Friday, July 28, 2017

नागेश्वर महादेव जैतपुरा

जैतपुरा, वाराणसी स्थित नागकुआँ में 45 फ़ीट की गहराई में स्थित नागेश्वर महादेव के दुर्लभ दर्शन प्राप्त हुए। विदित हो नाग पंचमी से पूर्व नागकूप कुंड का सम्पूर्ण जल निकाल कर सफाई की जाती है, और यही नागेश्वर महादेव के दर्शन का वर्ष में एक बार अवसर होता है। आज रातभर मे कूप के अंदर से निकलने वाले भूमिगत सोते के जल से कूप पुनः भर जाएगा।
नागकुआँ के संरक्षक कुंदन पांडेय ने बताया कि इसी स्थल पर महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र की रचना की थी। संवत 1 में इस कूप के जीणोद्धार का उल्लेख ऐतिहासिक ग्रंथों में है। इस कुंड के जल का आचमन करने मात्र से काल सर्पदोष से मुक्ति मिल जाती है।







मारकण्डेय महादेव कैथी

शिवपुराण के अनुसार महाशिवरात्रि व्रत का विशेष महत्व है l तिथिनुसार यह पर्व फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को मनाया जाता है I अंग्रेजी महीने के हिसाब से यह फरवरी-मार्च में आता है l यह त्यौहार इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि ऐसी मान्यता है कि महाशिवरात्रि के दिन भगवान शिव का अंश प्रत्येक शिवलिंग में पूरे दिन और रात मौजूद रहता है l पूरे देश में यह त्यौहार हर्षोल्लासपूर्वक मनाया जाता है l पड़ोसी देश नेपाल में भी महाशिवरात्रि का त्यौहार बड़े ही धूमधाम से मनाया जाता है l वहां के विश्वप्रसिद्ध पशुपतिनाथ मंदिर में इस पर्व पर नेपाल और भारत से लाखों श्रद्धालुओं द्वारा पूजा अर्चना की जाती है l
 मारकण्डेय महादेव मंदिर उत्तर प्रदेश के धार्मिक स्थलों में से एक है l यह स्थान वाराणसी ( काशी ) से लगभग 25 किलोमीटर की दूरी पर चौबेपुर के पास , वाराणसी-गाजीपुर मार्ग के दाहिनी ओर कैथी नामक गाँव में स्थित है l इसे काशीराज दिवोदास की बसाई दूसरी काशी भी कहते है l यह गंगा-गोमती संगम के पावन तट पर स्थित है l मारकण्डेय महादेव मंदिर के शिवलिंग पर जो बेल पत्र चढ़ाया जाता है, उस पर चन्दन से श्रीराम का नाम लिखा जाता है जो कि मंदिर के द्वार पर पंडितों द्वारा प्राप्त होता है l
 मारकण्डेय महादेव मंदिर के बारे में एक कथा प्रचलित है , कहा जाता है कि प्राचीन काल में मृकण्ड ऋषि तथा उनकी पत्नी मरन्धती संतानहीन थे l “बिना पुत्रो गति नाश्ति” अर्थात “बिना पुत्र के गति नहीं होती” ,ऐसे विचार के कारण वे बहुत दुःखी रहते थे l इन्होंने पुत्र प्राप्ति के लिए घोर तपस्या की जिससे प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने उन्हें पुत्र प्राप्ति का रास्ता बताया कि आप शंकर जी की उपासना कर उन्हें प्रसन्न करके पुत्र प्राप्त कर सकते हैं। इस बात से प्रसन्न होकर मृकण्ड ऋषि गंगा-गोमती के पावन संगम तट पर भगवान शंकर की घोर उपासना में लीन हो गये।प्राचीनकाल में यह स्थान अरण्य ( जंगल , वन ) था जो कि वर्तमान में कैथी ( चौबेपुर,वाराणसी,उत्तरप्रदेश ) नाम से प्रसिद्ध है l कुछ वर्षों बाद प्रसन्न होकर शंकर जी ने उन्हें दर्शन दिया और वर माँगने के लिए कहा। मृकण्ड ऋषि ने याचना की कि- “भगवान मुझे पुत्र रत्न की प्राप्ति हो।” इस पर भगवान शिव ने कहा- “तुम्हें दीर्घायु वाला अनेक गुणहीन पुत्र चाहिए या फिर अल्पायु वाला एक गुणवान पुत्र।” मुनि ने कहा कि- “प्रभु! मुझे एक गुणवान पुत्र ही चाहिए।” समय आने पर मुनि के यहाँ पुत्र रत्न का जन्म हुआ , जिसका नाम मारकण्डेय रखा गया l बालक को मृकण्ड ऋषि ने शिक्षा-दिक्षा के लिए आश्रम भेजा।वक्त बीतने के साथ बालक की अल्प आयु की चिन्ता मृकण्ड ऋषि को सताने लगी। दोनों दम्पत्ति दुःखी रहने लगे।मार्कण्डेय जी को माता-पिता का दुःख न देखा गया। वे कारण जानने के लिए हठ करने लगे। बाल हठ के आगे विवश होकर मृकण्ड ऋषि ने पुत्र को उसके जन्म से जुड़ा सारा वृतान्त सुना दिया। मारकण्डेय समझ गये कि परमपूज्य ब्रह्मा की लेखनी को मिटा कर जब भगवान शंकर के आशिर्वाद से वे पैदा हुए हैं, तो इस संकट में भी शंकर जी की ही शरण लेनी चाहिए। मारकण्डेय जी पावन गंगा-गोमती के संगम पर बैठ कर घनघोर तपस्या में लीन हो गये।वे बालू की प्रतिमा बनाकर शिव पूजा करते हुए उनके उम्र के बारह साल बीतने को आये। एक दिन यमराज ने बालक मारकण्डेय को लेने के लिए अपने दूत को भेजा। भगवान शंकर की तपस्या में लीन बालक को देख यमराज के दूत का साहस टूट गया। उसने जाकर यमराज को सारा हाल बताया। तब जाकर यमराज स्वयं बालक को लेने भैंसे पर सवार होकर आये। जब यमराज बालक मारकण्डेय को लेने आये, तब वह शंकर जी की तपस्या में लीन थे तथा भगवान शंकर व माता पार्वती अदृशय रूप में उनकी रक्षा के लिए वहाँ मौजूद थे l यमराज का त्रास देखकर भगवान शंकर भक्त की रक्षा करने हेतु प्रकट हो गये और उन्होंने कहा कि मेरा भक्त सदैव अमर रहेगा , मुझसे पहले उसकी पूजा की जायेगी l तभी से उस जगह पर मारकण्डेय जी व महादेव जी की पूजा की जाने लगी और तभी से यह स्थल ‘मारकण्डेय महादेव तीर्थ धाम’ के नाम से प्रसिद्द हो गया l यहाँ तक की “कैथी” गांव भी जनमानस में मारकण्डेय जी के नाम से ही ज्यादा प्रचलित है l यहाँ दूर-दराज से लोग पुत्र प्राप्ति की कामना लेकर आते है l इस स्थल पर पति-पत्नी का जोड़ा पीत वस्त्र धारण कर पुत्र प्राप्ति के लिए ‘हरिवंशपुराण’ का पाठ कराते हैं।
 गंगा-गोमती तट पर स्थित यह महादेवधाम शिवरात्रि पर गुलजार रहता है l इस अवसर पर यहाँ मेले का आयोजन किया जाता है l लाखों लोग शिवरात्रि के शुभ दिन संगम में डुबकी लगाने आते हैं l महादेव कैथी धाम की महत्ता द्वादश ज्योतिर्लिंग के बराबर मानी जाती है









Monday, July 24, 2017

सारंगनाथ महादेव सारनाथ

काशी में भगवान् शिव के कई रूप मौजूद हैं लेकिन सबमे ख़ास है भगवान् बुद्ध की उपदेश स्थली के करीब स्थित सारंगनाथ मंदिर। जहां के लिए प्रसिद्द है की सावन में यदि एक बार सारंगनाथ के दर्शन हो जाएं तो काशी विश्वनाथ के दर्शन के बराबर पुण्य फल प्राप्‍त होता है। कहते हैं कि सारंगनाथ के नाम पर ही इस क्षेत्र का नाम सारनाथ पड़ा। पहले इस क्षेत्र को ऋषिपतन मृगदाव कहते थे।
मंदिर के इतिहास के बारे में कई लौकिक कथाएँ प्रचलित हैं। कहते हैं कि जब दक्ष प्रजापति ने अपनी पुत्री सती का विवाह शिव से किया तो उस समय उनके भाई सारंग ऋषि उपस्थित नहीं थे। वो तपस्या के लिए कहीं अन्‍यत्र गये हुए थे। तपस्या के बाद जब सारंग ऋषि अपने घर पहुंचे तो उन्हें पता चला की उनके पिता ने उनकी बहन का विवाह कैलाश पर रहने वाले एक औघड़ से कर दिया है।
औघड़ से बहन के विवाह की बात सुनकर दु:खी हुए सारंग ऋषि वो सोचने लगे की मेरी बहन का विवाह एक भस्म पोतने वाले से हो गया है। उन्होंने पता किया की विलुप्त नगरी काशी में उनकी बहन सती और उनके पति विचरण कर रहे हैं।
सारंग ऋषि बहुत ही ज्यादा धन लेकर अपनी बहन से मिलने पहुंचे। रस्ते में, जहां आज मंदिर है वहीं थकान की वजह से उन्हें नींद आ गयी। उन्होंने स्वप्न में देखा की काशी नगरी एक स्‍वर्ण नगरी है। नींद खुलने के बाद उन्हें बहुत ग्लानी हुई की उन्होंने अपने बहनोई को लेकर क्‍या-क्‍या सोच लिया था। जिसके बाद उन्होंने प्रण लिया की अब यहीं पर वो बाबा विश्वनाथ की तपस्या करेंगे उसके बाद ही वो अपनी बहन सती से मिलेंगे।
इसी स्थान पर उन्होंने बाबा विश्वनाथ की तपस्या की। तपस्या करते-करते उनके पूरे शरीर से लावे की तरह गोंद निकलने लगी। जिसके बाद उन्होंने तपस्या जारी रखी अंत में उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भोले शंकर ने सती के साथ उन्हें दर्शन दिए। बाबा विश्वनाथ से जब सारंग ऋषि से इस जगह से चलने को कहा तो उन्होंने कहा कि अब हम यहां से नहीं जाना चाहते यह जगह संसार में सबसे अच्छी जगह है, जिसपर भगवान् शंकर ने उन्हें आशीर्वाद देते हुए कहा कि भाविष्‍य में तुम सारंगनाथ के नाम से जाने जाओगे और कलयुग में तुम्हे गोंद चढाने की परंपरा रहेगी। शिव ने सारंगनाथ को आशीर्वाद दिया कि जो चर्म रोगी सच्चे मन से तुम्हे गोंद चढ़ाएगा तो उसे चर्म रोग से मुक्ति मिल जाएगी।
कहते हैं कि सारंग ऋषि का नाम उसी दिन से सारंगनाथ पड़ा और अपने साले की भक्ति देख प्रसन्न हुए बाबा विश्वनाथ भी यहां सोमनाथ के रूप में विराजमान हुए। इस मंदिर में जीजा-साले की पूजा एक साथ होती है। इसलिए इस मंदिर को जीजा-साले का भी मंदिर कहा जाता है। कहा जाता है कि सावन में बाबा विश्वनाथ यहां निवास करते हैं और जो भी व्यक्ति सावन में काशी विश्वनाथ मंदिर के दर्शन नहीं कर पाता, वह एक दिन भी यदि सारंगनाथ का दर्शन करेगा उसे काशी विश्वनाथ मंदिर में जलाभिषेक के बराबर पुण्य मिलेगा। इसके अलावा कहा जाता है कि जब बौद्ध धर्म चरम सीमा पर था तब आदि गुरु शंकराचार्य ने जहां-जहां भ्रमण किया वहां-वहां उन्होंने शिवलिंग की स्थापना की थी। ये शिवलिंग भी उन्ही के द्वारा स्थापित किया हुआ है।
जीजा साले के मंदिर के नाम से प्रसिद्द इस मंदिर में आने वाले श्रद्धालु इस शिव मंदिर को भगवान् भोलेनाथ का ससुराल भी मानते हैं। हालांकि पौराणिक मान्‍यताओं के अनुसार हरिद्वार के कनखल में भगवान शिव का ससुराल है। फिर भी भक्‍त अपने आराध्‍य के साले के मंदिर को भी उनका ससुराल मानते हैं। यहां दर्शन करने आईं सुनीता सिंह ने कहा कि भगवान् भोलेनाथ आपने साले सारंग ऋषि के साथ यहां विराजमान हैं। वो सारंगनाथ और बाबा सोमनाथ के रूप में यहां है। इन दोनों की साथ में पूजा होती है, इसलिए ये बाबा का ससुराल है, जहां वो अपने साले के साथ सदियों से विराजमान हैं।