Friday, July 21, 2023

नमो घाट

काशी के अर्द्धचंद्राकार घाटों के अंतिम छोर पर स्थित खिड़किया घाट को प्रशासन ने नमो घाट के रूप में नया कलेवर दे दिया है। यहां पहले से ही 25-25 फीट के तीन स्कल्पचर स्थापित हैं और यहां आने वाले पर्यटकों के बीच सबसे पसंदीदा हैं। 35.83 करोड़ रुपये की लागत से नमो घाट के पहले चरण का काम हुआ है। यहां पर नमस्ते करते हुए तीन स्कल्पचर तैयार कराए गए हैं। पर्यटन के लिहाज से अपने आप में अनूठा है। यहां पर्यटक सुबह-ए-बनारस का नजारा देख सकेंगे। साथ ही गंगा आरती में भी शामिल हो सकेंगे। वाटर एडवेंचर स्पोर्ट्स का मजा भी ले सकेंगे। 


   

Namo Ghat

The renovated ‘Khidkiya ghat’, popularly known as ‘Namo ghat’ because of three large sculptures in the form of hands folded in ‘namaste’,The ₹34-crore project which is nearing completion, will become the 85th ghat in Varanasi.“It is in sync with modernity while the traditional ethos has been maintained,” the official said. The ghat is equipped with state-of-the-art facilities for the tourists. A cafeteria, platforms, paintings on the walls showcasing heritage of Kashi are there. The ghat will help decongest Dashashwamedh Ghat, he said.The sculptures of folded hands greeting the sun had become the new identity of the ghat. The two statues, one 25-feet-tall and another smaller one 15-feet-tall, were salutation to the Ganga.



पंचक्रोशी यात्रा

 काशी में अनेक शिवभक्त काशी नगरी की पंचक्रोशी यात्रा करने की इच्छा व्यक्त कर रहे हैं, परन्तु उन्हें ज्ञात नहीं कि......

 ......................काशी की पंचक्रोशी यात्रा को विधि नियम से मात्र भगवान शिव, माता पार्वती अन्नपूर्णा जी, श्री ढुंढीराज जी, भगवान राम, माता सीता और भगवान श्रीकृष्ण ही कर सके है, या कुछ ऋषि मुनि साधु सन्त विद्वान् मनुष्य....

शेष हम जैसे मनुष्य की कल्पना ही है काशी की पंचक्रोशी यात्रा करना... #ॐविश्वेश्वरायनमः


#श्री_ढुंढीराज कृपा से काशीखण्ड,ब्रह्म,काशीरहस्य मत्स्यपुराण कूर्मपुराण, विष्णुपुराण, शिवरहस्य एवं कुबेर नाथ शुक्ल जी की और ज्ञानवापी के धर्म योद्धा स्व.श्री प.केदारनाथ व्यास जी की पुस्तक में वर्णित पौराणिक पंचक्रोशी यात्रा के विधि नियम को जाने।

पंचकोशी यात्रा पौराणिक विधि सुदीर्घ होने से कई खण्डों में इसे आप तक पहुँचने का प्रयास करूँगा----


#पार्वतीजी ने हाथ जोड़ कर शिवजी से प्रश्न किया कि--

 #हे_काशीनाथ ! ममनाथ त्रिपुरारी। मैने आपके मुख से सुना है कि काशीकृत पाप का बड़ा भारी दुःख होता है, इस दुःख से मुक्ति के लिए कोई सुगम उपाय बताइये, जिसमें कलिकाल के मनुष्यों का उद्धार हो।


यह प्रश्न सुनकर श्री विश्वनाथ जी महाराज प्रसन्न होकर बोले हे सुन्दरी । तुमने इस कलिकाल के जीवों के उपकारार्थ बहुत ही अच्छा प्रश्न किया है। हे प्रिये। अब ध्यान देकर सुनो, मैं कहता हूँ -


अन्यक्षेत्रे कृतं पापं पुण्यक्षेत्रे विनश्यति । 

पुण्यक्षेत्रे कृतं पापं गङ्गातीरे विनश्यति ।। 

गङ्गातीरे कृतं पापं काशीं प्राप्य विनश्यति । 

काश्यां तु यत्कृतं पापं वाराणस्यां विनश्यति ।। 

वाराणस्यां कृतं पापमविमुक्ते विनश्यति । 

अविमुक्ते कृतं पापमन्तर्गेहे विनश्यति ।। 

अन्तर्गेहे कृतं पापं वज्रलेपो भविष्यति । 

वज्रलेपच्छिदं ह्येतत्पञ्चक्रोशप्रदक्षिणम्।।

 तस्मात्सर्वप्रयत्वेन कुर्यात् क्षेत्रप्रदक्षिणाम् ।

(ब्रह्मवैवर्तपुराणे)


मनुष्य ने किसी स्थान में पाप किये हों, वह पाप पुण्यक्षेत्र में छूट जाता है।

पुण्यक्षेत्र का पाप गंगा प्राप्त होने पर छूट जाता हैं। गंगातीर का पाप काशीपुरी में नष्ट हो जाता है। काशी का पाप उसके भीतर वाराणसी में नष्ट होता है,वाराणसी का पाप उसके भीतर अविमुक्त में नष्ट होता है। अविमुक्त का पाप उसके भीतर अन्तर्गृही यात्रा में छूटता है, अन्तर्गृही का पाप वज्रलेप होता है अर्थात पाप कर्ता को नहीं छोड़ता, लिप्त ही रहता है। इस वज्रलेप पाप को छेदन करने वाली पंचक्रोशी प्रदक्षिणा है। इसलिए सबको प्रयत्न से पंचक्रोशी प्रदक्षिणा करनी आवश्यक है।


दक्षिणे चोत्तरे चैव ह्ययने सर्वदा मया ।

क्रियते क्षेत्रदाक्षिण्यं भैरवस्य भयादपि ।।

( सनत्कुमार संहितायाम् )


अतएव हे सुन्दरी ! मै भी भैरव के भय से सदा सर्वदा दक्षिणायन तथा उत्तरायण दोनो अयनों में प्रदक्षिणा अर्थात पंचक्रोशी यात्रा करता हूँ।


कलावत्यन्तगोप्यानि भविष्यन्ति गिरीन्द्रजे ।

परं तेषां प्रभावो यः स स्वस्थानं न हास्यति ॥

 (काशीखण्डे) 


शंकरजी पार्वतीजी से कहते हैं --

हे पार्वती ! कलियुग में लिंग या तीर्थ प्रायः अत्यन्त गुप्त हो जायेंगे, परन्तु उनका जो विशेष प्रभाव है, वह अपने स्थान को नहीं छोड़ेंगे।

और अन्य शास्त्रों में भी कहा है कि “कलौ स्थानानि पूज्यन्ते” अतएव गुप्त हुई मूर्ति या तीर्थ के स्थान ही का दर्शन और पूजन करना चाहिए।


#पंचक्रोशीयात्रामहादेव_कहें-


आश्विन्यादिषु मासेषु त्रिषु पार्वति सर्वदा । 

प्रदक्षिणा प्रकर्तव्या, क्षेत्रस्यापापकांक्षिभिः ।। ६ ।। 

माघादि चतुरो मासाः प्रोक्ता यात्राविधौ नृणाम् ।

(ब्रह्म-काशीरहस्य, अध्या० १०)


महादेव कहते है-  हे पार्वति, आश्विन से तीन महीना तक 'कुवार, कार्तिक, अगहन' और माघ से चार महीने तक 'माघ, फाल्गुन, चैत्र, वैशाख' इन महीनों में पापों से छुटकारा पाने के लिए यात्रा करनी चाहिए।


#यात्राकहाँसेआरम्भकरें ? 

काशीरहस्य में इस प्रकार लिखा है- पंचक्रोशीयात्रा मुक्तिमण्डप व्यासासन से आरम्भ होकर वहीं पर समाप्त होती है।


जो सज्जन यात्रा का संकल्प मणिकर्णिका ही पर लेकर यात्रा प्रारंभ कर देते है, उनकी यात्रा विधिहीन हो जाती है । 

क्योकि यात्रा का संकल्प ज्ञानवापी स्थित व्यासासन से होना चाहिए। ज्ञानवापी से कर्दमेश्वर- पहिला निवास स्थान ३ कोस है। 

भीमचण्डी- दूसरा निवास स्थान ५ कोस है । कुल ८ कोस हुआ। रामेश्वर- तीसरा निवास स्थान ७ कोस, कुल १५ कोस हुआ। शिवपुर- चौथा निवास स्थान ४ कोस, कुल १६ कोस हुआ। कपिलधारा- पांचवा निवास स्थान ३ कोस, कुल २२ कोस हुआ। मणिकर्णिका ३ कोस, कुल २५ कोस की इस रीति से यह पंचक्रोशी यात्रा होती है।


इसमें मणिकर्णिका से अस्सी संगम और वरुणा संगम से मणिकर्णिका तक गंगा के तीरे तीरे जाना पड़ता है। बरसात में लोग नाव से जाते है। बाकी सब कच्ची सड़क है। जिसपर दाहिनी ओर दर्शनीय देवताओं के सुन्दर मन्दिर प्रत्येक निवास स्थान की जगह पर विशाल धर्मशालाएं, मनोहर जलवाले सरोवर तथा अगाध जलराशि वाले कूप दोनो तरफ सघन पल्लवित वृक्षों की पंक्तियों से सड़क सुशोभित हैं। बड़े बड़े विद्वान, राजा-महाराजा, धर्मात्मा, साहूकार, विद्यार्थि, स्त्री-पुरुष अपने-अपने किये पापों के प्रायश्चित्त के निमित्त यात्रा करते है।


#क्षेत्रसंन्यासीविशेष


भगवन् सर्वभूतेश कृपापूरितविग्रह ।

कृतार्थानां वद विभो क्षेत्रसंन्यासिनामपि ॥ 1

प्रदक्षिणाक्रमं क्षेत्राद्वहिर्वा मध्यतोऽपि वा । 

नियमस्य न भङ्गः स्याद् यथा पापं च नश्यतु ॥2

 (काशीरहस्य, अ० ११)


हे भगवान्, हे कृपालो, क्षेत्र में रहने वाले संन्यासियों के लिए प्रदक्षिणा का क्रम क्षेत्र के बाहर से या भीतर से है ? हे भूतेश, जिसमें पाप का नाश हो जाय और नियम भंग न हो, यह कृपापूर्वक बताइए ।


श्री भगवानुवाच-


सम्यक् पृष्टं त्वया देवि महा ऽहंकारनाशनम् । 

प्रायश्चित्तं न्यासिनां हि क्षेत्राघौघविनाशनम् ॥ 3 ॥


क्षेत्र के पाप का तथा महाहंकार का नाश करने वाला संन्यासियों का प्रायश्चित तुमने बहुत अच्छा पूछा।


विधिस्तु पूर्वमेवोक्तो नियमादियुतस्तव ।

प्रदक्षिणात्रयं तेषामवधारय सुव्रते ॥ 4


विधि तो नियम के साथ पहिले ही कह चुके। तीन प्रदक्षिणा उनको अवश्य करनी चाहिए। अधिक करें तो और अच्छा लेकिन तीन से कम न हों।


#यात्रामेंसवारीकानियम


कथयिष्यामि ते राजन् तीर्थयात्राविधिक्रमम् ।

 आर्येणैव विधानेन यथा दृष्टं यथा श्रुतम् ॥ 5

(मत्स्यपुराणे, अ० १०५)

मार्कण्डेय जी का वचन है कि ऋषियों से जैसा सुना है और देखा है वह तीर्थ का विधिक्रम कहता हूं।


पंचक्रोश्याश्च सीमानं प्राप्य देवो जनार्दनः ।

 वैनतेयादवारुह्य करे धृत्त्वा ध्रुवं ततः ।।  

112 (का० ख० अ० २१)


जब विष्णु भगवान् काशी की यात्रा में आते है, तब गरुड़ को काशी की सीमा के बाहर ही छोड़ दिया करते हैं । 

अर्थात् जनार्दन देव पंचक्रोशी की सीमा पर पहुँचकर गरुड़ से उतर ध्रुव को हाथ से पकड़ कर चलते हैं।


वलीवर्दं समारूढ़ा श्रृणु तस्याऽपि यत्फलम् । 

नरके वसते घोरे समाः कल्पशतायुतम् ॥ 3


जो पुरुष बैलगाड़ी पर यात्रा करता है, वह घोर नरक में पड़ता है। क्योकि गौवों का क्रोध बड़ा भयानक होता है।


सलिलं च न गृहन्ति पितरस्तस्य देहिनः ।।4

ऐश्वर्याल्लोभमोहाद्वा, गच्छेद्यानेन यो नरः ।। 5


घन के लोभ में मोहवश साथवश हम सवारी से चलते हैं तुम भी सवारी से चलो ऐसे यात्रा करने वाले के हाथ का जल पितर लोग ग्रहण नहीं करते।


निष्फलं तस्य तत्तीर्थं तस्माद्यानं विवर्जयेत् ।।6

(कूर्मपुराण अ० ३७)


उसकी वह पंचक्रोश यात्रा निष्फल हो जायेगी, इसलिए सवारी से यात्रा नहीं करना चाहिए।


नरयानं चाश्वतरी, हयादिसहितो रथः । 

तीर्थयात्रा ह्यशक्तानां, यानदोषकरी नहि ।। 5 (कूर्मपुराणे)


जो यात्रा करने में असमर्थ है, उनको घोड़ा गाड़ी से अथवा पालकी से जाने में दोष नहीं होता। शक्ति रहते हुए नहीं ।


गोयाने गोवधः प्रोक्तो, हय्याने तु निष्फलम् ।

नरयाने तदर्थस्यात् पद्भ्यां तच्च चतुर्गुणम् ।। 6


बैलबाड़ी से चलने में गोवध का पाप होता है और घोड़ा गाड़ी से यात्रा निष्फल होती है। पालकी से आधा और पैदल चौगुनाफल होता है।


पद्भ्याम् पादुका शून्याभ्याम् ।(विष्णुपुराणे)


पैदल यानी बिना जूता के यात्रा करना चाहिये।


यानमर्धफलं हन्ति, तदर्थ छत्रपादुके । 

वाणिज्यं त्रींस्तत्भागान् सर्वं हन्ति प्रतिग्रहः ।।


सवारी आधा फल ले लेती है। उससे आधा छाता और जूता, वाणिज्य तीन भाग, प्रतिग्रह यानी (दान) का सब फल ले लेता है।


#नोट :- जो बिना जूता के नहीं चल सकते, वे कपड़े का पहने जो शक्ति रहते मोटर आदि सवारियों से चलते है, उनका जाना निष्फल हैं। क्योकि प्रायश्चित्त शारीरिक कष्ट के द्वारा होता है। शक्ति रहते मोटर आदि सवारियों से कभी नहीं जाना चाहिए। इससे तीर्थ की मर्यादा भंग होती है और दूसरे यात्रियों के चलने में उद्विग्न होने का दोष होता है। ऐसी स्थिति में अपने नाम गोत्र के द्वारा यात्रा करने के लिए बाह्य प्रतिनिधि स्वरूप भेज सकते है। ऐसे ही नियमानुसार स्वर्गवासियों के निमित्त भेजा जा सकता है।


#यात्रामेंवास_विचार


फाल्गुन मास की यात्रा शिवरहस्य के मत से ७ रात्रि निवास का रक्खा गया है और काशी रहस्य के अनुसार चार रात्रि निवास का रक्खा गया है।


सेतुलिंग पुराण का मत है यात्रा करने वालों को एक रात्रि वास पाशपाणि विनायक पर करना चाहिये। काशीरहस्य के मतानुसार पाशपाणि विनायक का पूजन ही लिखा है।


सूतसूत महाबुद्धे वेदविद्याविशारद ।

यथा प्रदक्षिणा कार्या मनुजैर्विधिपूर्वकम् ।।1

स्थानंवासस्य वद नो, भक्ष्यं वाऽभक्ष्यमेवच ।

 पूजां सीम्नि स्थितानां च देवानां दानमेव च ।। 2

यथा सम्पूर्णतामेति,यात्राक्षेत्रस्य सत्तम ॥ 3


ऋषियों ने पूछा है कि, हे सूत !  जैसे लोगो को विधि पूर्वक प्रदक्षिणा करनी चाहिए और जहां वास करना चाहिए, यह विस्तार से कहिये 


#सूतजी_बोले इसी प्रकार पहले पार्वती ने शिवजी से पूछा था। शिवजी ने पार्वतीजी को जो विधि बतायी है, वही उत्तम विधि कहता हूँ।


जो यात्री दो रात्रि-वास करके यात्रा करना चाहे तो भीमचण्डी, रामेश्वर में वास करें। तीन रात्रिवास करके यात्रा करने वाला दुर्गाकुण्ड, भीमचण्डी, रामेश्वर में वास करे और चार रात्रि में यात्रा करने की इच्छा वाला कदमेश्वर, भीमचण्डी, रामेश्वर और कपिलधारा में वास करे। सात दिन का वास करने की इच्छा वाला दुर्गाकुण्ड, कर्दमेश्वर, भीमचण्डी, देहली विनायक, रामेश्वर, पाशपाणि विनायक और कपिलधारा में वास करें। वरुणा नदी का सर्वथा उल्लघन नहीं लिखा है। राजा, वृद्ध, सुकुमार बालकों के लिए जहां मर्जी हो वहां वास करें।


#यात्रामेंभोजनकानियम


परान- दूसरे का अत्र नहीं ग्रहण करना चाहिए। तैल मांसादि सेवन नहीं करना, मांसान्नादि-मसूरी, उरद, चना, कोदो यह सब अत्र और पान नहीं खाना। रात्रि जागरण, कीर्तन, भजन, पुराणपाठ, भूमिशयन आदि करना । पर स्त्री भाषण नहीं करना चाहिए । पर-धन ग्रहण नहीं करना, असत्य भाषण नहीं करना चाहिए। दुर्जन पापियों का संग नहीं करना, किसी प्रकार की पापबुद्धि नहीं करनी चाहिए।




Friday, November 18, 2022

काशी के इतिहास की वो तिथियां जिन्होंने बदल दिया बनारस को

800 ई0पू0    राजघाट (वाराणसी) में प्राचीनतम बस्ती और मिट्टी के तटबंध के पुरावशेष

8वीं सदी ई0पू0     तेईसवें जैन तीर्थंकर पार्श्वनाथ का काशी में जन्म।

7वीं सदी ई0पू0 काशी-एक स्वतंत्र महाजनपद।

625 ई0पू0    काशी सारनाथ में सर्वप्रथम भगवान बुद्ध ने बौद्धधर्म का उपदेश दिया था।

405 ई0पू0    चीनी यात्री फाह्यान का काशी में  आगमन हुआ।

340 ई0पू0    सम्राट अशोक की वाराणसी-यात्रा। सारनाथ में अशोक-स्तंभ और धम्मेख तथा धर्मराजिक स्तूपों की स्थापना।

1 ई0 से 300 ई0   राजघाट के पुरावशेषों के आधार पर वाराणसी के इतिहास में समृद्धि का काल।

सन् 302  मणिकर्णिका घाट का निर्माण हुआ था

816 ई0    आदि जगदगुरू शंकराचार्य का काशी में आगमन हुआ।

सन् 580  पचगंगा घाट का निर्माण हुआ।

12वीं सदी काशी पर गहड़वालों का शासन। गहड़वाल नरेश गोविन्दचंद्र के राजपंडित दामोदर द्वारा तत्कालीन   लोकभाषा (कोसली) में उक्तिव्यक्ति प्रकरण की रचना। गोविंदचंद्र की रानी कुमारदेवी ने सारनाथ में विहार     बनवाया। गहडवाल युग में काशी के   प्रधान देवता अविमुक्तेश्वर शिव की विश्वेश्वर में तब्दीली।

सन् 1193 काशीराज जयचंद की मृत्यु।

सन् 1194 कुतुबुद्दीन का काशी पर आक्रमण हुआ, जिसने विष्णु-मंदिर को तोड़कर ढाई कंगूरे की मस्जिद बनवा दी।

सन् 1194 व 1197  काशी पर शहाबुद्दीन और कुतुबुद्दीन ऐबक के हमले। काशी की भारीलूट। गहडवालों का अंत।

सन् 1248 दूसरी बार मुहम्मद गोरी का आक्रमण हुआ।

सन् 1393 माघ शुक्ल पूर्णिमा को काशी में रविदास का जन्म हुआ।

सन् 1516 फरवरी माह में चैतन्य महाप्रभु का काशी में आगमन हुआ, जहाँ पर ठहरे थे वह स्थान चैतन्य वट के नाम से प्रसिद्ध है।

सन् 1526    बाबर ने इब्राहीम लोदी को पराजित   करने के बाद काशी पर भी आक्रमण किया।

सन् 1531 बनारस व सारनाथ में हुमायूं का डेरा।

सन् 1538 बनारस पर शेरशाह की चढ़ाई।

सन् 1553 सिख सम्प्रदाय के प्रथम गुरु श्री गुरूनानक देव जी का काशी आगमन हुआ और  काशी में कई वर्ष़ों तक        ठहरे थे। यह स्थान आज गुरुबाग के नाम से प्रसिद्ध है।

सन् 1565 काशी पर बादशाह अकबर का कब्जा।

सन् 1583-91  प्रथम अंग्रेज यात्री रॉल्फ फिच की वाराणसी-यात्रा।

सन् 1584 काशी में ज्ञानवापी स्थित प्राचीन विश्वेश्वर मन्दिर का निर्माण दिल्ली सम्राट अकबर के दरबारी राजा       टोडरमल के द्वारा हुआ।

सन् 1585 राजा टोडरमल और नारायण भट्ट की मदद से विश्वनाथ मंदिर का पुननिर्माण।

सन् 1600 राजा मान सिंह द्वारा काशी में मानमंदिर और घाट का निर्माण।

सन् 1623 सोमवंशी राजा वासुदेव के मंत्री नरेणु रावत के पुत्र श्री नारायण दास के दान से काशी में मणिकर्णिका घाट    स्थित चक्रपुष्करणी तीर्थ का निर्माण हुआ।

सन् 1642 विंदुमाधव मन्दिर ( प्रथम ) का निर्माण जयपुर के राजा जयसिंह द्वारा हुआ।

सन् 1656     दारा शिकोह की बनारस यात्रा।

सन् 1666   औरंगजेब की आगरा-कैद से भागकर छत्रपति शिवाजी कुछ दिन काशी में ठहरे।

सन् 1669   औरंगजेब के आदेश से विश्वनाथ मंदिर गिरा कर उसके स्थान पर ज्ञानवापी की मस्ज़िद उठा दी गई।   बिंदुमाधव का मन्दिर भी गिराकर वहां मस्जिद बनाई गई।

सन् 1669 औरंगजेब के शासन काल में उसकी आज्ञा से ज्ञानवापी का विश्वेश्वर मन्दिर तोड़ा गया।

सन् 1669 छत्रपति शिवाजी आगरे के किले से औरंगजेब को चकमा देकर कैद से निकल कर सीधे काशी आये। यहाँ    आकर पंचगंगा घाट पर स्नान किया।

सन् 1673 काशी में औरंगजेब द्वारा बेनी माधव का मन्दिर तोड़ा गया।

सन् 1699 आमेर के महाराज सवाई जयसिंह के द्वारा काशी में पंचगंगा घाट पर राम मन्दिर बनवाया था।

सन् 1714 गंगापुर ग्राम में कार्त्तिक कृष्ण पक्ष में काशीराज महाराज बलवन्त सिंह का जन्म हुआ।

सन् 1725 काशी राज्य की स्थापना।

सन् 1734 नारायण दीक्षित पाटणकर का वाराणसी आगमन; उन्होंने यहां कई घाट बनवाए।

सन् 1737 महाराजा जयसिंह नें मानमन्दिर वेधशाला का निर्माण कराया।

सन् 1740 बलवन्त सिंह के पिता श्री मनसाराम का देहावसान हो गया।

सन् 1741-42  गंगापुर में तत्कालीन काशीराज द्वारा दुर्ग का निर्माण कराया गया।

सन् 1737 सवाई जयसिंह द्वारा मानमंदिर- वेधशाला की स्थापना।

सन् 1747 महाराज बलवन्त सिंह ने चन्देल वंशी राजा को पराजित कर विजयगढ़ पर अधिकार किया।

सन् 1752 काशीराज बलवंत सिंह द्वारा रामनगर किले का निर्माण।

सन् 1754 महाराज बलवन्त सिंह ने पलिता दुर्ग पर विजय पाया।

सन् 1755 बंगाल, नागौर राज्य की रानी भवानी के द्वारा पंचक्रोशी स्थित कर्दमेश्वर महादेव के सरोवर का निर्माण हुआ।

सन् 1756 रानी भवानी ने भीमचण्डी के सरोवर का निर्माण करवाया।

सन् 1770 21 अगस्त का महाराज बलवन्त सिंह का स्वर्गवास हुआ।

सन् 1770 से 1781 तक काशी पर महाराज चेतसिंह का शासन था।

सन् 1777 महारानी अहिल्याबाई ने विश्वनाथ मंदिर का नवनिर्माण कराया।

सन् 1781 16 अगस्त को काशी में शिवाला घाट पर अंग्रेजी सेना से राजा चेतसिंह के सिपाहियों का संघर्ष हुआ। यह विद्रोह राजभक्त नागरिकों द्वारा मारे गये। 19 अगस्त, 1781 को काशी की देश भक्त जनता की क्रांति से भयभीत होकर वारनेहेस्टिंग्स जनाने वेश में नौका द्वारा चुनार भाग गया। दिसम्बर, सन् 1781 से 1794 तक काशी राज्य पर   महाराज महीप नारायण का राज्य था।

सन् 1785 काशी में महारानी अहिल्या बाई द्वारा विश्वनाथ मन्दिर का निर्माण हुआ। सन् 1787-1795    जोनाथन डंकन बनारस के रेजिडेंट।

सन ~ 1787   काशी में प्रथम बार भूमि का बन्दोबस्त    मिस्टर डंकन साहब के द्वारा हुआ जो डंकन बन्दोबस्त के नाम से जाना जाता है।

सन् 1791 वाराणसी में संस्कृत पाठशाला (अब संस्कृत विश्व विद्यालय) का प्रस्ताव जोनाथन डंकन ने रखा था।

सन् 1794 काशी राजकीय संस्कृत विद्यालय (क्वींस कालेज) की स्थापना।

सन् 1802 बनारस की पहली पक्की एवं मुख्य सड़क दालमण्डी, राजादरवाजा, काशीपुरा, औसानगंज होते हुये जी.टी. रोड तक बनाई गई।

सन् 1814 बनारस में लार्ड हेस्टिंग्स का आगमन और दरबार।

सन् 1816 पश्चिम बंगाल के राजा जयनारायण द्वारा रेवड़ी तालाब मुहल्ले में अंग्रेजी भाषा के प्रथम विद्यालय ’जयनारायण हाईस्कूल’ (वर्तमान में यह इण्टर कालेज) की स्थापना।

सन् 1818 काशी के अस्सी मुहल्ले में रानी लक्ष्मीबाई का जन्म हुआ।

सन् 1820 वर्तमान न्यायालय भवन (कलेक्ट्री कचहरी) का निर्माण हुआ।

सन् 1822 जेम्स प्रिंसेप ने बनारस का सर्वेक्षण किया।सन् 1825 बाजीराव पेशवा द्वितीय ने कालभैरव मन्दिर का निर्माण कराया।

सन् 1827 फारसी शायर मिर्जा गालिब का काशी में आगमन, जो वर्तमान घुघरानी गली में ठहरे थे।

सन् 1828 ज्ञानवापी के खंडित सरोवर की रक्षा हेतु ग्वालियर की रानी बैजबाई ने एक कूप बनवाया।

सन् 1828-29  जेम्स प्रिंसेप द्वारा बनारस की जनगणना; कुल आबादी-1,80,000

सन् 1830 विश्वेश्वरगंज स्थित गल्ला मण्डी (अनाज की सट्टी) का निर्माण हुआ।

सन् 1835 काशीराज महाराज ईश्वरी नारायण सिंह राज्य पर बैठे तथा 1889 में उनका स्वर्गवास हुआ।

सन् 1839 पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह के   द्वारा काशी विश्वनाथ मन्दिर के कलश पर स्वर्ण-पत्र-चढ़ाया गया।

सन् 1845 बनारस का पहला सप्ताहिक समाचार पत्र ’बनारस’ प्रकाशित हुआ।

सन् 1853 वाराणसी कैंट रेलवे स्टेशन का निर्माण पूरा हुआ।

सन् 1866 काशी म्यूनिसिपल बोर्ड (नगर पालिका) की स्थापना हुई।

सन् 1867 काशी में प्रथम बार चुंगी (कर) लगी।

सन् 1869 22 अक्टूबर को काशी में स्वामी दयानन्द सरस्वती का आगमन हुआ। 17 नवम्बर सन् 1869 को दुर्गा कुण्ड पर राजा माधव सिंह बाग में विद्वानों से शाóार्थ हुआ।

सन् 1872 कमिश्नर सी.पी. कारमाइकल के नाम पर ज्ञानवापी में कारमाइकल लाइब्रेरी की स्थापना।

सन् 1875 कुमार विजयनगरम् श्री गजपति सिंह के द्वारा टाउनहाल का निर्माण हुआ।  जिसका उद्घाटन सन् 1876 में प्रिस ऑफ वेल्स के द्वारा हुआ।

सन् 1880-87  राजघाट पुल का निर्माण हुआ।

सन् 1882 नागरी प्रचारिणी सभा पुस्तकालय एवं बंग साहित्य पुस्तकालय की स्थापना।

सन् 1882 काशी में गंगा की अधिक बाढ़ हुई थी। कोदई-चौकी तक नावें चली थीं।

सन् 1885 काशी में कांग्रेस कमेटी की स्थापना हुई। इसकी प्रथम बैठक रामकली चौधरी के बाग में हुई थी। जिसके    सदस्य डॉ0 छन्नू लाल, बसीउद्दीन मुख्तार, मु0 माधोलाल, उपेन्द्रनाथ, वृन्दावन वकील थे।

सन् 1887 राजघाट स्थित गंगा पर रेल-सड़क पुल का उद्घाटन।

सन् 1888 काशी यात्रा के लिये स्वामी विवेकानन्द का आगमन हुआ।

सन् 1889 से 1931 तक काशी राज्य पर महाराज प्रभुनारायण सिंह का राज्य था

सन् 1890 भेलुपुर स्थित जल संस्थान का महारानी विक्टोरिया के पौत्र प्रिंस एलबर्ट विक्टर द्वारा शिलान्यास।

सन् 1891 सारनाथ में अनागारिक धर्मपाल द्वारा महाबोधि संस्था स्थापित हुई।

सन् 1892 14 नवम्बर को तत्कालीन संयुक्त प्रांत के गवर्नर द्वारा भेलुपुर जल संस्थान का उद्घाटन।

सन् 1893 ‘काशी नागरी प्रचारिणी सभा’ की स्थापना।

सन् 1897 पादरी जानसन के द्वारा काशी में गिरजाघरों का निर्माण हुआ। प्रथम-सिगरा, दूसरा-गोदौलिया का।

सन् 1898 आर्यभाषा पुस्तकालय की स्थापना।

सन्  1904  तत्कालीन काशी नरेश की अध्यक्षता में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के स्थापना के लिये पहली बैठक हुई।

सन् 1910 काशी में हिन्दी साहित्य सम्मेलन की स्थापना हुई।

सन् 1910 सारनाथ संग्रहालय का निर्माण कराया गया।

सन् 1916 पं0 मदन मोहन मालवीय के प्रयासों से काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना।

सन् 1918 काशी में प्रथम सिनेमा घर का निर्माण बैजनाथ दास शाहपुरी द्वारा बांसफाटक पर मदन थियेटर के नाम से हुआ।

सन् 1920 काशी विद्यापीठ की स्थापना।

सन् 1920 महात्मा गांधी काशी में आये और तीन दिनों तक ठहरे।

सन् 1921 10 फरवरी को गांधी जी का पुनः काशी    आगमन हुआ। तीसरी बार 1921 में उन्होंने विद्यापीठ का शिलान्यास किया।

सन् 1925 26 दिसम्बर को काकोरी षडयन्त्र के सम्बन्ध में वाराणसी में अनेक लोगों को गिरफ्तार किया गया। इसमें काशी के राजेन्द्र लाहिड़ी को फाँसी दी गयी।

सन् 1928 वाराणसी मे बिजलीकरण।

सन् 1931 जून मे प्रथम बार नेता जी सुभाषचन्द्र बोस का आगमन हुआ। दशाश्वमेध स्थित चितरंजन दास पार्क में अभिमन्यु दल द्वारा मानपत्र दिया गया। टाउनहाल के मैदान में नव जवान भारत सभा की ओर से एक सभा हुई।

सन् 1933-34  रिक्षे की सवारी की शुरुआत ‘दी रेस्टोंरेंट’ के मालिक बद्री बाबू नें की।

सन् 1934 13 जनवरी को काशी में भूकम्प आया।

सन् 1934 28 दिसम्बर को राजा बलदेव दास बिड़ला के दान से सारनाथ में एक धर्मशाला का निर्माण हुआ।

सन् 1937 ‘भारतमाता मन्दिर’ का महात्मा गांधी द्वारा उद्घाटन।

सन् 1939 काशी राज्य में प्रजा की माँग पर काशी नरेश श्री महाराज आदित्य नारायण सिंह ने प्रजा परिषद की घोषणा की।

सन् 1940 राजघाट (वाराणसी) के उत्खनन की शुरूआत।

सन् 1948 15 अक्टूबर को बनारस राज्य का भारतीय संघ में विलय हुआ।

सन् 1956 बुद्ध-पूर्णिमा के दिन ‘बनारस’ को अधिकृत रूप से पुराना ‘वाराणसी’ नाम दिया गया।

सन् 1964 तुलसी मानस मन्दिर (दुर्गाकुण्ड के    पास) का निर्माण हुआ।

सन् 1986 काशी में हरिश्चन्द्र घाट पर प्रथम शवदाह गृह स्थापित किया गया।

Thursday, November 3, 2022

Natraj Cinema Hall Varanasi

 Natraj Cinema Hall earlier located near sigra Varanasi. Now building gets totally demolished by the owner.




Wednesday, May 25, 2022

वाराणसी का जन्म

 24 मई 1956 के दिन 'वाराणसी' का हुआ था जन्म

प्रचीन से भी प्रचीन शहर के नाम से विख्यात बाबा भोलेनाथ की नगरी काशी के नए नाम वाराणसी का जन्म 24 मई 1956 तारिख में हुआ था। 24 मई 1956 के ही दिन वाराणसी नाम अस्तित्व में आया था। पौराणिक नगरी काशी का दूसरा नाम बनारस है तो तीसरा प्रचलित नाम वाराणसी। इसका वर्तमान स्वरूप भले ही प्राचीनता संग कुछ आधुनिकता लिए हो मगर पुरानी कथाएं इसकी भव्यता की कहानी स्वयं कहती हैं।

बता दें कि काशी और बनारस आदि नामों के बीच 24 मई, 1956 को प्रशासनिक तौर पर इसका वाराणसी नाम स्वीकार किया गया। इस दिन भारतीय पंचांग में दर्ज तिथि के अनुसार वैसाख पूर्णिमा, बुद्ध पूर्णिमा और चंद्रग्रहण का योग था। माना जा सकता है कि वाराणसी का नामकरण सबसे पुण्यकाल में स्वीकार किया गया था।

बता दें कि वाराणसी नाम बेहद पुराना है। इतना पुराना कि मत्स्य पुराण में भी इसका जिक्र है। वाराणसी गजेटियर, जो कि 1965 में प्रकाशित किया गया था, उसके दसवें पृष्ठ पर जिले का प्रशासनिक नाम वाराणसी किए जाने की तिथि अंकित है।

इसके साथ ही गजेटियर में इसके वैभव संग विविध गतिविधियां भी इसका हिस्सा हैं। गजेटियर में इसके काशी, बनारस और बेनारस आदि नामों के भी प्राचीनकाल से प्रचलन के तथ्य व प्रमाण हैं, लेकिन आजादी के बाद प्रशासनिक तौर पर 'वाराणसी' नाम की स्वीकार्यता राज्य सरकार की संस्तुति से इसी दिन की गई थी।

वाराणसी की संस्तुति जब शासन स्तर पर हुई तब डा. संपूर्णानंद मुख्यमंत्री थे। स्वयं डा. संपूर्णानंद की पृष्ठभूमि वाराणसी से थी और वो यहां काशी विद्यापीठ में अध्यापन से भी जुड़े रहे थे।

एक मत के अनुसार अथर्ववेद में वरणावती नदी का जिक्र आया है, जो आधुनिक काल में वरुणा का पर्याय माना जाता है। वहीं,अस्सी नदी को पुराणों में असिसंभेद तीर्थ कहा गया है। अग्निपुराण में असि नदी को नासी का भी नाम दिया गया है।

पद्यपुराण में भी दक्षिण-उत्तर में वरुणा और अस्सी नदी का जिक्र है। मत्स्यपुराण में वाराणसी का वर्णन करते हुए कहा गया है कि वाराणस्यां नदी पु सिद्धगन्धर्वसेविता। प्रविष्टा त्रिपथा गंगा तस्मिन्‌ क्षेत्रे मम प्रिये। इसके अतिरिक्त भी विविध धर्म ग्रंथों में वाराणसी, काशी और बनारस सहित यहां के पुराने नामों के दस्तावेज मौजूद हैं।

सन 1965 में इलाहाबाद के सरकारी प्रेस से प्रकाशित गजेटियर में कुल 580 पन्ने हैं। यह आइएएस अधिकारी श्रीमती ईशा बसंती जोशी के संपादकीय नेतृत्व में प्रकाशित किया गया था। सरकार द्वारा दस्तावेजों को डिजिटल करने के तहत सन 2015 में इसे आनलाइन किया गया।

जबकि इसके शोध और प्रकाशन के लिए उस समय 6000 रुपए सरकार की ओर से प्रति गजेटियर रकम उपलब्ध कराई गई थी। वाराणसी गजेटियर में लगभग 20 अलग अलग विषय शामिल हैं।...