालन करते हैं। साथ ही महादेव को प्रसन्न करने के लिए किसी ने नंगे पाँव चलने की ठानी, तो कोई पूरे सावन भर अपने केश नहीं कटाएगा। वहीं कितनों ने माँस और मदिरा का त्याग कर दिया है।
काँवरिए चले शिव के धाम : सावन का महीना शिवभक्तों के लिए खास होता है। शिवभक्त काँवरियों में जल लेकर शिवधाम की ओर निकल पड़ते हैं। शिवालयों में जल चढ़ाने के लिए लोग बोल बम के नारे लगाते घरों से निकलते हैं। भक्त भगवा वस्त्र धारण कर शिवालयों की ओर कूच करते हैं।

मुंशी प्रेमचंद

मुंशी प्रेमचंद का जन्म एक गरीब घराने में काशी से चार मील दूर बनारस के पास लमही नामक गाँव में 31 जुलाई 1880 को हुआ था। उनका असली नाम श्री धनपतराय। उनकी माता का नाम आनंदी देवी था। आठ वर्ष की अल्पायु में ही उन्हें मातृस्नेह से वंचित होना पड़ा।  दुःख ने यहा ही उनका पीछा नहीं छोड़ा। चौदह वर्ष की आयु में पिता का निधन हो गया। उनके पिता मुंशी अजायबलाल डाकखाने में मुंशी थे।
घर में यों ही बहुत गरीबी थी। ऊपर से सिर से पिता का साया हट जाने के कारण उनके सिर पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। ऐसी परिस्थिति में पढ़ाई-लिखाई से ज़्यादा रोटी कमाने की चिन्ता उनके सिर पर आ पड़ी।
१५ वर्ष की अवस्था में इनका विवाह कर दिया गया, जो दांपत्य जीवन में आ गए क्लेश के कारण सफल नहीं रहा। प्रेमचंद ने बाल विधवा शिवरानी देवी से दूसरा विवाह कर लिया तथा उनके साथ सुखी दांपत्य जीवन जिए।
  विद्यार्थियों को ट्यूशन पढ़ा कर किसी तरह उन्होंने न सिर्फ़ अपनी रोज़ी-रोटी चलाई बल्कि मैट्रिक भी पास किया। उसके उपरान्त उन्होंने स्कूल में मास्टरी शुरु की। यह नौकरी करते हुए उन्होंने एफ. ए. और बी.ए. पास किया। एम.ए. भी करना चाहते थे, पर कर नहीं सके। शायद ऐसा सुयोग नहीं हुआ।
स्कूल मास्टरी के रास्ते पर चलते–चलते सन 1921 में वे गोरखपुर में डिप्टी इंस्पेक्टर स्कूल थे। जब गांधी जी ने सरकारी नौकरी से इस्तीफे का नारा दिया, तो प्रेमचंद ने गांधी जी के सत्याग्रह से प्रभावित हो, सरकारी नौकरी छोड़ दी। रोज़ी-रोटी चलाने के लिए उन्होंने कानपुर के मारवाड़ी स्कूल में काम किया। पर वह भी ज़्यादा दिनों तक चल नहीं सका।
    
प्रेमचंद ने 1901 मे उपन्यास लिखना शुरू किया। कहानी 1907 से लिखने लगे। उर्दू में नवाबराय नाम से लिखते थे। स्वतंत्रता संग्राम के दिनों लिखी गई उनकी कहानी सोज़ेवतन 1910 में ज़ब्त की गई , उसके बाद अंग्रेज़ों के उत्पीड़न के कारण वे प्रेमचंद नाम से लिखने लगे। 1923 में उन्होंने सरस्वती प्रेस की स्थापना की। 1930 में हंस का प्रकाशन शुरु किया। इन्होने 'मर्यादा', 'हंस', जागरण' तथा 'माधुरी' जैसी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं का संपादन किया।
जीवन के अन्तिम दिनों के एक वर्ष छोड़कर, सन् (33-34) जो बम्बई की फिल्मी दुनिया में बीता, उनका पूरा समय बनारस और लखनऊ में गुजरा, जहाँ उन्होंने अनेक पत्र पत्रिकाओं का सम्पादन किया और अपना साहित्य सृजन करते रहे ।
8 अक्टूबर 1936 को जलोदर रोग से उनका देहावसान हुआ’
भारत के हिन्दी साहित्य में प्रेमचन्द का नम अमर है। उन्होंने हिन्दी कहानी को एक नयी पहचान व नया जीवन दिया। आधुनिक कथा साहित्य के जन्मदाता कहलाए। उन्हें कथा सम्राट की उपाधि प्रदान की गई। उन्होंने 300 से अधिक कहानियां लिखी हैं। इन कहानियों में उन्होंने मनुष्य के जीवन का सच्चा चित्र खींचा है। आम आदमी की घुटन, चुभन व कसक को अपनी कहानियों में उन्होंने प्रतिबिम्बित किया। इन्होंने अपनी कहानियों में समय को ही पूर्ण रूप से चित्रित नहीं किया वरन भारत के चिंतन व आदर्शों को भी वर्णित किया है। इनकी कहानियों में जहां एक ओर रूढियों, अंधविश्‍वासों, अंधपरंपराओं पर कड़ा प्रहार किया गया है वहीं दूसरी ओर मानवीय संवेदनाओं को भी उभारा गया है। ईदगाह, पूस की रात, शतरंज के खिलाड़ी, नमक का दारोगा, दो बैलों की आत्म कथा जैसी कहानियां कालजयी हैं। तभी तो उन्हें क़लम का सिपाही, कथा सम्राट, उपन्यास सम्राट आदि अनेकों नामों से पुकारा जाता है।

Thursday, July 30, 2015

Guru Purnima

Hindus attach paramount importance to spiritual gurus. Gurus are often equated with God and always regarded as a link between the individual and the Immortal. Just as the moon shines by reflecting the light of the sun, and glorifies it, all disciples can dazzle like the moon by gaining from their Gurus.
What is Guru Purnima?
The full moon day in the Hindu month of Ashad (July-August) is observed as the auspicious day of Guru Purnima, a day sacred to the memory of the great sage Maharshi Veda Vyasa.
All Hindus are indebted to this ancient saint who edited the four Vedas, wrote the 18 Puranas, Mahabharata and the Srimad Bhagavatam. Vyasa even taught Dattatreya, who is regarded as the Guru of Gurus.

Significance of Guru Purnima
On this day, all spiritual aspirants and devotees worship Vyasa in honor of his divine personage and all disciples perform a 'puja' of their respective spiritual preceptor or 'Gurudevs'.
This day is of deep significance to the farmers, for it heralds the setting in of the much-needed rains, as the advent of cool showers usher in fresh life in the fields. It is a good time to begin your spiritual lessons. Traditionally, spiritual seekers commence to intensify their spiritual 'sadhana' from this day.
The period 'Chaturmas' ("four months") begins from this day. In the past, wandering spiritual masters and their disciples used to settle down at a place to study and discourse on the Brahma Sutras composed by Vyasa, and engage themselves in Vedantic discussions.
The Role of the Guru
Swami Sivananda asks: "Do you realize now the sacred significance and the supreme importance of the Guru's role in the evolution of man? It was not without reason that the India of the past carefully tended and kept alive the lamp of Guru-Tattva. It is therefore not without reason that India, year after year, age after age, commemorates anew this ancient concept of the Guru, adores it and pays homage to it again and again, and thereby re-affirms its belief and allegiance to it. For, the true Indian knows that the Guru is the only guarantee for the individual to transcend the bondage of sorrow and death, and experience the Consciousness of the Reality."

गुरु पूर्णिमा

गुरु पूर्णिमा / व्यास पूर्णिमा / मुड़िया पूनों आषाढ़ मास की पूर्णिमा को कहा जाता है। इस दिन गोवर्धन पर्वत की लाखों श्रद्धालु परिक्रमा देते हैं। बंगाली साधु सिर मुंडाकर परिक्रमा करते हैं क्योंकि आज के दिन सनातन गोस्वामी का तिरोभाव हुआ था। ब्रज में इसे 'मुड़िया पूनों' कहा जाता है। आज का दिन गुरु–पूजा का दिन होता है। इस दिन गुरु की पूजा की जाती है। पूरे भारत में यह पर्व बड़ी श्रद्धा के साथ मनाया जाता है। वैसे तो 'व्यास' नाम के कई विद्वान हुए हैं परंतु व्यास ऋषि जो चारों वेदों के प्रथम व्याख्याता थे, आज के दिन उनकी पूजा की जाती है। हमें वेदों का ज्ञान देने वाले व्यास जी ही थे। अत: वे हमारे 'आदिगुरु' हुए। उनकी स्मृति को बनाए रखने के लिए हमें अपने-अपने गुरुओं को व्यास जी का अंश मानकर उनकी पूजा करनी चाहिए। प्राचीन काल में जब विद्यार्थी गुरु के आश्रम में नि:शुल्क शिक्षा ग्रहण करते थे तो इसी दिन श्रद्धा भाव से प्रेरित होकर अपने गुरु की पूजा किया करते थे और उन्हें यथाशक्ति दक्षिणा अर्पण किया करते थे। इस दिन केवल गुरु की ही नहीं अपितु कुटुम्ब में अपने से जो बड़ा है अर्थात माता-पिता, भाई-बहन आदि को भी गुरुतुल्य समझना चाहिए।

वेद व्यास जयंती
गुरु पूर्णिमा जगत गुरु माने जाने वाले वेद व्यास को समर्पित है। माना जाता है कि वेदव्यास का जन्म आषाढ़ मास की पूर्णिमा को हुआ था। वेदों के सार ब्रह्मसूत्र की रचना भी वेदव्यास ने आज ही के दिन की थी। वेद व्यास ने ही वेद ऋचाओं का संकलन कर वेदों को चार भागों में बांटा था। उन्होंने ही महाभारत, 18 पुराणों व 18 उप पुराणों की रचना की थी जिनमें भागवत पुराण जैसा अतुलनीय ग्रंथ भी शामिल है। ऐसे जगत गुरु के जन्म दिवस पर गुरु पूर्णिमा मनाने की परंपरा है।

गुरुपूर्णिमा का महत्व
गुरु ब्रह्मा, गुरु विष्णु गुरु देवो महेश्वर, गुरु साक्षात् परमं ब्रह्मा तस्मै श्री गुरुवे नम:
अर्थात- गुरु ही ब्रह्मा है, गुरु ही विष्णु है और गुरु ही भगवान शंकर है। गुरु ही साक्षात परब्रह्म है। ऐसे गुरु को मैं प्रणाम करता हूं।
गुरु के प्रति नतमस्तक होकर कृतज्ञता व्यक्त करने का दिन है गुरुपूर्णिमा। गुरु के लिए पूर्णिमा से बढ़कर और कोई तिथि नहीं हो सकती। जो स्वयं में पूर्ण है, वही तो पूर्णत्व की प्राप्ति दूसरों को करा सकता है। पूर्णिमा के चंद्रमा की भांति जिसके जीवन में केवल प्रकाश है, वही तो अपने शिष्यों के अंत:करण में ज्ञान रूपी चंद्र की किरणें बिखेर सकता है। इस दिन हमें अपने गुरुजनों के चरणों में अपनी समस्त श्रद्धा अर्पित कर अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करनी चाहिए। गुरु कृपा असंभव को संभव बनाती है। गुरु कृपा शिष्य के हृदय में अगाध ज्ञान का संचार करती है।

आषाढ़ की पूर्णिमा को ही क्यों
आषाढ़ पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा के रूप में मानने का क्या राज़ है? धर्म जीवन को देखने का काव्यात्मक ढंग है। सारा धर्म एक महाकाव्य है। अगर यह तुम्हें खयाल में आए, तो आषाढ़ की पूर्णिमा बड़ी अर्थपूर्ण हो जाएगी। अन्यथा आषाढ़ में पूर्णिमा दिखाई भी न पड़ेगी। बादल घिरे होंगे, आकाश खुला न होगा। और भी प्यारी पूर्णिमाएं हैं, शरद पूर्णिमा है, उसको क्यों नहीं चुन लिया? लेकिन चुनने वालों का कोई खयाल है, कोई इशारा है। वह यह है कि गुरु तो है पूर्णिमा जैसा, और शिष्य है आषाढ़ जैसा। शरद पूर्णिमा का चांद तो सुंदर होता है, क्योंकि आकाश ख़ाली है। वहां शिष्य है ही नहीं, गुरु अकेला है। आषाढ़ में सुंदर हो, तभी कुछ बात है, जहां गुरु बादलों जैसा घिरा हो शिष्यों से। शिष्य सब तरह के हैं, जन्मों-जन्मों के अंधेरे को लेकर आ छाए हैं। वे अंधेरे बादल हैं, आषाढ़ का मौसम हैं। उसमें भी गुरु चांद की तरह चमक सके, उस अंधेरे से घिरे वातावरण में भी रोशनी पैदा कर सके, तो ही गुरु है। इसलिए आषाढ़ की पूर्णिमा! वह गुरु की तरफ भी इशारा है और उसमें शिष्य की तरफ भी इशारा है। और स्वभावत: दोनों का मिलन जहां हो, वहीं कोई सार्थकता है।

Thursday, July 23, 2015

Yamuna Picture Palace

Yamuna Picture Palace is located in Bisheshwarganj, Varanasi and is closed now.

Tuesday, July 21, 2015

Pushpraj Cinema

Pushpraj Cinema Hall is located in Shivpur, Varanasi.Pushpraj Theater is now closed.




Abhay Theater

Abhay Cinema Hall is located in Assi, Varanasi.Abhay Theater is now closed.



Shilpi Theater

Shilpi Cinema Hall is located in Khojwa Bazar, Varanasi.Shilpi Theater is now closed.





Rath Yatra Shivpur

The Rath Yatra of Lord Jagannath on the traditional chariot on Tuesday commenced in the city under heavy security deployment.
Amidst traditional gaiety the devotees took out a procession with the idols of Lord Jagnnath, Subhadra and Balbhadra from the Jagnnath temple in Assi area. After three-day fair, held annually as a part of Rathyatra festival in Rathyatra Crossing, the procession culminated at Shivpur where the idols were placed on the beautifully decorated traditional chariot, after religious rituals.
The one-day fair, held annually as a part of Rathyatra festival , in Shivpur Varanasi City.



Saturday, July 18, 2015

Rath Yatra

The Rath Yatra of Lord Jagannath on the traditional chariot on Sunday commenced in the city under heavy security deployment.
Amidst traditional gaiety the devotees took out a procession with the idols of Lord Jagnnath, Subhadra and Balbhadra from the Jagnnath temple in Assi area. After passing through Durgakund, Khojwa and Shankudhara areas, the procession culminated at Rathyatra crossing where the idols were placed on the beautifully decorated traditional chariot, after religious rituals.
The three-day fair, held annually as a part of Rathyatra festival , in Varanasi City.





Friday, July 17, 2015

शिवपुर रथयात्रा मेला

वरुणापार स्थित शिवपुर में मंगलवार की शाम  पांच से 12 बजे तक  प्रभु जगन्नाथ, भइया बलभद्र और बहन सुभद्रा का दरबार सजेगा।इसमें पूजन अनुष्ठान और विधि विधान भी दिखेंगे।
शिवपुर चुंगी स्थित मंदिर में शाम पांच बजे महाआरती कराइ जाएगी । तीनों विग्रहों को रथ (चौकी) पर विराजमान कराया जायेगा । इसके साथ ही दर्शन पूजन का क्रम शुरू हो जायेगा ।



Thursday, July 16, 2015

रथयात्रा मेला

तीन दिवसीय रथयात्रा मेले की तैयारियां शुरू हो गयी है। काशी के लक्खी मेला 17 जुलाई से शुरू होगा।
रथयात्रा चैराहे के समीप रथ स्थल पर मेंले में प्रयुक्त होने वाले अष्टकोणीय रथ की साफ सफाई के साथ रंग रोगन करने के लिए शुक्रवार को कारीगर और मजदूर लगे रहे। 
उधर अस्सी स्थित जगन्नाथ मंदिर में जुखाम से पीडि़त प्रभु जगन्नाथ अपने शयन कक्ष में आराम और स्वास्थ्य लाभ ले रहे है। मंदिर के प्रधान पुजारी के देखरेख में जुखाम से पीडि़त प्रभु को प्रतिदिन काढ़ा का भोग चढ़ाया जा रहा है। इस बार अधिकमास के कारण डेढ़ माह के लिए बीमार पड़े प्रभु को स्वास्य होने के लिए अंतिम औषधी के रूप में 16 जुलाई को ‘‘परवल का जूस’ चढ़ाया जायेगा। और इसी दिन गोधूली बेला में प्रभु डोली पर सवार होकर भक्तों की अगवानी में रथयात्रा स्थित बेनीराम बाग पहुंचेंगे, जहां विश्राम के बाद रात्रि तीसरे पहर में रथारूढ़ होंगे। आषाढ़ शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि, 17 जुलाई को भगवान जगन्नाथ बहन सुभद्र और भाई बलभद्र संग रथ पर विराजमान होकर नगर भ्रमण को निकलेंगे।
मंदिर के प्रवक्ता सुनील त्रिपाठी के अनुसार भक्तो के प्रेम और जलाभिषेक से बीमार जगत के नाथ अपने शयनकक्ष में स्वास्य लाभ के लिए आराम कर रहे हैं। इस बार भक्तों को अपने भगवान नए कलेवर में दर्शन देंगे। बताया कि प्रभु जगन्नाथ के विग्रह को भोग के रूप में प्रतिदिन लगने वाले काढ़े में नौ प्रकार की सामग्री का मिश्रण है। काली मिर्च, लौंग, छोटी-बड़ी इलाइची, जायफल, तुलसी का पत्ता, चन्दन, चीनी, गुलाब जल और गंगाजल के मिश्रण से काढ़ा बनाया जाता है। इसी काढ़े को भगवान को चढ़ाया जाता है।
श्री त्रिपाठी ने बताया कि उनकी सेहत में सुधार के लिए अस्सी स्थित मंदिर में आस्थावान नागरिक जुटते है और उनके स्वास्थ्य के लिए प्रार्थना करते है। बताया कि इस बार ससुराल में बाबा जगन्नाथ की खातिरदारी लंगड़ा आम और मगही पान से होगी।
भगवान जगन्नाथ के सपरिवार तीन दिनी सैर पर निकलने के लिए 14 पहिये वाला रथ सजाया जा रहा है।
बतादे,काशी के इस लक्खा मेले में रथयात्रा क्षेत्र में दो किमी से अधिक दूरी तक सड़क की दोनों पटरियों पर नानखटाई की दुकानों के साथ ही खिलौनों और शृंगार की वस्तुओं का बाजार गुलजार होगा।
विश्वप्रसिद्ध मेले की कहानी
बाबा विश्वनाथ की नगरी में रथयात्रा मेला 18वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में पुरी के तत्कालीन राजा और जगन्नाथ मंदिर के महंत के बीच पैदा हुए मतभेद के चलते हुआ था।
ट्रस्ट श्री जगन्नाथ जी के सचिव आलोक शापुरी ने बताया कि उस दौर में पं. बेनीराम भोसला स्टेट के प्रधानमंत्री थे और उनके भाई विशंभर नाथ पुरी स्टेट के। पुरी में उस समय ब्रह्मचारी नित्यानंद जगन्नाथ मंदिर के महंत थे। पुरी के महाराज के बीच किसी बात को लेकर मतभेद हो गया था। इससे नाराज होकर महंत नित्यानंद ने पुरी छोड़ दी और काशी आ गए थे। तत्कालीन महंत सिर्फ पुरी का ही भोग ग्रहण करते थे। इस वजह से जब वो काशी आए तो वहां के राजा ने व्यवस्था की कि पुरी से महंत के लिए नियमित भोग आता रहे लेकिन इसमें कठिनाई आने लगी। अंततरू जब इस बात की जानकारी पं. बेनीराम को हुई तो उन्होंने 1790 में अस्सी मोहल्ले में जगन्नाथ मंदिर का निर्माण करा दिया। 1802 में बेनीराम के बगीचे से रथयात्रा मेला आरंभ हुआ। पुरी में भी स्नान के बाद भगवान बीमार पड़ते हैं तो ससुराल जाते हैं। यहां भी ससुराल के रूप में बेनीराम के बगीचे में जाते हैं और मेला लग जाता है।


Sunday, July 12, 2015

Tuesday, July 7, 2015

Water Cress In Varuna River

वाराणसी को पहचान दिलाने वाली वरुणा नदी में फैली जलकुम्भी


नक्षत्र

मानवीय जीवन में नक्षत्र का काफी महत्वपूर्ण स्थान है।ऐसी मान्यताएं है कि जिस व्यक्ति का जन्म जिस व्यक्ति का जन्म जिस नक्षत्र में होता है, उस क्षेत्र के पेड़ की पूजा करने से व्यक्ति की शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, सामाजिक स्थिति सुढ  बनी रहती है, यही कारण है कि सदियों पहले जिस नई सभ्यता ने जिस पौराणिक मान्यताओं को त्याग दिया था, आधुनिक पीढ ी का विश्र्वास फिर से पुरानी मान्यताओं पर बढ ा है।
 नक्षत्र को न सिर्फ भारतीय संस्कृति में काफी अहम स्थान दिया गया है, बल्कि कई विदेशी संस्कृतियों में भी नक्षत्र की महत्ता को स्वीकार किया गया है। जबकि इसे वैज्ञानिक ष्टिकोण से भी नक्षत्र की ग्रह-दशा निर्धारित करने के लिए मानचित्र बनाया गया है और किन नक्षत्रों की क्या स्थिति है,इसकी भी स्पष्ट  व्याखया की गई है।
 भारतीय हिन्दू संस्कृति में नक्षत्रों की गणना आदिकाल से ही की जाती रही। शब्दकोष के अनुसार- ‘नक्षत्र’ आकाश में तारा-समूह को कहते हैं। साधारणतः यह चंद्रमा के पथ से जुड े हैं, परंतु वास्तव में किसी भी तारा समूह को नक्षत्र कहना उचित है। ऋग्वेद में एक स्थान में सूर्य को भी नक्षत्र कहा गया है, अन्य नक्षत्रों में सप्तर्षि और अगस्त्य है, नक्षत्र सूची की विस्तृत जानकारी अर्थवेद, तैत्तिरीय, संहिता, शतपथ, ब्राह्मण और लगध के वेदाड्‌.ग ज्योतिष में मिलती है। इसके अनुसार २७नक्षत्रों अश्र्िवनी, भरणी, कृत्तिका, रोहिणी, मृगशिरा, आद्रा, पुनर्वसु, पुष्य, अश्लेषा, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाती, विशाख, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढ ा, उत्तराषाढ ा, श्रवण, घनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद, रेवति और अभिजित का जिक्र विभिन्न वेद, पुराण व उपनिषद में मिलते है।

१.अश्र्िवनीः-
अश्र्िवनी नक्षत्र के देवता केतु को माना जाता है, जबकि वैज्ञानिक ष्टिकोण से आंवला के पेड़ को अश्र्िवनी नक्षत्र का प्रतीक माना जाता है और अश्र्िवनी नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोग आंवला के पेड  की पूजा करते है। इस नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोग अपने घर के खाली हिस्से में आंवला के पेड  को लगाते है, हालांकि वैज्ञानिक मानचित्र में अश्र्िवनी नक्षत्र को एक विशेष रुप में दिखा गया है।

२.भरणीः-
 भरणी नक्षत्र के देवता शुक्र को माना जाता है,जबकि वैज्ञानिक ष्टिकोण से युग्म वृक्ष के पेड  को भरणी नक्षत्र का प्रतीक माना जाता है और भरणी नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोग युग्म वृक्ष की पूजा करते है। इस नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोग अपने घर के खाली हिस्से में युग्म वृक्ष के पेड  को लगाते है, हालांकि वैज्ञानिक मानचित्र में भरणी नक्षत्र को एक विशेष रुप में दिखाया गया है।

३. कृत्तिकाः-
 कृत्तिका नक्षत्र के देवता रवि को माना जाता है,जबकि वैज्ञानिक ष्टिकोण से गुलर के पेड  को कृत्तिका नक्षत्र का प्रतीक माना जाता है और कृत्तिका नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोग गुलर के पेड  पूजा करते है। इस नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोग अपने घर के खाली हिस्से में गुलर के पेड  को लगाते है, हालांकि वैज्ञानिक मानचित्र में कृत्तिका नक्षत्र को एक विशेष रुप में दिखाया गया है।

४. रोहिणीः-
 रोहिणी नक्षत्र के देवता चंद्र को माना जाता है,जबकि वैज्ञानिक ष्टिकोण से जामुन केपेड  को रोहिणी नक्षत्र का प्रतीक माना जाता है और रोहिणी नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोग जामुन के पेड  की पूजा करते है। इस नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोग अपने घर के खाली हिस्से में जामुन के पेड  को लगाते है, हालांकि वैज्ञानिक मानचित्र में रोहिणी नक्षत्र को एक विशेष रुप में दिखाया गया है।

५.मृगशिराः-
 मृगशिरा नक्षत्र के देवता मंगल को माना जाता है,जबकि वैज्ञानिक ष्टिकोण से खैर के पेड़ को मृगशिरा नक्षत्र का प्रतीक माना जाता है और मृगशिरा नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोग खैर वृक्ष की पूजा करते है। इस नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोग अपने घर के खाली हिस्से में खैर के पेड  को लगाते है, हालांकि वैज्ञानिक मानचित्र में मृगशिरा नक्षत्र को एक विशेष रुप में दिखाया गया है।

६.आद्राः-
 आद्रा नक्षत्र के देवता राहु को माना जाता है,जबकि वैज्ञानिक ष्टिकोण से पाकड  के पेड  को आद्रा नक्षत्र का प्रतीक माना जाता है और आद्रा नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोग पाकड  वृक्ष की पूजा करते है। इस नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोग अपने घर के खाली हिस्से में पाकड  के पेड  को लगाते है, हालांकि वैज्ञानिक मानचित्र में पाकड  नक्षत्र को एक विशेष रुप में दिखाया गया है।

७.पुनर्वसुः-
 पुनर्वसु नक्षत्र के देवता वृहस्पति को माना जाता है,जबकि वैज्ञानिक ष्टिकोण से बांस के पेड  को पुनर्वसु नक्षत्र का प्रतीक माना जाता है और पुनर्वसु नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोग बांस के वृक्ष की पूजा करते है। इस नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोग अपने घर के खाली हिस्से में बांस के पेड  को लगाते है, हालांकि वैज्ञानिक मानचित्र में पुनर्वसु नक्षत्र को एक विशेष रुप में दिखाया गया है।

८.पूष्यः-
 पुष्य नक्षत्र के देवता शनि को माना जाता है,जबकि वैज्ञानिक ष्टिकोण से पीपल के पेड  को पूष्य नक्षत्र का प्रतीक माना जाता है और पुष्य नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोग पीपल वृक्ष की पूजा करते है। इस नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोग अपने घर के खाली हिस्से में पीपल वृक्ष के पेड  को भी लगाते है, हालांकि वैज्ञानिक मानचित्र में पूष्य  नक्षत्र को एक विशेष रुप में दिखाया गया है।

९.अश्लेशाः-
 अश्लेशा नक्षत्र के देवता बुध को माना जाता है,जबकि वैज्ञानिक ष्टिकोण से नागकेशर के पेड़ को अश्लेशा नक्षत्र का प्रतीक माना जाता है और अश्लेशा नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोग नागकेशर की पूजा करते है। इस नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोग अपने घर के खाली हिस्से में नागकेशर के पेड  को लगाते है, हालांकि वैज्ञानिक मानचित्र में अश्लेशा नक्षत्र को एक विशेष रुप में दिखाया गया है।

१०.मघाः-
 मघा नक्षत्र के देवता केतु को माना जाता है,जबकि वैज्ञानिक ष्टिकोण से बरगद के पेड  को मघा नक्षत्र का प्रतीक माना जाता है और मघा नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोग बरगद की पूजा करते है। इस नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोग अपने घर के खाली हिस्से में बरगद के पेड  को लगाते है, हालांकि वैज्ञानिक मानचित्र में मघा नक्षत्र को एक विशेष रुप में दिखाया गया है।

११.पूर्वाफल्गुनीः-
 पूर्वाफल्गुनी नक्षत्र के देवता शुक्र को माना जाता है,जबकि वैज्ञानिक ष्टिकोण से पलास के पेड  को पूर्वा फल्गुनी  नक्षत्र का प्रतीक माना जाता है और पूर्वा फल्गुनी नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोग पलास वृक्ष की पूजा करते है। इस नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोग अपने घर के खाली हिस्से में पलास के पेड  को लगाते है, हालांकि वैज्ञानिक मानचित्र में पूर्वा फल्गुनी नक्षत्र को एक विशेष रुप में दिखाया गया है।

१२.उत्तराफाल्गुनीः-
 उत्तराफल्गुनी नक्षत्र के देवता रवि को माना जाता है,जबकि वैज्ञानिक ष्टिकोण से रुद्राक्ष के पेड  को उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र का प्रतीक माना जाता है और उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोग रुद्राक्ष वृक्ष की पूजा करते है। इस नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोग अपने घर के खाली हिस्से में रुद्राक्ष के पेड  को लगाते है, हालांकि वैज्ञानिक मानचित्र में उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र को एक विशेष रुप में दिखाया गया है।

१३.हस्तः-
 हस्त नक्षत्र के देवता चंद्र को माना जाता है,जबकि वैज्ञानिक ष्टिकोण से रीठा के पेड  को हस्त नक्षत्र का प्रतीक माना जाता है और हस्त नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोग रीठा के वृक्ष की पूजा करते है। इस नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोग अपने घर के खाली हिस्से में रीठा के पेड  को लगाते है, हालांकि वैज्ञानिक मानचित्र में हस्त नक्षत्र को एक विशेष रुप में दिखाया गया है।

१४.चित्राः-
 चित्रा नक्षत्र के देवता चित्रगुप्त को माना जाता है,जबकि वैज्ञानिक ष्टिकोण से बेल के पेड़ को चित्रा नक्षत्र का प्रतीक माना जाता है और चित्रा नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोग बेल वृक्ष की पूजा करते है। इस नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोग अपने घर के खाली हिस्से में बेल के पेड  को लगाते है, हालांकि वैज्ञानिक मानचित्र में चित्रा नक्षत्र को एक विशेष रुप में दिखाया गया है।

१५.स्वातीः
 स्वाती नक्षत्र के देवता राहु को माना जाता है,जबकि वैज्ञानिक ष्टिकोण से अर्जुन के पेड  को स्वाती नक्षत्र का प्रतीक माना जाता है और स्वाती नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोग अर्जुन वृक्ष की पूजा करते है। इस नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोग अपने घर के खाली हिस्से में अर्जुन के पेड  को लगाते है, हालांकि वैज्ञानिक मानचित्र में स्वाती नक्षत्र को एक विशेष रुप में दिखाया गया है।

१६.विशाखाः-
 विशाखा नक्षत्र के देवता वृहस्पति को माना जाता है,जबकि वैज्ञानिक ष्टिकोण से विकंकत के पेड  को विशाखा नक्षत्र का प्रतीक माना जाता है और विशाखा नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोग विकंकत वृक्ष की पूजा करते है। इस नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोग अपने घर के खाली हिस्से में विकंकत के पेड  को लगाते है, हालांकि वैज्ञानिक मानचित्र में विकंकत नक्षत्र को एक विशेष रुप में दिखाया गया है।

१७.अनुराधाः-
 अनुराधा नक्षत्र के देवता शनि को माना जाता है,जबकि वैज्ञानिक ष्टिकोण से मौल श्री के पेड  को अनुराधा नक्षत्र का प्रतीक माना जाता है और अनुराधा नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोग मौल श्री की पूजा करते है। इस नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोग अपने घर के खाली हिस्से में मौल श्री के पेड  को लगाते है, हालांकि वैज्ञानिक मानचित्र में मौल श्री नक्षत्र को एक विशेष रुप में दिखाया गया है।

१८.ज्येष्ठाः-
 ज्येष्ठा नक्षत्र के देवता बुध को माना जाता है,जबकि वैज्ञानिक ष्टिकोण से चीड  के पेड  को ज्येष्ठा नक्षत्र का प्रतीक माना जाता है और ज्येष्ठा नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोग चीड  की पूजा करते है। इस नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोग अपने घर के खाली हिस्से में चीड  के पेड  को लगाते है, हालांकि वैज्ञानिक मानचित्र में ज्येष्ठा नक्षत्र को एक विशेष रुप में दिखाया गया है।

१९.मूलः-
 मूल नक्षत्र के देवता केतु  को माना जाता है,जबकि वैज्ञानिक ष्टिकोण से साल के पेड़ को मूल नक्षत्र का प्रतीक माना जाता है और मूल नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोग साल वृक्ष की पूजा करते है। इस नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोग अपने घर के खाली हिस्से में साल के पेड  को लगाते है, हालांकि वैज्ञानिक मानचित्र में मूल नक्षत्र को एक विशेष रुप में दिखाया गया है।

२०.पूर्वाषाढ ाः-
 पूर्वाषाढ ा नक्षत्र के देवता शुक्र को माना जाता है,जबकि वैज्ञानिक ष्टिकोण से सीता अशोक के पेड  को पूर्वाषाढ ा नक्षत्र का प्रतीक माना जाता है और पूर्वाषाढ ा नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोग सीता अशोक के पेड  की पूजा करते है। इस नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोग अपने घर के खाली हिस्से में सीता अशोक के पेड  को लगाते है, हालांकि वैज्ञानिक मानचित्र में पूर्वाषाढ ा नक्षत्र को एक विशेष रुप में दिखाया गया है।

२१.उत्तराषाढ ाः-
 उत्तराषाढ ा नक्षत्र के देवता रवि को माना जाता है,जबकि वैज्ञानिक ष्टिकोण से कटहल के पेड  को उत्तराषाढ ा नक्षत्र का प्रतीक माना जाता है और उत्तराषाढ ा नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोग कटहल वृक्ष की पूजा करते है। इस नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोग अपने घर के खाली हिस्से में कटहल के पेड  को लगाते है, हालांकि वैज्ञानिक मानचित्र में उत्तराषाढ ा नक्षत्र को एक विशेष रुप में दिखाया गया है।

२२.श्रवणः-
 श्रवण नक्षत्र के देवता चंद्र को माना जाता है,जबकि वैज्ञानिक ष्टिकोण से अकवन के पेड  को श्रवण नक्षत्र का प्रतीक माना जाता है और श्रवण नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोग अकवन वृक्ष की पूजा करते है। इस नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोग अपने घर के खाली हिस्से में अकवन के पेड  को लगाते है, हालांकि वैज्ञानिक मानचित्र में अकवन नक्षत्र को एक विशेष रुप में दिखाया गया है।

२३.श्रविष्ठा या घनिष्ठा :-
 श्रविष्ठा नक्षत्र के देवता मंगल को माना जाता है,जबकि वैज्ञानिक ष्टिकोण से शम्मी के पेड  को श्रविष्ठा नक्षत्र का प्रतीक माना जाता है और श्रविष्ठा नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोग शम्मी के पेड  की पूजा करते है। इस नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोग अपने घर के खाली हिस्से में शम्मी के पेड  को लगाते है, हालांकि वैज्ञानिक मानचित्र में श्रविष्ठा नक्षत्र को एक विशेष रुप में दिखाया गया है।

२४.शतभिषाः-
 शतभिषा नक्षत्र के देवता राहु को माना जाता है,जबकि वैज्ञानिक ष्टिकोण से कदम्ब केपेड़ को शतभिषा नक्षत्र का प्रतीक माना जाता है और शतभिषा नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोग कदम्ब वृक्ष की पूजा करते है। इस नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोग अपने घर के खाली हिस्से में कदम्ब के पेड  को लगाते है, हालांकि वैज्ञानिक मानचित्र में शतभिषा नक्षत्र को एक विशेष रुप में दिखाया गया है।

२५.पूर्व भाद्रपदः-
 पूर्व भाद्रपद नक्षत्र के देवता वृहस्पति को माना जाता है,जबकि वैज्ञानिक ष्टिकोण से आम के पेड  को पूर्व भाद्रपद नक्षत्र का प्रतीक माना जाता है और पूर्वा भाद्रपद नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोग आम के पेड  की पूजा करते है। इस नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोग अपने घर के खाली हिस्से में आम के पेड  को लगाते है, हालांकि वैज्ञानिक मानचित्र में पूर्व भाद्रपद नक्षत्र को एक विशेष रुप में दिखाया गया है।

२६.उत्तर भाद्रपदाः-
 उत्तर भाद्रपदा नक्षत्र के देवता शनि को माना जाता है,जबकि वैज्ञानिक ष्टिकोण से नीम के पेड  को उत्तर भाद्रपदा नक्षत्र का प्रतीक माना जाता है और उत्तर भाद्रपदा नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोग नीम के पेड  की पूजा करते है। इस नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोग अपने घर के खाली हिस्से में नीम के पेड  को लगाते है, हालांकि वैज्ञानिक मानचित्र में उत्तर भाद्रपद नक्षत्र को एक विशेष रुप में दिखाया गया है।

२७.रेवतीः
 रेवती नक्षत्र के देवता बुध को माना जाता है,जबकि वैज्ञानिक ष्टिकोण से महुआ के पेड  को रेवती नक्षत्र का प्रतीक माना जाता है और रेवती  नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोग महुआ की पूजा करते है। इस नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोग अपने घर के खाली हिस्से में महुआ के पेड  को लगाते है, हालांकि वैज्ञानिक मानचित्र में रेवती नक्षत्र को एक विशेष रुप में दिखाया गया है।