हिन्दू कैलेंडर के हिसाब से पांचवें माह भादों में कृष्ण पक्ष की तीज को कजली, कजरी तीज मनायी जाती है। यह पर्व रक्षाबंधन के तीसरे दिन और जन्माष्टमी के पांच दिन पहले मनाया जाता है। 2015 में 1 सितम्बर मंगलवार को यह पर्व है। इस तीज का भी अलग महत्व है। पति पत्नी के रिश्ते को मजबूत बनाने के लिए तीज का व्रत रखा जाता है। यह भी हर सुहागन के लिए महत्वपूर्ण है। इस दिन भी पत्नी अपने पति की लम्बी उम्र के लिए व्रत रखती है व कुआरी लड़की अच्छा वर पाने के लिए यह व्रत रखती है।
महिलाएं कजरी तीज धूमधाम से मनाती हैं। उत्साह और उमंग से भरी महिलाएं पूरे दिन निर्जला व्रत रखती हैं और पति की दीर्घायु की कामना करती हैं। सुबह से ही उत्साह में डूबी महिलाएं सूर्योदय के साथ भक्ति के रंग में डूब जाती हैं। मन ईश्वर की आराधना में लीन हो जाता है। शाम होते ही चंद्रमा के उगने की प्रतीक्षा शुरू हो जाती है। घरों में नीम की डाली लाकर उसे एक वृक्ष का रूप दिया जाता है। उसके समक्ष चने का सत्तू, खीरा, नींबू रखा जाता है और दीपक जलाया जाता है। तीज माता की कथा सुनाई जाती है। कजरी तीज के लोक गीतों से वातावरण गूंज उठता है।
चंद्रमा के उदय होने पर अर्ध्य दिया जाता है। सभी के कल्याण की कामना की जाती है। बुजुर्गो के चरण स्पर्श करके उनका आशीर्वाद लिया जाता है। उसके बाद उपवासी महिलाएं सत्तू का सेवन करती हैं। अविवाहित युवतियां भी अपने उत्तम पति की कामना से इस व्रत, पूजन को करती हैं।
पुराणों के अनुसार मध्य भारत में कजली नाम का एक वन था। इस जगह का राजा दादुरै था। इस जगह में रहने वाले लोग अपने स्थान कजली के नाम पर गीत गाते थे जिससे उनकी इस जगह का नाम चारों और फैले और सब इसे जाने। कुछ समय बाद राजा की म्रत्यु हो गई और उनकी रानी नागमती सती हो गई। जिससे वहां के लोग बहुत दुखी हुए और इसके बाद से कजली गाने पति पत्नी के जन्म जन्म के साथ के लिए गाए जाने लगे। इसके अलावा एक और कथा इस तीज से जुडी है। माता पार्वती शिव से शादी करना चाहती थी लेकिन शिव ने उनके सामने शर्त रख दी व बोला की अपनी भक्ति और प्यार को सिद्ध कर के दिखाओ। तब पार्वती ने 108 साल तक कठिन तपस्या की और शिव को प्रसन्न किया। शिव ने पार्वती से खुश होकर इसी तीज को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकारा था। इसलिए इसे कजरी तीज कहते है। कहते है बड़ी तीज को सभी देवी देवता शिव पार्वती की पूजा करते हैं। तीज के दिन औरतें अपने आप को अच्छे से सजाती है और पारंपरिक गाने में नाचती है| इस दिन वे हाथों में मेहँदी भी लगाती है|
कजरी तीज के दिन घर में बहुत से पकवान बनते है जिसमें प्रमुख – खीर-पूरी, घेवर, गुजिया, बादाम का हलवा, काजू कतली, बेसन का लड्डू, नारियल का लड्डू, दाल बाटी चूरमा प्रमुख हैं।
हमारे देश में हर प्रान्त में हर त्यौहार को अलग अलग तरह से मनाया जाता है। उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान सब जगह यह त्यौहार अलग तरीके से मनाया जाता है।
उत्तर प्रदेश व बिहार में लोग नाव पर चढ़कर कजरी गीत गाते है। वाराणसी व मिर्जापुर में इसे बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। वे तीज के गानों को वर्षागीत के साथ गाते है।
राजस्थान के बूंदी स्थान में इस तीज का बहुत महत्त्व है, इस दिन यहाँ बड़ी धूम होती है। भादों के तीसरे दिन को वे बहुत हर्षोल्लास के साथ मनाते है। पारंपरिक नाच होता है। ऊंट, हाथी की सवारी की जाती है। इस दिन दूर दूर से लोग बूंदी की तीज देखने जाते है।
कजरी तीज के अवसर पर सुहागिन महिलाएँ कजरी खेलने अपने मायके जाती हैं। इसके एक दिन पूर्व यानि भाद्रपद कृष्ण पक्ष द्वितीया को ‘रतजगा’ किया जाता है। महिलाएँ रात भर कजरी खेलती तथा गाती हैं। कजरी खेलना और गाना दोनों अलग-अलग बातें हैं। कजरी गीतों में जीवन के विविध पहलुओं का समावेश होता है। इसमें प्रेम, मिलन, विरह, सुख-दु:ख, समाज की कुरीतियों, विसंगतियों से लेकर जन जागरण के स्वर गुंजित होते हैं।
‘कजरी तीज’ से कुछ दिन पूर्व सुहागिन महिलाएँ नदी-तालाब आदि की मिट्टी लाकर उसका पिंड बनाती हैं और उसमें जौ के दाने बोती हैं। रोज इसमें पानी डालने से पौधे निकल आते हैं। इन पौधों को कजरी वाले दिन लड़कियाँ अपने भाई तथा बुजुर्गों के कान पर रखकर उनसे आशीर्वाद प्राप्त करती हैं। इस प्रक्रिया को ‘जरई खोंसना’ कहते हैं। कजरी का यह स्वरूप केवल ग्रामीण इलाकों तक सीमित है। यह खेल गायन करते हुए किया जाता है, जो देखने और सुनने में अत्यन्त मनोरम लगता है। कजरी-गायन की परंपरा बहुत ही प्राचीन है। कजरी के मनोहर गीत रचे गए हैं, जो आज भी गाए जाते हैं। ‘कजरी तीज’ को ‘सतवा’ व ‘सातुड़ी तीज’ भी कहते हैं।
माहेश्वरी समाज का विशेष पर्व है जिसमें जौ, गेहूं, चावल और चने के सत्तू में घी, मीठा और मेवा डाल कर पकवान बनाते हैं और चंद्रोदय होने पर उसी का भोजन करते हैं।