Monday, August 31, 2015

पति की दीर्घायु का पर्व कजरी तीज

हिन्दू कैलेंडर के हिसाब से पांचवें माह भादों में कृष्ण पक्ष की तीज को कजली, कजरी तीज मनायी जाती है। यह पर्व रक्षाबंधन के तीसरे दिन और जन्माष्टमी के पांच दिन पहले मनाया जाता है। 2015 में 1 सितम्बर मंगलवार को यह पर्व है। इस तीज का भी अलग महत्व है। पति पत्नी के रिश्ते को मजबूत बनाने के लिए तीज का व्रत रखा जाता है। यह भी हर सुहागन के लिए महत्वपूर्ण है। इस दिन भी पत्नी अपने पति की लम्बी उम्र के लिए व्रत रखती है व कुआरी लड़की अच्छा वर पाने के लिए यह व्रत रखती है।
महिलाएं कजरी तीज धूमधाम से मनाती हैं। उत्साह और उमंग से भरी महिलाएं पूरे दिन निर्जला व्रत रखती हैं और पति की दीर्घायु की कामना करती हैं। सुबह से ही उत्साह में डूबी महिलाएं सूर्योदय के साथ भक्ति के रंग में डूब जाती हैं। मन ईश्वर की आराधना में लीन हो जाता है। शाम होते ही चंद्रमा के उगने की प्रतीक्षा शुरू हो जाती है। घरों में नीम की डाली लाकर उसे एक वृक्ष का रूप दिया जाता है। उसके समक्ष चने का सत्तू, खीरा, नींबू रखा जाता है और दीपक जलाया जाता है। तीज माता की कथा सुनाई जाती है। कजरी तीज के लोक गीतों से वातावरण गूंज उठता है।
चंद्रमा के उदय होने पर अ‌र्ध्य दिया जाता है। सभी के कल्याण की कामना की जाती है। बुजुर्गो के चरण स्पर्श करके उनका आशीर्वाद लिया जाता है। उसके बाद उपवासी महिलाएं सत्तू का सेवन करती हैं। अविवाहित युवतियां भी अपने उत्तम पति की कामना से इस व्रत, पूजन को करती हैं।
पुराणों के अनुसार मध्य भारत में कजली नाम का एक वन था। इस जगह का राजा दादुरै था। इस जगह में रहने वाले लोग अपने स्थान कजली के नाम पर गीत गाते थे जिससे उनकी इस जगह का नाम चारों और फैले और सब इसे जाने। कुछ समय बाद राजा की म्रत्यु हो गई और उनकी रानी नागमती सती हो गई। जिससे वहां के लोग बहुत दुखी हुए और इसके बाद से कजली गाने पति पत्नी के जन्म जन्म के साथ के लिए गाए जाने लगे। इसके अलावा एक और कथा इस तीज से जुडी है। माता पार्वती शिव से शादी करना चाहती थी लेकिन शिव ने उनके सामने शर्त रख दी व बोला की अपनी भक्ति और प्यार को सिद्ध कर के दिखाओ। तब पार्वती ने 108 साल तक कठिन तपस्या की और शिव को प्रसन्न किया। शिव ने पार्वती से खुश होकर इसी तीज को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकारा था। इसलिए इसे कजरी तीज कहते है। कहते है बड़ी तीज को सभी देवी देवता शिव पार्वती की पूजा करते हैं। तीज के दिन औरतें अपने आप को अच्छे से सजाती है और पारंपरिक गाने में नाचती है|  इस दिन वे हाथों में मेहँदी भी लगाती है|
कजरी तीज के दिन घर में बहुत से पकवान बनते है जिसमें प्रमुख – खीर-पूरी, घेवर, गुजिया, बादाम का हलवा, काजू कतली, बेसन का लड्डू, नारियल का लड्डू, दाल बाटी चूरमा प्रमुख हैं।
हमारे देश में हर प्रान्त में हर त्यौहार को अलग अलग तरह से मनाया जाता है। उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान सब जगह यह त्यौहार अलग तरीके से मनाया जाता है।
उत्तर प्रदेश व बिहार में लोग नाव पर चढ़कर कजरी गीत गाते है। वाराणसी व मिर्जापुर में इसे बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। वे तीज के गानों को वर्षागीत के साथ गाते है।
राजस्थान के बूंदी स्थान में इस तीज का बहुत महत्त्व है, इस दिन यहाँ बड़ी धूम होती है। भादों के तीसरे दिन को वे बहुत हर्षोल्लास के साथ मनाते है। पारंपरिक नाच होता है। ऊंट, हाथी की सवारी की जाती है। इस दिन दूर दूर से लोग बूंदी की तीज देखने जाते है।
कजरी तीज के अवसर पर सुहागिन महिलाएँ कजरी खेलने अपने मायके जाती हैं। इसके एक दिन पूर्व यानि भाद्रपद कृष्ण पक्ष द्वितीया को ‘रतजगा’ किया जाता है। महिलाएँ रात भर कजरी खेलती तथा गाती हैं। कजरी खेलना और गाना दोनों अलग-अलग बातें हैं। कजरी गीतों में जीवन के विविध पहलुओं का समावेश होता है। इसमें प्रेम, मिलन, विरह, सुख-दु:ख, समाज की कुरीतियों, विसंगतियों से लेकर जन जागरण के स्वर गुंजित होते हैं।
‘कजरी तीज’ से कुछ दिन पूर्व सुहागिन महिलाएँ नदी-तालाब आदि की मिट्टी लाकर उसका पिंड बनाती हैं और उसमें जौ के दाने बोती हैं। रोज इसमें पानी डालने से पौधे निकल आते हैं। इन पौधों को कजरी वाले दिन लड़कियाँ अपने भाई तथा बुजुर्गों के कान पर रखकर उनसे आशीर्वाद प्राप्त करती हैं। इस प्रक्रिया को ‘जरई खोंसना’ कहते हैं। कजरी का यह स्वरूप केवल ग्रामीण इलाकों तक सीमित है। यह खेल गायन करते हुए किया जाता है, जो देखने और सुनने में अत्यन्त मनोरम लगता है। कजरी-गायन की परंपरा बहुत ही प्राचीन है। कजरी के मनोहर गीत रचे गए हैं, जो आज भी गाए जाते हैं। ‘कजरी तीज’ को ‘सतवा’ व ‘सातुड़ी तीज’ भी कहते हैं।
माहेश्वरी समाज का विशेष पर्व है जिसमें जौ, गेहूं, चावल और चने के सत्तू में घी, मीठा और मेवा डाल कर पकवान बनाते हैं और चंद्रोदय होने पर उसी का भोजन करते हैं।


Thursday, August 27, 2015

भद्रा काल

किसी भी मांगलिक कार्य में भद्रा योग का विशेष ध्यान रखा जाता है। क्योंकि भद्रा काल में मंगल-उत्सव की शुरुआत या समाप्ति अशुभ मानी जाती है। अत: भद्रा काल की अशुभता को मानकर कोई भी आस्थावान व्यक्ति शुभ कार्य नहीं करता। इसलिए जानते हैं कि आखिर क्या होती है भद्रा और क्यों इसे अशुभ माना जाता है? 
पुराणों के अनुसार भद्रा भगवान सूर्य देव की पुत्री और राजा शनि की बहन है। शनि की तरह ही इसका स्वभाव भी कड़क बताया गया है। उनके स्वभाव को नियंत्रित करने के लिए ही भगवान ब्रह्मा ने उन्हें कालगणना या पंचाग के एक प्रमुख अंग विष्टी करण में स्थान दिया। भद्रा की स्थिति में कुछ शुभ कार्यों, यात्रा और उत्पादन आदि कार्यों को निषेध माना गया। किंतु भद्रा काल में तंत्र कार्य, अदालती और राजनैतिक चुनाव कार्यों सुफल देने वाले माने गए हैं। 
पंचांग में भद्रा का महत्व :- 
हिन्दू पंचांग के पांच प्रमुख अंग होते हैं। यह है - तिथि, वार, योग, नक्षत्र और करण। इनमें करण एक महत्वपूर्ण अंग होता है। यह तिथि का आधा भाग होता है। करण की संख्या 11 होती है। यह चर और अचर में बांटे गए हैं। चर या गतिशील करण में बव, बालव, कौलव, तैतिल, गर, वणिज और विष्टि गिने जाते हैं। अचर या अचलित करण में शकुनि, चतुष्पद, नाग और किंस्तुघ्न होते हैं। इन 11 करणों में सातवें करण विष्टि का नाम ही भद्रा है। यह सदैव गतिशील होती है। पंचाग शुद्धि में भद्रा का खास महत्व होता है।
यूं तो भद्रा का शाब्दिक अर्थ है कल्याण करने वाली लेकिन इस अर्थ के विपरीत भद्रा या विष्टी करण में शुभ कार्य निषेध बताए गए हैं। ज्योतिष विज्ञान के अनुसार अलग-अलग राशियों के अनुसार भद्रा तीनों लोकों में घूमती है। जब यह मृत्युलोक में होती है, तब सभी शुभ कार्यों में बाधक या या उनका नाश करने वाली मानी गई है। 
जब चंन्द्रमा, कर्क, सिंह, कुंभ व मीन राशि में विचरण करता है और भद्रा विष्टी करण का योग होता है, तब भद्रा पृथ्वीलोक में रहती है। इस समय सभी कार्य शुभ कार्य वर्जित होते है। इसके दोष निवारण के लिए भद्रा व्रत का विधान भी धर्मग्रंथों में बताया गया है।
भद्रा की उत्पत्ति 
ऐसा माना जाता है कि दैत्यों को मारने के लिए भद्रा गर्दभ (गधा) के मुख और लंबे पुंछ और तीन पैर युक्त उत्पन्न हुई। पौराणिक कथा के अनुसार भद्रा भगवान सूर्य नारायण और पत्नी छाया की कन्या व शनि की बहन है। 
भद्रा, काले वर्ण, लंबे केश, बड़े दांत वाली तथा भयंकर रूप वाली कन्या है। जन्म लेते ही भद्रा यज्ञों में विघ्न-बाधा पहुंचाने लगी और मंगल-कार्यों में उपद्रव करने लगी तथा सारे जगत को पीड़ा पहुंचाने लगी। उसके दुष्ट स्वभाव को देख कर सूर्य देव को उसके विवाह की चिंता होने लगी और वे सोचने लगे कि इस दुष्टा कुरूपा कन्या का विवाह कैसे होगा? सभी ने सूर्य देव के विवाह प्रस्ताव को ठुकरा दिया। तब सूर्य देव ने ब्रह्मा जी से उचित परामर्श मांगा। 
ब्रह्मा जी ने तब विष्टि से कहा कि -'भद्रे, बव, बालव, कौलव आदि करणों के अंत में तुम निवास करो तथा जो व्यक्ति तुम्हारे समय में गृह प्रवेश तथा अन्य मांगलिक कार्य करें, तो तुम उन्ही में विघ्न डालो, जो तुम्हारा आदर न करे, उनका कार्य तुम बिगाड़ देना। इस प्रकार उपदेश देकर बृह्मा जी अपने लोक चले गए। 
तब से भद्रा अपने समय में ही देव-दानव-मानव समस्त प्राणियों को कष्ट देती हुई घूमने लगी। इस प्रकार भद्रा की उत्पत्ति हुई। 
भद्रा का दूसरा नाम विष्टि करण है। कृष्णपक्ष की तृतीया, दशमी और शुक्ल पक्ष की चर्तुथी, एकादशी के उत्तरार्ध में एवं कृष्णपक्ष की सप्तमी-चतुर्दशी, शुक्लपक्ष की अष्टमी-पूर्णमासी के पूर्वार्ध में भद्रा रहती है। 
जिस भद्रा के समय चन्द्रमा मेष, वृष, मिथुन, वृश्चिक राशि में स्थित तो भद्रा निवास स्वर्ग में होता है। यदि चन्द्रमा कन्या, तुला, धनु, मकर राशि में हो तो भद्रा पाताल में निवास करती है और कर्क, सिंह, कुंभ, मीन राशि का चन्द्रमा हो तो भद्रा का भू-लोक पर निवास रहता है। शास्त्रों के अनुसार धरती लोक की भद्रा सबसे अधिक अशुभ मानी जाती है। तिथि के पूर्वार्ध की दिन की भद्रा कहलाती है। तिथि के उत्तरार्ध की भद्रा को रात की भद्रा कहते हैं। यदि दिन की भद्रा रात के समय और रात्रि की भद्रा दिन के समय आ जाए तो भद्रा को शुभ मानते हैं। 
यदि भद्रा के समय कोई अति आवश्यक कार्य करना हो तो भद्रा की प्रारंभ की 5 घटी जो भद्रा का मुख होती है, अवश्य त्याग देना चाहिए। 
भद्रा 5 घटी मुख में, 2 घटी कंठ में, 11 घटी ह्रदय में और 4 घटी पुच्छ में स्थित रहती है। 
जानिए भद्रा के प्रमुख दोष :- 
• जब भद्रा मुख में रहती है तो कार्य का नाश होता है। 
• जब भद्रा कंठ में रहती है तो धन का नाश होता है। 
• जब भद्रा हृदय में रहती है तो प्राण का नाश होता है। 
• जब भद्रा पुच्छ में होती है, तो विजय की प्राप्ति एवं कार्य सिद्ध होते हैं। 

रक्षाबंधन

इस वर्ष 2015 में रक्षा बंधन का त्यौहार 29 अगस्त, को मनाया जाएगा. पूर्णिमा तिथि का आरम्भ 10 अगस्त 2015 को 13:50 से 20:58 पर मनाया जाएगा. प्रात: काल से भद्रा व्याप्ति रहेगी. इसलिए शास्त्रानुसार यह त्यौहार 13:50 के बाद संपन्न किया जाए तो अच्छा रहेगा. परंतु परिस्थितिवश यदि भद्रा काल में यह कार्य करना हो तो भद्रा मुख को त्यागकर भद्रा पुच्छ काल में इसे करना चाहिए. इस कारण से अत्यंत आवश्यक होने पर 29 अगस्त को प्रात: 10:15 से 11:16 तक भद्रा पुच्छ काल में यह कार्य किया जा सकता है.
जब भी कोई कार्य शुभ समय में किया जाता है, तो उस कार्य की शुभता में वृ्द्धि होती है. भाई- बहन के रिश्ते को अटूट बनाने के लिये इस राखी बांधने का कार्य शुभ मुहूर्त समय में करना चाहिए.
राखी बांधने का शुभ मुहूर्त 
इस वर्ष 2015 में रक्षा बंधन का त्यौहार 29 अगस्त, को मनाया जाएगा. पूर्णिमा तिथि का आरम्भ 29 अगस्त 2015 को हो जाएगा. परन्तु सुबह दोपहर 13:50 तक भद्रा व्याप्ति रहेगी. इसलिए शास्त्रानुसार यह त्यौहार 13:50 के बाद संपन्न किया जाए तो अच्छा रहेगा. परंतु परिस्थितिवश यदि भद्रा काल में यह कार्य करना हो तो भद्रा मुख को त्यागकर भद्रा पुच्छ काल में इसे करना चाहिए. इस कारण से अत्यंत आवश्यक होने पर 10 अगस्त को प्रात: 10:15 से 11:16 तक भद्रा पुच्छ काल में यह कार्य किया जा सकता है
सामान्यत: उतरी भारत जिसमें पंजाब, दिल्ली, हरियाणा आदि में प्रात: काल में ही राखी बांधने का शुभ कार्य किया जाता है. परम्परा वश अगर किसी व्यक्ति को परिस्थितिवश भद्रा-काल में ही रक्षा बंधन का कार्य करना हों, तो भद्रा मुख को छोड्कर भद्रा-पुच्छ काल में रक्षा - बंधन का कार्य करना शुभ रहता है. शास्त्रों के अनुसार में भद्रा के पुच्छ काल में कार्य करने से कार्यसिद्धि और विजय प्राप्त होती है. परन्तु भद्रा के पुच्छ काल समय का प्रयोग शुभ कार्यों के के लिये विशेष परिस्थितियों में ही किया जाना चाहिए.
बहन के प्रति भाईयों के दायित्वों का बोध कराने का पर्व
वेद शास्त्रों के अनुसार रक्षिका को आज के आधुनिक समय में राखी के नाम से जाना जाता है. रक्षा सूत्र को सामान्य बोलचाल की भाषा में राखी कहा जाता है. इसका अर्थ रक्षा करना, रक्षा को तत्पर रहना या रक्षा करने का वचन देने से है.
श्रावण मास की पूर्णिमा का महत्व इस बात से और बढ़ जाता है कि इस दिन पाप पर पुण्य, कुकर्म पर सत्कर्म और कष्टों के उपर सज्जनों का विजय हासिल करने के प्रयासों का आरंभ हो जाता है। जो व्यक्ति अपने शत्रुओं या प्रतियोगियों को परास्त करना चाहता है उसे इस दिन वरूण देव की पूजा करनी चाहिए.
दक्षिण भारत में इस दिन न केवल हिन्दू वरन् मुसलमान, सिक्ख और ईसाई सभी समुद्र तट पर नारियल और पुष्प चढ़ाना शुभ समझा जाता है नारियल को भगवान शिव का रुप माना गया है, नारियल में तीन आंखे होती है. तथा भगवान शिव की भी तीन आंखे है.
धागे से जुडे अन्य संस्कार
हिन्दू धर्म में प्रत्येक पूजा कार्य में हाथ में कलावा ( धागा ) बांधने का विधान है. यह धागा व्यक्ति के उपनयन संस्कार से लेकर उसके अन्तिम संस्कार तक सभी संस्करों में बांधा जाता है. राखी का धागा भावनात्मक एकता का प्रतीक है. स्नेह व विश्वास की डोर है. धागे से संपादित होने वाले संस्कारों में उपनयन संस्कार, विवाह और रक्षा बंधन प्रमुख है।
पुरातन काल से वृक्षों को रक्षा सूत्र बांधने की परंपरा है। बरगद के वृक्ष को स्त्रियां धागा लपेटकर रोली, अक्षत, चंदन, धूप और दीप दिखाकर पूजा कर अपने पति के दीर्घायु होने की कामना करती है। आंवले के पेड़ पर धागा लपेटने के पीछे मान्यता है कि इससे उनका परिवार धन धान्य से परिपूर्ण होगा।
वह भाइयों को इतनी शक्ति देता है कि वह अपनी बहन की रक्षा करने में समर्थ हो सके। श्रवण का प्रतीक राखी का यह त्यौहार धीरे-धीरे राजस्थान के अलावा अन्य कई प्रदेशों में भी प्रचलित हुआ और सोन, सोना अथवा सरमन नाम से जाना गया.

Tuesday, August 25, 2015

विशेष श्रृंगार बाबा श्री काशी विश्वनाथ जी

देवो के देव महादेव बाबा श्री काशी विश्वनाथ जी का सावन के आखरी सोमवार को विशेष श्रृंगार की एक झलक| बम बम बोल रहा है काशी..................................

Wednesday, August 19, 2015

महावीर मंदिर नागपंचमी मेला

नाग पंचमी पर्व बुधवार को है। इस पर्व के अवसर पर महावीर मंदिर परिसर में मेले का आयोजन किया जाएगा। इसके लिए मंगलवार की शाम तक तैयारियों को अंतिम रूप दे दिया गया। शहर के महावीर मंदिर परिसर में प्रत्येक वर्ष नागपंचमी पर्व पर मेले का आयोजन किया जाता है। काफी विशाल स्तर पर आयोजित होने वाले इस मेले की तैयारियां मंगलवार को दिनभर यहां पर चलती रहीं। इसके साथ ही महावीर मंदिर परिसर में दंगल का आयोजन किया जाना है। इस आयोजन के लिए दंगल का मैदान तैयार किया गया। बुधवार की सुबह से ही यहां पर भीड़ उमड़नी शुरू हो जाएगी। 












नागपंचमी

नागपंचमी का त्योहार श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी को मनाया जाता है। इस दिन नागों की पूजा की जाती है। इसलिए इस पंचमी को नागपंचमी कहा जाता है। ज्योतिष के अनुसार पंचमी तिथि के स्वामी नाग हैं। अत: पंचमी नागों की तिथि है। पंचमी को नागपूजा करने वाले व्यक्ति को उस दिन भूमि नहीं खोदनी चाहिए। इस व्रत में चतुर्थी के दिन एक बार भोजन करें तथा पंचमी के दिन उपवास करके शाम को भोजन करना चाहिए। इस दिन चांदी, सोने, लकड़ी या मिट्टी की क़लम से हल्दी और चंदन की स्याही से पांच फल वाले पांच नाग बनाएँ और पंचमी के दिन, खीर, कमल, पंचामृत, धूप, नैवेद्य आदि से नागों की विधिवत पूजा करें। पूजा के बाद ब्राह्मणों को लड्डू या खीर का भोजन कराएं।
पौराणिक संदर्भ
गरुड़ पुराण के अनुसार नागपंचमी के दिन घर के दोनों ओर नाग की मूर्ति खींचकर अनन्त आदि प्रमुख महानागों का पूजन करना चाहिए। स्कन्द पुराण के नगर खण्ड में कहा गया है कि श्रावण पंचमी को चमत्कारपुर में रहने वाले नागों को पूजने से मनोकामना पूरी होती है। नारद पुराण में सर्प के डसने से बचने के लिए कार्तिक शुक्ल चतुर्थी को नाग व्रत करने का विधान बताया गया है। आगे चलकर सुझाव भी दिया गया है कि सर्पदंश से सुरक्षित रहने के लिए परिवार के सभी लोगों को भादों कृष्ण पंचमी को नागों को दूध पिलाना चाहिए।
पूजन विधि
प्राचीन काल में इस दिन घरों को गोबर में गेरू मिलाकर लीपा जाता था। फिर नाग देवता की पूर्ण विधि-विधान से पूजा की जाती थी। पूजा करने के लिए एक रस्सी में सात गांठें लगाकर रस्सी का सांप बनाकर इसे लकड़ी के पट्टे के ऊपर सांप का रूप मानकर बठाया जाता है। हल्दी, रोली, चावल और फूल चढ़ाकर नाग देवता की पूजा की जाती है। फिर कच्चा दूध, घी, चीनी मिलाकर इसे लकड़ी के पट्टे पर बैठे सर्प देवता को अर्पित करें। पूजन करने के बाद सर्प देवता की आरती करें। इसके बाद कच्चे दूध में शहद, चीनी या थोड़ा-सा गुड़ मिलाकर जहां कहीं भी सांप की बांबी या बिल दिखे उसमें डाल दें और उस बिल की मिट्टी लेकर चक्की लेकर, चूल्हे, दरवाज़े के निकट दीवार पर तथा घर के कोनों में सांप बनाएं। इसके बाद भीगे हुए बाजरे, घी और गुड़ से इनकी पूजा करके, दक्षिणा चढ़ाएं तथा घी के दीपक से आरती उतारें। अंत में नागपंचमी की कथा सुनें। यह तो सभी जानते हैं कि सांपों के निकलने का समय वर्षा ऋतु है। वर्षा ऋतु में जब बिलों में पानी भर जाता है तो विवश होकर सांपों को बाहर निकलना पड़ता है। इसलिए नागपूजन का सही समय यही माना जाता है। सुगन्धित पुष्प तथा दूध सर्पों को अति प्रिय है। इस दिन ग्रामीण लड़कियां किसी जलाशय में गुड़ियों का विसर्जन करती हैं। ग्रामीण लड़के इन गुड़ियों को डण्डे से ख़ूब पीटते हैं। फिर बहन उन्हें रुपये भेंट करती हैं।

नागपंचमी की कथा
किसी नगर में एक किसान अपने परिवार सहित रहता था। उसके तीन बच्चे थे-दो लड़के और एक लड़की। एक दिन जब वह हल चला रहा था तो उसके हल के फल में बिंधकर सांप के तीन बच्चे मर गए। बच्चों के मर जाने पर मां नागिन विलाप करने लगी और फिर उसने अपने बच्चों को मारने वाले से बदला लेने का प्रण किया। एक रात्रि को जब किसान अपने बच्चों के साथ सो रहा था तो नागिन ने किसान, उसकी पत्नी और उसके दोनों पुत्रों को डस लिया। दूसरे दिन जब नागिन किसान की पुत्री को डसने आई तो उस कन्या ने डरकर नागिन के सामने दूध का कटोरा रख दिया और हाथ जोड़कर क्षमा मांगने लगी। उस दिन नागपंचमी थी। नागिन ने प्रसन्न होकर कन्या से वर मांगने को कहा। लड़की बोली-'मेरे माता-पिता और भाई जीवित हो जाएं और आज के दिन जो भी नागों की पूजा करे उसे नाग कभी न डसे। नागिन तथास्तु कहकर चली गई और किसान का परिवार जीवित हो गया। उस दिन से नागपंचमी को खेत में हल चलाना और साग काटना निषिद्ध हो गया।

Sunday, August 16, 2015

Mini Pmo

Mini PMO also called 'Jan Sampark Karyalaya' comes as the promise delivered on behalf of PM Modi who will personally supervise development schemes in Varanasi, especially cleaning up of the river Ganga.
Modi's local office was inaugurated amidst chanting of Vedic mantras and other religious rituals. The office is located on the ground floor of a two-storied building in the posh Ravindrapuri colony.
will operate in two rooms, a hall, kitchen and a lobby.Has one room allotted to the IT cell while another room has been kept reserved for senior leaders.



Keshav Tambul Bhandar

Varanasi Trip is not complete without tasting the succulent and mouth-watering betel leafs of Varanasi. Such is the fame of this paan that even Bollywood has dedicated songs eulogising the paan. Keshav Tambul Bhandar near BHU gate and Ram Chaurasia Tambul Bhandar at Chowk are two best places where you can taste authentic Banarsi paan in the city.



श्री बनखण्डी महादेव

सावन के महीने में देश-विदेश से लाखों भक्त बाबा विश्वनाथ के दर्शन के लिए काशी पहुंचते हैं। पूरे महीने वाराणसी के मंदिरों में श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है।श्री बनखण्डी महादेव जी का मंदिर 30 फीट व्यास और 55 फीट ऊंचा शिवलिंगाकार है। भदैनी स्थित वनखंडी साधुबेला आश्रम द्वारा बनवाया गया ये मंदिर परंपरागत शैली से अलग है।
इस मंदिर का शिलान्यास आश्रम के महंत राजर्षिआचार्य गणेशदास ने 1993 में किया था, जो 1998 मई में बनकर तैयार हुआ। ये शिवलिंगाकार मंदिर 100 फीट गुने 50 फीट के भूखंड पर स्थापित है। जमीन से 10 फीट ऊंचे और आठ स्तंभों पर बने मंदिर में जाने के लिए अर्धचंद्राकार 21 सीढ़ियां हैं।
महंत गौरी शंकरदास महाराज ने बताया कि पूरा मंदिर शिवलिंग के आकार का बना है। काशी में नागर, वेसर और द्रविड़ शैली के मंदिर ज्यादा हैं। इस मंदिर में तीन द्वार हैं, जो लिंगाकार हैं। गर्भगृह के बीच में उत्तरमुखी अरघे में शिवलिंग स्थापित है। वहीं, चारों तरफ राधा-कृष्ण, गणेश, हनुमान और दुर्गा की प्रतिमा स्थापित है।
जयपुर के कारीगरों ने किया मंदिर का निर्माण
मंदिर का निर्माण जयपुर के कारीगरों द्वारा किया गया है। यहां स्थापित मूर्तियां भी इसी शहर से लाई गई हैं। इस मंदिर को बनाने में कुल 45 लाख रुपए खर्च हुए। बता दें कि इस आश्रम की स्थापना 1818 में स्वामी वनखंडी महाराज ने की थी। उन्हीं के नाम पर मंदिर का नाम 'वनखंडी' रखा गया। ये आश्रम उदासीन संप्रदाय की एक शाखा है। महंत बताते हैं कि अब भक्तों को दूर से ही शिवलिंग के दर्शन हो सकेंगे। लिंगाकार मंदिर को इस तरह बनाने का मकसद सिर्फ यही है कि भक्त आसानी से महादेव का आशीर्वाद प्राप्त कर सकें।











Saturday, August 15, 2015

वाराणसी रेलवे स्टेशन स्वतंत्रता दिवस की संध्या पर

वाराणसी रेलवे स्टेशन स्वतंत्रता दिवस की  संध्या पर तीन रंग की क्षैतिज पट्टियां वाले झालर से सजाया गया।





 


Thursday, August 13, 2015

राष्ट्रीय ध्वज पर अंकित अशोक चक्र मेँ 24 तीलियोँ का प्रत्येक भारतीय के जीवन मेँ महत्व

सम्राट अशोक ने प्रत्येक नागरिक को खुश रहने के लिये 2 मुख्य बिन्दु बताये ।
(1) न अधिक तेज
(2) न अधिक धीमा

सम्राट अशोक के द्वारा बताये गये जीवन के 4 प्रमुख कारण बताये ।
(1) दुनिया मेँ दुःख है।
(2) दुःख का कारण है।
(3) कारण का निवारण है।
(4) निवारण के प्रति प्रयास करना।

सम्राट अशोक ने अपने राजतंत्र मेँ 8 महत्व पूर्ण बाते समाज के सामने रखी।
(1) सबको शिक्षा ।
(2) सबको सम्मान ।
(3) सबको मानसिक स्वतंत्रता ।
(4) सबको रोजगार ।
(5) सबको न्याय ।
(6) सबको चिकित्सा ।
(7) सबको कर्त्वयोँ के प्रति जागरुक रहना ।
(8) सभी को रास्ट्र के प्रति समर्पित ।

सम्राट अशोक ने जीवन मेँ अपनाने हेतु 10 महत्वपूर्ण नियम बताये ।
(1) सभी के प्रति दया भाव
(2) सभी के प्रति करुणा मैत्री
(3) सभी के प्रति शान्ति के लिये अग्रसर होना ।
(4) सभी के प्रति उन्नति के लिये कार्य करना ।
(5) सभी के प्रति क्षमा भाव होना
(6) अपनी आय का कुछ अंश सामाजिक उन्नति मेँ व्यय करना ।
(7) अपने पारिवारिक जीवन का निर्वाह करना ।
(8) अपनी उन्नति से किसी की अवनति ना करना ।
(9) अपने द्वारा किसी को सामाजिक, मानसिक पीड़ा न पहुचाना ।
(10) अपने स्वास्थ के प्रति सचेत ।