Sunday, March 27, 2016

बुढ़वा मंगल

बुढ़वा मंगल भारत के प्रमुख त्योहारों में से एक होली से जुड़ा है, जो उत्तर प्रदेश के बनारस में मुख्य रूप से मनाया जाता है। वैसे तो देश में प्रत्येक स्थान पर होली अलग-अलग तरह से मनाई जाती है, किंतु वाराणसी (आधुनिक बनारस) में इसे मनाने का अपना एक निराला ही अन्दाज़ है। यहाँ यह पर्व होली के बाद पड़ने वाले मंगलवार तक मनाया जाता है, जिसे यहाँ के लोग 'बुढ़वा मंगल' या 'वृद्ध अंगारक' पर्व भी कहते हैं।
नवान्नेष्टि यज्ञ माघ मास की पूर्णिमा पर प्राय: "होली का डांडा" रोप दिया जाता है और इसी दिन से लोग इसके समीप लकड़ियाँ और गाय के गोबर से कण्डे इकट्ठा करने लगते हैं। लकड़ियों को इकट्ठा करने का यह काम फाल्गुन की पूर्णिमा तक चलता है। इसके बाद उसमें आग लगाई जाती है। यह भी एक प्रकार का यज्ञ है। इसे नवान्नेष्टि यज्ञ कहा जाता है। एक महत्त्वपूर्ण कथन यह भी है कि इस दिन खेत से उपजे नये अन्न को लेकर इस यज्ञ में आहुति दी जाती है और उसके बाद प्रसाद वितरण किया जाता है।[1] यहाँ होलिका के पूजन के समय निम्न मंत्र का उच्चरण किया जाता है- असृक्याभयसंत्रस्तै: कृता त्वं होलि बालिशै:। अतस्त्वां पूजयिष्यामि भूते भूतिप्रदा भव।। परम्परा होलिका के दिन खेत में उगने वाले नये अन्न को लेकर यज्ञ में हवन करने की परंपरा है। इस अन्न को 'होला' कहा जाता है। इसीलिए इस पर्व को भी लोग 'होलिकोत्सव' कहते हैं। बनारस की परंपरा में यह पर्व होली के बाद पड़ने वाले मंगलवार तक मनाया जाता है। इसलिए यह मंगल "बुढ़वा मंगल" के नाम से जाना जाता है। इस मंगल को 'बुढ़वा मंगल' इसलिए भी कहते हैं कि यह वर्ष के आखिरी मंगल के पूर्व का मंगल होता है। मंगल का अभिप्राय मंगल कामना से है, इसलिए वाराणसी में इस उत्सव को मंगलवार को पूर्ण माना जाता है। होली को प्राय: उत्सव समाप्त हो जाता है, परंतु वाराणसी में इसके बाद मिलने-जुलने का पर्व प्रारम्भ होता है। लोग घर-घर जाकर अपने से बड़ों के चरणों में श्रद्धा से अबीर और गुलाल लगाते हैं और उनका आशीर्वाद लेते हैं तथा छोटों को आशीर्वाद देते हैं।विभिन्न कार्यक्रम 'बुढ़वा मंगल' पर्व के बाद वाराणसी में नृत्य, संगीत, कवि सम्मेलन एवं महामूर्ख सम्मेलन चलते रहते हैं। लोग बड़े उत्साह से इन सभी सम्मेलनों में जाते हैं। भारत की पवित्र नदियों में से एक गंगा नदी में लोग नौका विहार भी करते हैं और साथ ही गंगाजी की पूजा भी करते हैं। इसी उल्लास के साथ आने वाले नूतन वर्ष की मंगल कामना करते हुए वाराणसी में यह पर्व मंगलवार को होली के बाद समाप्त समझा जाता है। मेले का आयोजन होली के अगले मंगलवार को आयोजित होने वाला 'बुढ़वा मंगल' का मेला बनारसी मस्ती और जिन्दादिली की एक नायाब मिसाल है। ऐसी मान्यता है कि होली, जिसमें मुख्यतः युवाओं का ही प्रभुत्व रहता है, को बुजुर्गों द्वारा अब भी अपने जोश और उत्साह से परिचित कराने का प्रयास है- 'बुढ़वा मंगल' का मेला। बनारस के इस पारम्पिक लोक मेले से हिन्दी साहित्य के शिरोमणि भारतेंदु हरिश्चंद्र का भी जुड़ाव रहा है। बनारस के राजपरिवार ने भी इस परंपरा को अपना समर्थन दिया। मेले के आयोजन को कई उतार-चढाव से भी गुजरना पड़ा, किन्तु आम लोगों की सहभागिता और दबाव ने प्रशासन को भी इस समारोह के आयोजन में तत्परता से जुड़ने को बाध्य किया। गंगा की लहरों पर एक बड़ी नौका पर सांस्कृतिक कार्यक्रम, सर पर बनारसी टोपी सजाए संस्कृति प्रेमी और आस-पास छोटी-बड़ी नौकाओं तथा घाटों पर बैठे सुधि दर्शकगण इस सांस्कृतिक नगरी की पारम्परिकता को एक नया आयाम देते हैं। राजपरिवार द्वारा रामनगर दुर्ग में भी इस कार्यक्रम का विधिवत आयोजन किया जाता है।


साभार bhartdiscovery.org

Monday, March 21, 2016

काशी में आज देर रात जलेगी होलिका, होली कल

काशी में बुधवार और देश के अन्य भागों में रंगोत्सव यानी होली गुरुवार (24 मार्च) को मनाई जाएगी। मंगलवार की देर रात होलिका दहन होगा। ज्योतिषाचार्यों की मानें तो होली आने की सूचना होलाष्टक से प्राप्त होती है। फाल्गुन शुक्ल पक्ष की अष्टमी से लेकर होलिका दहन तक के समय को धर्मशास्त्रों ने होलाष्टक नाम दिया है। मंगलवार को रााित्र 10 बजकर 52 मिनट से 12 बजकर नौ मिनट तक होलिका दहन होगा। काशी के कुछ पंचांगों ने होलिका दहन रात्रि तीन बजकर 19 मिनट पर भद्रा के पश्चात होलिका दहन को शास्त्र सम्मत बताया है। श्री गणपति ज्योतिष अनुसंधान केंद्र के पंडित दीपक मालवीय बताते हैं, होलाष्टक 16 मार्च से शुरू हो गया है। होलाष्टक के दौरान शुभ कार्य पूरी तरह से प्रतिबंधित होता है। इसके पीछे धार्मिक के अलावा ज्योतिषीय मान्यता भी है। ज्योतिष के अनुसार अष्टमी को चंद्रमा, नवमी को सूर्य, दशमी का शनि, एकादश की शुक्र, द्वादशी को गुरु, त्रयोदशी को बुद्ध, चतुर्दशी को मंगल तथा पूर्णिमा को राहु उग्र रूप लिए होते हैं। इससे पूर्णिमा के आठ दिन पूर्व मनुष्य का मस्तिष्क अनेक सुखद व दुखद आशंकाओं से ग्रसित रहता है।  यही वजह है कि होली एक दिन का पर्व न होकर पूरे आठ दिन का त्योहार है।





दुनिया से अलग काशी में होली 23 मार्च 2016 को

होली की तिथि को लेकर देश में अलग-अलग कयास लगाये जा रहे हैं। काशी के ज्योतिषचार्यों की माने तो यहां पर 23 मार्च को ही होली होगी। जबकि देश के अन्य जगहों पर 24 मार्च को होली मनायी जायेगी।
ज्योतिषाचार्य पं.ऋषि द्विवेदी के अनुसार 23 मार्च को भोर में 3.19 बजे के बाद होलिका दहन होगा। काशी में भोर से ही धूलि वंदन करने के बाद होली का पर्व मनाया जायेगा। देश के अन्य जगहों पर चैत्र कृष्ण प्रतिपदा की उदयातिथि का इंतजार करेंगे और फिर होली मनायी जायेगी। धर्मशास्त्रों की माने तो प्रतिपदा, चतुर्दशी, भद्रा और दिन में होलिका दहन नहीं किया जा सकता है। प्रदोष के समय भद्रा व दूसरे दिन सूर्यास्त से पहले पूर्णिमा खत्म होती है तो भद्रा के समाप्त होने की प्रतीक्षा कर सूर्योदय से पहले होलिका दहन करने की परम्परा है। ज्योतिषाचार्य के अनुसार 22 मार्च को दिन में 2.29 से भद्रा लग जायेगा और 23 मार्च को 3.19 तक भद्रा का मान रहेगा। इन परिस्थितयों में 22 व 23 मार्च को भोर में 3.19 बजे के बाद ही होलिका दहन किया जायेगा। पूर्णिमा तिथि 22 को दिन में 2.29 पर लग रही है यह अवधि 23 को शाम 4.08 बजे तक रहेगी।
काशी विद्वत परिषद् ने लगायी मुहर
काशी में 23 को होली होने पर काशी विद्वत परिषद् ने भी अपनी मुहर लगा दी है। काशी विद्वत परिषद् की बैठक में होली को लेकर मंथन किया गया है। इसमे कहा गया कि 23 मार्च को भोर में भद्रा नक्षत्र खत्म हो जाने के बाद ही होलिका दहन होगा और इसके बाद होली खेली जायेगी। इसके अतिरिक्त अन्य जगहों पर 24 मार्च को चैत्र कृष्ण प्रतिपदा को ही होली खेली जायेगी। विद्वत परिषद् ने कहा कि परंपरा के अनुसार ही काशी में 23 को होली मनायी जायेगी। इस अवसर पर विद्वत परिषद् के अध्यक्ष प्रो.रामयत्न शुक्ल, महासचिव पं.कामेश्वर उपाध्याय, प्रो.शिवजी उपाध्याय, डा.रामनारायण द्विवेदी आदि विद्वान शामिल थे।


भष्म होली

भोले शंकर का गौना, गुलाल की फुहार के बीच विदा हुई पार्वती, रंगों से सराबोर बारातियों और श्मशान में चिता भष्म की होली के साथ शुरू हुई बनारस की होली।
फागुन शुक्ल एकादशी यानी इस दिन बाबा भोलेनाथ अपनी पत्नी पार्वती  को ससुराल से विदा कराने के लिए गौना बारात लेकर जाते हैं। चूंकि ये फागुन का महीना होता है लिहाजा बाबा की बारात अबीर गुलाल और ढोल नगाड़ों की गूंज के साथ निकलती है। इसलिए इसे रंग भरी एकादशी कहा जाता है। इस दिन बाबा के भक्त उनके गाल पर पहला गुलाल मलने के साथ ही उनसे होली के हुड़दंग की इज़ाज़त भी ले लेते हैं।
शनिवार को बनारस में विश्वनाथ गली में ऐसा ही मस्ती का नज़ारा दिखा जहां अबीर गुलाल इतना उड़ा कि जमीन लाल गलीचा सी नज़र आने लगी। फिजाओं में शंखनाद और डमरुओं की गड़गड़ाहट गूंज उठी और रंग से सराबोर हज़ारों भक्तों की भव्यता के बीच चांदी की पालकी में बाबा की बारात निकली।
भोर होते ही महन्त निवास पर बाबा की बरात का उल्लास नज़र आने लगा। वेद मन्त्रों के सस्वर ध्वनि के बीच वर-वधू को पंचामृत स्नान और साज श्रृंगार किया गया। रेशमी साड़ी में सजी गौरा और बाबा पहने खादी की धोती, सुन्दर परिधान और सिर पर सेहरा बांध कर भोलेनाथ की बरात निकली।
गौरा के घर पहुंच कर बाबा के साथ पालकी पर पार्वती विदा हुई तो हर तरफ हर हर महादेव के नारे गूंजने लगे। लोगों में पालकी उठाने की होड़ लगी रही। फिर जब घर आ गए तो उनके दर्शन के लिए पूरे परिवार के साथ उनका दरबार सजा रहा। इस बीच भक्तों की अपनी होली अबीर गुलाल और डमरुओं की थाप के साथ शाम तक चलती रही।
मान्यता है कि रंगभरी एकादशी के दिन गौना बारात में उनके भक्तगण रहते हैं लेकिन उनके दूसरे गण यानी भूत प्रेत औघड़ वहां नहीं जा पाते। लिहाजा दूसरे दिन भोलेनाथ बनारस के मणिकर्णिका घाट जाते हैं स्नान कर चिता भष्म मलने। तो दूसरे दिन मणिकर्णिका के श्मशान घाट पर हर साल की तरह इस वर्ष भी बाबा पहुंचे तो वहां आरती के बाद उनके गण जमकर चिता भष्म के साथ होली खेली। इसमें देश ही नहीं बल्कि विदेशों से आए तमाम पर्यटक भी इस नज़ारे को देख कर अभिभूत हो गए क्योंकि एक तरफ जहां चिताएं जल रही थीं और ग़म के सागर में डूबे उनके परिजन थे तो वहीं दूसरी तरफ चिता भष्म की होली की मस्ती।
परम्पराओं और जीवन जीने की यही विविधिता शायद बनारस को पूरी दुनिया से अलग करती है। मान्यता भी है कि 'काश्याम् मरणाम् मुक्तिः' यानी काशी में मरने पर मुक्ति मिल जाती है। ये मुक्ति स्वयं भगवान शंकर यहां अपने तारक मन्त्र से देते हैं। तो ऐसे मुक्ति के देवता की इस श्मशान की होली में सभी शामिल होते हैं और बनारस में इसके बाद से होली की धूम करने की इज़ाज़त भी भक्तों को मिल जाती है।


Saturday, March 19, 2016

रंगभरी एकादशी

फाल्गुन शुक्ल-एकादशी को काशी में रंगभरी एकादशी कहा जाता है | इस दिन बाबा विश्वनाथ का विशेष श्रृंगार होता है और काशी में होली का पर्वकाल प्रारंभ हो जाता है | प्रतिवर्ष श्री काशी विश्वनाथ का भव्य श्रृंगार रंगभरी एकादशी, दीवाली के बाद अन्नकूट तथा महा शिवरात्रि पर होता है | पौराणिक परम्पराओं और मान्यताओं के अनुसार रंगभरी एकादशी के दिन ही भगवान शिव माता पार्वती से विवाह के उपरान्त पहली बार अपनी प्रिय काशी नगरी आये थे | इस पुनीत अवसर पर शिव परिवार की चल प्रतिमायें काशी विश्वनाथ मंदिर में लायी जाती हैं और बाबा श्री काशी विश्वनाथ मंगल वाध्ययंत्रो की ध्वनि के साथ अपने काशी क्षेत्र के भ्रमण पर अपनी जनता, भक्त, श्रद्धालुओं का यथोचित लेने व आशीर्वाद देने सपरिवार निकलते है | यह पर्व काशी में माँ पार्वती के प्रथम स्वागत का भी सूचक है | जिसमे उनके गण उन पर व समस्त जनता पर रंग अबीर गुलाल उड़ाते, खुशियाँ मानते चलते है | जिसमे सभी गलियां रंग अबीर से सराबोर हो जाते है और हर हर महादेव का उद्गोष सभी दिशाओ में गुंजायमान हो जाता है और एक बार काशी क्षेत्र फिर जीवंत हो उठता है जहाँ श्री आशुतोष के साक्षात् होने के प्रमाण प्रत्यक्ष मिलते है |  इसके बाद श्री महाकाल श्री काशी विशेश्वेर को सपरिवार मंदिर गर्भ स्थान में ले जाकर श्रृंगार कर अबीर, रंग, गुलाल आदि चढाया जाता है | इस दिन से वाराणसी में रंग खेलने का सिलसिला प्रारंभ हो जाता है जो लगातार छह दिन तक चलता है | श्री काशी विश्वनाथ मंदिर प्राचीन ऐतिहासिक धरोहर है जिससे काशी की जनता का भावनात्मक लगाव है | काशी की जनता अपना सर्वस्व श्री काशी विश्वनाथ को मानती है और सुब कुछ उन्ही को समर्पित कर अपने आप को धन्य मानती है | कहते हैं इस मंदिर में दर्शन करने के लिए 'आदि शंकराचार्य, रामकृष्ण परमहंस, स्‍वामी विवेकानंद, स्‍वामी दयानंद, तुलसीदास सभी का आगमन हुआ था | भूतभावन श्री काशी विश्वनाथ की इस लीला को कई रचनाकारों ने अपनी विलक्षण व अद्भुद शैली में चित्रित किया है जिससे काशी की जनता का भावनातक सम्बन्ध श्री काशी विश्वनाथ से सीधे तौर पर प्रदर्शित होता है | इसी कड़ी में किसी ने खूब लिखा है की " खेले मशाने में होरी दिगंबर...खेले मशाने में होरी...भूत पिशाच बटोरी दिगंबर....भूत नाथ के मंगल होरी "....!!!


Friday, March 18, 2016

होलाष्टक प्रारम्भ

चन्द्र मास के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को होलिका पर्व मनाया जाता है. होली पर्व के आने की सूचना होलाष्टक से प्राप्त होती है. होलाष्टक को होली पर्व की सूचना लेकर आने वाला एक हरकारा कहा जात सकता है. "होलाष्टक" के शाब्दिक अर्थ पर जायें, तो होला+ अष्टक अर्थात होली से पूर्व के आठ दिन, जो दिन होता है, वह होलाष्टक कहलाता है. सामान्य रुप से देखा जाये तो होली एक दिन का पर्व न होकर पूरे नौ दिनों का त्यौहार है. दुलैण्डी के दिन रंग और गुलाल के साथ इस पर्व का समापन होता है.
होली की शुरुआत होली पर्व होलाष्टक से प्रारम्भ होकर दुलैण्डी तक रहती है. इसके कारण प्रकृ्ति में खुशी और उत्सव का माहौल रहता है. वर्ष 2016 में 16 मार्च, 2016 से 23 मार्च, 2016 के मध्य की अवधि होलाष्टक पर्व की रहेगी. होलाष्टक से होली के आने की दस्तक मिलती है, साथ ही इस दिन से होली उत्सव के साथ-साथ होलिका दहन की तैयारियां भी शुरु हो जाती है.
होलिका दहन में होलाष्टक की विशेषता (The importance of Holashtak for Holika Dahan)
होलिका पूजन करने के लिये होली से आंठ दिन पहले होलिका दहन वाले स्थान को गंगाजल से शुद्ध कर उसमें सूखे उपले, सूखी लकडी, सूखी खास व होली का डंडा स्थापित कर दिया जाता है. जिस दिन यह कार्य किया जाता है, उस दिन को होलाष्टक प्रारम्भ का दिन भी कहा जाता है. जिस गांव, क्षेत्र या मौहल्ले के चौराहे पर पर यह होली का डंडा स्थापित किया जाता है. होली का डंडा स्थापित होने के बाद संबन्धित क्षेत्र में होलिका दहन होने तक कोई शुभ कार्य संपन्न नहीं किया जाता है.
होलाष्टक के दिन से शुरु होने वाले कार्य (The tasks to be done during Holashtak)
सबसे पहले इस दिन, होलाष्टक शुरु होने वाले दिन होलिका दहन स्थान का चुनाव किया जाता है. इस दिन इस स्थान को गंगा जल से शुद्ध कर, इस स्थान पर होलिका दहन के लिये लकडियां एकत्र करने का कार्य किया जाता है. इस दिन जगह-जगह जाकर सूखी लकडियां विशेष कर ऎसी लकडियां जो सूखने के कारण स्वयं ही पेडों से टूट्कर गिर गई हों, उन्हें एकत्र कर चौराहे पर एकत्र कर लिया जाता है.
होलाष्टक से लेकर होलिका दहन के दिन तक प्रतिदिन इसमें कुछ लकडियां डाली जाती है. इस प्रकार होलिका दहन के दिन तक यह लकडियों का बडा ढेर बन जाता है. व इस दिन से होली के रंग फिजाओं में बिखरने लगते है. अर्थात होली की शुरुआत हो जाती है. बच्चे और बडे इस दिन से हल्की फुलकी होली खेलनी प्रारम्भ कर देते है.
होलाष्टक में कार्य निषेध (Things that shouldn't be done during Holashtak)
होलाष्टक मुख्य रुप से पंजाब और उत्तरी भारत में मनाया जाता है. होलाष्टक के दिन से एक ओर जहां उपरोक्त कार्यो का प्रारम्भ होता है. वहीं कुछ कार्य ऎसे भी है जिन्हें इस दिन से नहीं किया जाता है. यह निषेध अवधि होलाष्टक के दिन से लेकर होलिका दहन के दिन तक रहती है. अपने नाम के अनुसार होलाष्टक होली के ठिक आठ दिन पूर्व शुरु हो जाते है.
होलाष्टक के मध्य दिनों में 16 संस्कारों में से किसी भी संस्कार को नहीं किया जाता है. यहां तक की अंतिम संस्कार करने से पूर्व भी शान्ति कार्य किये जाते है. इन दिनों में 16 संस्कारों पर रोक होने का कारण इस अवधि को शुभ नहीं माना जाता है.
होलाष्टक की पौराणिक मान्यता (The significance of Holashtak from ancient times)
फाल्गुण शुक्ल अष्टमी से लेकर होलिका दहन अर्थात पूर्णिमा तक होलाष्टक रहता है. इस दिन से मौसम की छटा में बदलाव आना आरम्भ हो जाता है. सर्दियां अलविदा कहने लगती है, और गर्मियों का आगमन होने लगता है. साथ ही वसंत के आगमन की खुशबू फूलों की महक के साथ प्रकृ्ति में बिखरने लगती है. होलाष्टक के विषय में यह माना जाता है कि जब भगवान श्री भोले नाथ ने क्रोध में आकर काम देव को भस्म कर दिया था, तो उस दिन से होलाष्टक की शुरुआत हुई थी.
होलाष्टक से जुडी मान्यताओं को भारत के कुछ भागों में ही माना जाता है. इन मान्यताओं का विचार सबसे अधिक पंजाब में देखने में आता है. होली के रंगों की तरह होली को मनाने के ढंग में विभिन्न है. होली उत्तर प्रदेश, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, तमिलनाडू, गुजरात, महाराष्ट्र, उडिसा, गोवा आदि में अलग ढंग से मनाने का चलन है. देश के जिन प्रदेशो में होलाष्टक से जुडी मान्यताओं को नहीं माना जाता है. उन सभी प्रदेशों में होलाष्टक से होलिका दहन के मध्य अवधि में शुभ कार्य करने बन्द नहीं किये जाते है.
होलाष्टक का एक अन्य रुप बीकानेर की होली (Bikaner Holi, a unique form of Holashtak)
होलाष्टक से मिलती जुलती होली की एक परम्परा राजस्थान के बीकानेर में देखने में आती है. पंजाब की तरह यहां भी होली की शुरुआत होली से आठ दिन पहले हो जाती है. फाल्गुन मास की सप्तमी तिथि से ही होली शुरु हो जाती है, जो धूलैण्डी तक रहती है. राजस्थान के बीकानेर की यह होली भी अंदर मस्ती, उल्लास के साथ साथ विषेश अंदाज समेटे हुए हैं. इस होली का प्रारम्भ भी होलाष्टक में गडने वाले डंडे के समान ही चौक में खम्भ पूजने के साथ होता है.


Sunday, March 13, 2016

रत्नेश्वर महादेव मंदिर

रत्नेश्वर महादेव मंदिर वाराणसी के मणिकर्णिका घाट पर स्थित हैं। इस मंदिर के निर्माण बारे में भिन्न-भिन्न कथाएं कही जाती हैं। प्राप्त जानकारी के अनुसार, जिस समय रानी अहिल्या बाई होलकर शहर में मंदिर और कुण्डों आदि का निर्माण करा रही थीं उसी समय रानी की दासी रत्ना बाई ने भी मणिकर्णिका कुण्ड के समीप एक शिव मंदिर का निर्माण कराने की इच्छा जताई, जिसके लिए उसने अहिल्या बाई से रुपये भी उधार लिए और इसे निर्मित कराया।
अहिल्या बाई इसे देख अत्यंत प्रसन्न हुईं, लेकिन उन्होंने दासी रत्ना बाई से कहा कि वह अपना नाम इस मंदिर में न दें, लेकिन दासी ने बाद में अपने नाम पर ही इस मंदिर का नाम रत्नेश्वर महादेव रख दिया। इस पर अहिल्या बाई नाराज हो गईं और श्राप दिया कि इस मंदिर में बहुत कम ही दर्शन पूजन की जा सकेगी। वर्ष में ज्यादातर समय यह मंदिर डूबा रहता है।








काशी करवत मंदिर

काशी करवत मंदिर काशी करवत मंदिर की चर्चा स्कन्द पुराण में की गई है। पुराणों में वर्णित है कि भीमेश्वर लिंग के दर्शन-पूजन करने से मनुष्य के भयंकर पाप भी जलकर तुरंत भस्म हो जाते हैं और जीवन पर्यत भोग की प्राप्ति होती है। शरीर छूटने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है। श्रद्धालु जन भीमेश्वर लिंग के समीप करवत नाम के शस्त्र से शीरच्छेद करवा कर मोक्ष को प्राप्त होते हैं। इस वजह से मंदिर को काशी करवत कहते हैं। काशी विश्वनाथ मंदिर के रेड जोन स्थित नेपाली खपड़ा में बने मंदिर के गर्भगृह में आमजन का प्रवेश निषेध है। मात्र पुजारी ही गर्भगृह में प्रवेश करते हैं। प्रतिदिन मंगला आरती के बाद मंदिर आमजन के दर्शनार्थ खोल दिया जाता है।