Friday, April 22, 2016

हनुमान जयंती

हनुमान जयंती एक हिन्दू पर्व होता है। यह चैत्र माह की पूर्णीमा को मनाया जाता है। इस दिन हनुमानजी का जन्म हुआ माना जाता है। श्री हनुमान जी की जयंती की तिथि के विषय में दो मत प्रचलित हैं 1 चैत्र शुक्ल पूर्णिमा 2 कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी! हनुमत जयंती के दिन श्री हनुमान जी की भक्ति पूर्वक आराधना करनी चाहिए
व्रत विधि- व्रती को चाहिए कि वह व्रत की पूर्व रात्रि को ब्रह्मचर्य का पालन पूर्वक प्रथ्वी पर शयन करें प्रात: ब्रह्म मुहूर्त में उठकर श्रीराम- जानकी हनुमान जी का स्मरण कर नित्य क्रिया से निवृत हो स्नान करें हनुमान जीकी प्रतिमा की प्रतिष्ठा करें षोडशोपचार विधि से पूजन करें ॐ हनुमते नमः मंत्र से पूजा करें इस दिन वाल्मीकि रामायण तुलसीकृत श्री राम चरित्र मानस के सुंदरकांड का या हनुमान चालीसा के अखंड पाठ का आयोजन चाहिए हनुमान जी का गुणगान भजन एवं कीर्तन करना चाहिए हनुमान जी के विग्रह का सिंदूर श्रंगार करना चाहिए! नैवेध मे गुड, भीगा चना या भुना चना तथा बेसन के लड्डू रखना चाहिए
पंडित युगल किशोर शास्त्री

Monday, April 18, 2016

पार्श्वनाथ जैन मन्दिर

सर्वधर्म सदभाव की नगरी है काशी। विभिन्न धर्मो के धार्मिक सरोकार से जुड़ी है यह पावन नगरी। भारतवर्ष के अन्दर जिसे लघु भारत के नाम से भी जाना जाता है। ऐतिहासिक अवलोकन से स्पष्ट होता है कि जैन धर्म का प्रभाव भी इस नगरी पर रहा है। ‘संयम’ और ‘सहनशीलता’ के प्रतिमूर्ति जैन धर्म के तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का जन्म काशी के पवित्र भूमि पर हुआ था। लगभग 2800 वर्ष पुर्व पौष कृष्ण एकादशी के दिन इक्ष्वाकु वंशीय राजा विश्वसेन (अश्वसेन) एवं रानी वामादेवी (उत्तर पुराण में इनका नाम ब्राह्मी बताया गया है) के भेलूपुर स्थित राजमहल में पुत्र पार्श्वकुमार का जन्म हुआ; जहाँ पर वर्तमान में विशाल मन्दिर स्थित है। पार्श्वनाथ की ‘दीक्षा’, ‘च्यवन’ एवं ‘कैवल्य ज्ञान’ संस्कार भी भेलूपुर तीर्थ में ही हुआ। तीर्थंकर पार्श्वनाथ विवाह बन्धन से दूर रहे। लगभग तीस वर्ष की उम्र में एक दिन राजसभा में भगवान ऋषभदेव की कथा सुनते-सुनते उनका ध्यान वैराग्य की ओर आकर्षित हुआ, तत्पश्चात उन्होनें अश्ववन में जाकर जैनेश्वरी दीक्षा को ग्रहण कर लिया। तपस्या में लीन पार्श्वनाथ ने शंबर नामक असुर के दारूण कष्टों को सहनकर कैवल्य को प्राप्त किया। झारखण्ड के गिरिडीह जिले में स्थित सम्मेदशिखर पर्वत पर श्रावण शुक्ल सप्तमी को पार्श्वनाथ को मोक्ष प्राप्त हुआ; जिसे मोक्ष कल्याणक शिखर भी कहते हैं। वर्तमान में यह पर्वत ‘पारस नाथ हिल’ के नाम से प्रसिद्ध है। पार्श्वनाथ के जन्म स्थल भेलूपुर मुहल्ले में विशाल, कलात्मक एवं मनोरम मन्दिर का निर्माण हुआ है। मन्दिर में काले पत्थरों से निर्मित मूलतः चार फिट उंची पार्श्वनाथ की प्रतिमा विराजमान है।
6273 वर्ग फिट क्षेत्रफल में फैले इस मन्दिर परिसर के मध्य सन 2000 में भगवान पार्श्वनाथ के मन्दिर का नवनिर्माण हुआ। राजस्थानी कारीगरों द्वारा राजस्थानी पत्थरों से निर्मित राजस्थानी शैली का यह मन्दिर अदभुत एवं अद्वितीय है। मन्दिर की दीवारों पर शिल्पकारों द्वारा सुन्दर ढंग से कलात्मक चित्रों को दर्शाया गया है। इस मन्दिर की उचाई 61 फिट है, मन्दिर निर्माण में बंशी पहाड़पुर का गुलाबी पत्थर 19500 घन फिट एवं 12000 वर्ग फिट मकराना मार्बल (सफेद) का प्रयोग हुआ तथा मन्दिर निर्माण में 12 वर्ष में 817600 मानव घण्टा का समय लगा। मन्दिर में लगा पीतल का दरवाजा काशी के ही शिल्पकारों द्वारा तैयार किया गया है। ईसा से 300 वर्ष पूर्व में मगध में 12 वर्षो तक भीषण अकाल पड़ा जिसके कारण जैन अनुयायी भद्रबाहु कुछ शिष्यों के साथ कर्नाटक चले गये, किंतु कुछ अनुयायी स्थूलभद्र के साथ मगध में ही रहें। भद्रबाहु जब वापस लौटे तो मगध के अनुयायीओं से उनका गहरा मतभेद हो गया, जिसके परिणाम स्वरूप जैन धर्म श्वेताम्बर तथा दिगम्बर नामक दो सम्प्रदायों मे बँट गया। स्थूलभद्र के शिष्य श्वेताम्बर (श्वेत वस्त्र धारण करने वाले) एवं भद्रबाहु के शिष्य दिगम्बर (नग्न रहने वाले) कहलायें। दिगम्बर मन्दिर के बाहरी ओर दीवारों पर जैन धर्म के सभी तीर्थंकरों का संक्षिप्त परिचय अंकित है। मन्दिर में प्रतिवर्ष लाखों की संख्या में देशी-विदेशी पर्यटकों का आगमन होता है, विभिन्न स्थानों से आये अनुयायी मन्दिर परिसर मे ही स्थित धर्मशाला में निवास करते हैं। मन्दिर प्रबन्धन द्वारा जीव-दया से सम्बन्धित कार्यक्रमों का आयोजन होता रहता है। दिगम्बर सम्प्रदाय द्वारा श्री पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन चिकित्सालय के माध्यम से निःशुल्क चिकित्सा सेवा भी प्रदान किया जाता है।







Friday, April 15, 2016

राम रमापति बैंक

राम रमापति बैंक : जहां मिलता है राम नाम का कर्ज
बात एक ऐसे बैंक की जिसकी कार्य प्रणाली बिल्कुल राष्ट्रीय बैंक की तरह है। इसमें कर्मचारी भी हैं, लोन भी मिलता है, हिसाब किताब भी रखा जाता है, अन्य बैंकों की तरह इसमें फिक्स डिपॉजिट भी होता है, लेकिन अंतर सिर्फ इतना है कि बैंकों में जमा किया हुआ धन इहलौकिक सुख देता है और इस बैंक में डिपॉजिट धन से पारलौकिक सुख की प्राप्ति होती है । बनारस के त्रिपुरा, भैरवी, दशाश्वमेघ में स्थित है राम रमापति बैंक, जहां राम के नाम का कर्ज दिया जाता है। यह कर्ज भगवान पर श्रद्धा रखने और अपनें कष्टों के निवारण के लिए लोग यहां से लेते हैं। इस बैंक से कर्ज लेने वालों में बनारस ही नहीं, बल्कि विश्व के अनके भागों से लोग इस बैंक में पहुचंते हैं। अब तक यहां 19 अरब 18 करोड़ 87 लाख 75 हजार श्रीराम नाम का कर्ज बैंक में जमा हो चुका है। इस बैंक से कर्ज लेने और उसे चुकता करने के कुछ नियम हैं जो काफी कड़े हैं। भक्त यहां से सवा लाख राम नाम का कर्ज राम नवमी के अवसर पर लेता है और आठ महीने दस दिन यानी 250 दिन तक रोज 500 राम नाम लिख कर इसी बैंक में जमा करना पड़ता है। इस क्रिया को लखौरी कहते हैं। इस तरह सवा लाख बार राम का नाम लिखना पड़ता है, जिसके लिए राम बैंक का मोहर लगा कागज, लकड़ी की कलम और लाल स्याही बैंक की तरफ से मुफ्त में दिया जाता है। इसे लिखने के दौरान मांच, मदिरा, लहसुन, प्याज व अशुद्ध और जूठा भोजन, मृतक संबंधी भोजन से परहेज रखना पड़ता है। कर्ज की पूर्ति दिए समय में ही पूरा करना पड़ता है। पूरा होने के बाद इसे बैंक में अर्पण कर दिया जाता है। कहते हैं कि राम नाम लिखने के दौरान भगवान राम का दर्शन स्वप्न में अवश्य होता है। राम नवमी के दिन इस कर्ज को लेने का विशेष महत्व है। राम रमापति बैंक के मैनेजर कृष्ण ने बताया कि सन् 1926 में इस बैंक की स्थापना हुई थी, तब से लाखों भक्तों ने इस बैंक से राम नाम का न सिर्फ लिया बल्कि उसे पूरा करके अपनी मिन्नतें भी पूरी कीं। चैत्र मास की रामनवमी को बैंक अपना 89 वां वार्षिकोत्सव मनाने जा रहा है। इस दौरान दस दिवसीय विशेष आयोजन होगा, जिसमें अब तक लिखे सभी राम नाम के खजाने का भक्त फेरी लगाकर पुण्य कमाएंगे।









Tuesday, April 12, 2016

त्रिलोचन महादेव मन्दिर

भगवान शिव की महिमा भी बड़ी न्यारी है। विभिन्न रूपों में शिव जी अपने भक्तों का बड़े ही भोले अंदाज में मन मोह लेते हैं। भांग, धतूरा और श्मशान की राख और गले में सर्प की माला उन्हें औघड़ स्वरूप देती है। यही कारण है कि शिवलिंग के रूप में भगवान शिव सहज भाव से ही अपने भक्तों को उपलब्ध हो जाते हैं। कभी आनंद कानन रही काशी भगवान शिव को पृथ्वी पर सबसे अधिक प्यारी रही। काशी में अनेकों शिवलिंग हैं। स्वयंभू शिवलिंगों में त्रिलोचन महादेव का भी महत्वपूर्ण स्थान है। त्रिलोचन महादेव का मंदिर वाराणसी-जौनपुर सीमा पर त्रिलोचन महादेव बाजार में स्थित है। स्कंद पुराण के अनुसार देवादिदेव शिव जब योगयुक्त होकर बैठे हुए थे तभी त्रिलोचन महादेव सात पातालों को छेद कर उत्पन्न हुए। स्कंद पुराण के अनुसार भगवान शिव पार्वती जी से कहते हैं कि सब तीर्थों में आनंद-कानन और शिवलिंगों में त्रिलोचन महादेव श्रेष्ठ हैं। इस मंदिर की खासियत यह है कि त्रिलोचन महादेव के शिवलिंग पर भगवान शिव की आकृति उभरी हुई है वह भी एक नहीं बल्कि दो। प्रायः श्रद्धालु इन आकृतियों को देख नहीं पाते। क्योंकि बड़े से अर्घे के भीतर स्थित शिवलिंग पर माला फूल चढ़ा रहता है। आकृति को देखने के लिए अर्घे के भीतर कूपर जलाना पड़ता है। यह शिवलिंग सीधा न होकर उत्तर दिशा की ओर झुका हुआ है। उत्तर दिशा की ओर शिवलिंग झुकने के पीछे एक किवदंती है कि जब यह शिवलिंग प्रकट हुए तो दो गांव रेहटी व लहंगपुर में विवाद उत्पन्न हो गया कि यह शिवलिंग किसके गांव में हैं। शिवलिंग को लेकर सीमा विवाद बढ़ता जा रहा था दोनों गांवों के लोग आमने-सामने थे। इसी बीच एक रात्रि यह शिवलिंग उत्तर दिशा रेहटी गांव की ओर झुक गया। इस तरह सीमा विवाद समाप्त हुआ और दोनों गांवों ने यह मान लिया कि यह शिवलिंग रेहटी गांव में उत्पन्न हुआ है। एक और जन मान्यता है कि पहले इस क्षेत्र में जंगल हुआ करता था। जहां दूर-दूर से गांव वाले पशुओं को चराने लाते थे। जहां पर शिवलिंग हैं वहां जब भी गायें चरते हुए जातीं तो उनका दूध ऐसा लगता जैसे कोई पी गया है। इस बात की जानकारी जब चरवाहों को हुई तो वे उस जगह पर लाठी डंडे से पीटने लगे। उसी समय गांव के जमींदार को रात्रि में स्वप्न आया कि उक्त स्थान पर शिवलिंग है। जमींदार ने जब उस स्थान पर खुदाई करायी तो शिवलिंग मिला। एक और मान्यता है कि जब भगवान शिव को ब्रह्म दोष लगा तो सब जगह घूमते-घूमते यहां आये यहां आने पर ब्रह्म दोष इनके पास नहीं आ सका। इस दौरान शिव जी घूमते-घूमते काफी थक गये थे। साथ में पार्वती जी भी थीं। शिव जी ने उनसे पानी लाने के लिए कहा। पानी की खोज में पार्वती जी मणिकर्णिका आ गयीं। यहां पर पानी लेने में पार्वती जी का कर्ण कुण्डल कहीं खो गया। काफी देर बीत जाने के बाद भी जब पार्वती जी पानी लेकर नहीं लौटे तब उन्हें ढूंढते हुए भगवान शिव मणिकर्णिका घाट पर पहुंचे। त्रिलोचन महादेव मंदिर के ठीक सामने औषधि गुणों से युक्त पिलपिला तालाब भी है। मान्यता है कि इस तालाब का जल स्रोत गोमती और सई नदी के संगम से मिला हुआ है, जिससे इस तालाब का पानी कभी सूखता नहीं है। मान्यता है कि वैशाख शुक्ल पक्ष की तृतीया को जो भी इस तालाब में स्नान करके उपवास एवं रात्रि जागरण करते हुए त्रिलोचन महादेव का दर्शन-पूजन करेगा वह भगवान शिव का पार्षद होगा और उनके आगे चलेगा। इसी वजह से इस दिन काफी संख्या में श्रद्धालु इस तालाब में स्नान कर भगवान शिव को जल चढ़ाते हैं। यह तालाब औषधि गुणों से भी परिपूर्ण है। इसमें स्नान से कुष्ठ एवं मिर्गी रोग में लाभ मिलता है। मंदिर निर्माण की बात की जाय तो इस मंदिर का गुम्बद काफी उंचा है। समय-समय पर स्थानीय श्रद्धालुओं द्वारा मंदिर का निर्माण, पुनर्निर्माण का कार्य किया जाता रहा है। मंदिर परिसर में बड़े हालों का भी निर्माण कराया गया है। जिसमें श्रद्धालु विभिन्न अवसरों पर कड़ाही चढ़ाने के लिये प्रयोग करते हैं। भगवान शिव का सबसे प्रिय महीना सावन में यहां अलग ही छटा रहती है। मंदिर परिसर और उसके आसपास का नजारा प्राकृतिक रूप से हरियाली युक्त हो जाता है। पूरे माह मेले जैसा माहौल रहता है। दूर-दूर से श्रद्धालु त्रिलोचन महादेव का दर्शन-पूजन करने आते हैं। वहीं, कांवरियों का जत्था भी इस मंदिर में सावन भर बाबा पर जल अर्पित करता है। सावन के सोमवार को तो पुरष श्रद्धालुओं के अलावा महिलाएं काफी संख्या में मंदिर पहुंचकर बाबा का दर्शन-पूजन करती हैं। महाशिवरात्रि के अवसर पर जल चढ़ाने के लिए अपरंपार भीड़ होती है। श्रद्धालुओं की कतारें ज्यादा लम्बी होती हैं। भोर से ही जल चढ़ाने का क्रम आधी रात तक जारी रहता है। इस दिन बाबा का श्रृंगार भी किया जाता है। एक और उत्सव जिसमें त्रिलोचन महादेव के दरबार में पूरे एक माह तक मेला लगा रहता है। यह अवसर तीन वर्ष में लगने वाले पुरूषोत्तम मास (मलमास) में आता है। इस पूरे महीने काफी संख्या में श्रद्धालु मंदिर पहुंचकर दर्शन-पूजन करते हैं। इस दौरान पूरे माह मेला लगा रहता है। ऐसी मान्यता है कि इस अवसर पर बाबा का दर्शन-पूजन करने से सभी कष्ट दूर होते हैं और सुख सम्पत्ति मिलती है। वर्ष में बाबा का दो बार श्रृंगार किया जाता है। नियमित रूप से श्रद्धालुओं के लिए यह मंदिर प्रातः 4 बजे से रात्रि 9 बजे तक खुला रहता है। आरती मंदिर खुलने के साथ प्रातः 4 बजे और शयन आरती रात्रि 9 बजे सम्पन्न होती है। इस मंदिर के पुजारी ओमकार गिरी और संजय गिरी हैं। वाराणसी से करीब 30 किलोमीटर दूर वाराणसी जौनपुर मार्ग पर त्रिलोचन बाजार के पूर्व में स्थित है। वाराणसी से बस द्वारा आसानी से इस मंदिर तक पहुंचा जा सकता है।









नौ दुर्गा

हिन्दुओं में अन्य देवी-देवताओ के साथ जगत-जननी माँ दुर्गा के प्रति असीम आस्था एवं भक्ति है। नवरात्र में नवों दिन लोग माँ दुर्गा की पूजा अर्चना करते हैं। वैसे भारत में नवरात्र पश्चिम बंगाल खासकर कलकत्ता में बड़े ही धूम-धाम से मनाया जाता है लेकिन उत्तर भारत में भी लोग नवरात्र को काफी श्रद्धा भाव से मनाते हैं। इस दौरान नवरात्र के नौ दिन अलग-अलग रूपों में माँ दुर्गा की पूजा की जाती है। काशी में नौ दुर्गा का अलग-अलग स्थान है। शारदीय नवरात्र में माँ के इन रूपों को पूजा होती है। 
1) शैलपुत्री– नवरात्र के पहले दिन (प्रथमा) को माँ दुर्गा को शैलपुत्री के रूप में पूजा जाता है। शैलपुत्री दर्शन से भक्तों के सारे दुःख, पाप कट जाते हैं। इनकी कृपा होने पर धन संपदा और पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है। इन्हें माँ दुर्गा के शक्ति रूप में भी माना जाता है। माँ शैलपुत्री के दाहिने हाथ में त्रिशूल और बायें हाथ में कमल रहता है। काशी में शैलपुत्री माता का मंदिर अलईपुर मुहल्ले में A 40/11, शैलपुत्री भवन में है नवरात्र के पहले दिन यहाँ दर्शनार्थियों का तांता लगा रहता है।
2) ब्रह्मचारिणी– नवरात्र के दूसरे दिन (द्वितीया) को माता ब्रह्मचारिणी की पूजा की जाती है। भक्तों का मानना है कि इनके दर्शन मात्र से रोगों से मुक्ति मिल जाती है और भक्त बलवान व शक्तिशाली हो जाता है। साथ ही इनकी कृपा होने पर हमेशा सफलता मिलती है। इनका पवित्र मंदिर 22/17 दुर्गाघाट मुहल्ले में स्थित है। भक्त दुर्गाघाट में स्नान कर इनका दर्शन करते हैं।
3) चन्द्रघण्टा– नवरात्र के तीसरे दिन (तृतीया) को माँ दुर्गा के चन्द्रघण्टा रूप की पूजा होती है। इस रूप को चित्रघण्टा भी कहा जाता है। भक्तों में मान्यता है कि माँ के इस रूप के दर्शन पूजन से नरक से मुक्ति मिल जाती है। साथ ही सुख, समृद्धि, विद्या, सम्पत्ति की प्राप्ति होती है। इनके माथे पर घण्टे के आकार का अर्धचन्द्र बना है। माँ सिंह वाहिनी हैं। इनकी दस भुजाएँ है। माँ के एक हाथ में कमण्डल भी है। इनका भव्य मंदिर CK 33/35 चौक मुहल्ले में स्थित है। नवरात्र में माँ के भक्तों की भीड़ लगी रहती है।
4) कुष्माण्डा– माँ दुर्गा का चौथा रूप कुष्माण्डा है। नवरात्र के चौथे दिन (चतुर्थी) को माता के इसी रूप की पूजा विधि विधान से होती है। माँ के इस रूप के दर्शन-पूजन से सारी बाधा, विध्न और दुखों से छुटकारा मिलता है। साथ ही भवसागर की दुर्गति को भी नहीं भोगना पड़ता है। माँ की आठ भुजाएं हैं। इनके सात हाथों में क्रमशः कमण्डल, धनुष, बाण, कमल पुष्प, अमृतपूर्ण कलश, चक्र और गदा है। मां कुष्माण्डा विश्व की पालनकर्ता के रूप में भी जानी जाती हैं। इनका मंदिर D 27/2 दुर्गाकुण्ड मुहल्ले में स्थित है।
5) स्कन्दमाता– नवरात्र के पांचवें दिन (पंचमी) को माँ दुर्गा के स्कन्द माता रूप की पूजा होती है। स्कन्द कार्तिकेय का एक नाम है। इनका दर्शन-पूजन करने से सभी दुखों से छुटकारा मिल जाता है। साथ ही भक्त ओजस्वी और तेजस्वी होते हैं। माना जाता है कि स्कन्द माता नगरवासियों की रक्षा करती हैं। स्कन्द माता सिंह वाहिनी हैं। इनकी चार भुजाएँ हैं। दाहिने भुजा में स्कन्द कार्तिकेय को अपनी गोंद में पकड़ी हुए हैं। नीचे भुजा में कमल पुष्प धारण की हैं। बायीं ओर एक हाथ वरद मुद्रा में है तो दूसरी भुजा में कमल फूल पकड़े हुए हैं। स्कन्द माता का मंदिर J 6/33, जैतपुरा मुहल्ले में स्थित है।
6) कात्यायनी माता– नवरात्र के छठें दिन (षष्ठी) को भक्त माँ के कात्यायनी माता का दर्शन-पूजन करते हैं। मान्यता है कि कात्यायन ऋषि के आश्रम में उनके तप से माता ने दर्शन दिया था। इसीलिए इनका नाम कात्यायनी पड़ा। माँ के इस रूप का पूजन-अर्चन करने से भक्तों के पाप का नाश होता है। साथ ही माँ आत्मज्ञान प्रदान करती हैं। काशी के अलावा वृन्दावन में भी माता अधिष्ठात्री देवी हैं। माना जाता है कि भगवान कृष्ण को पति के रूप में पाने के लिए गोपियों ने कात्यायनी व्रत रखा था। इनका रूप सोने जैसा है। माँ चतुभुर्जा हैं और इनका वाहन सिंह है। कात्यायनी माता का मंदिर CK 7/158 सिन्धिया घाट मुहल्ले में है। नवरात्र में इस मंदिर में  काफी संख्या में भक्त आते हैं।
7) कालरात्रि– नवरात्र के सातवें दिन (सप्तमी) को माता कालरात्रि की पूजा होती है। भक्तों में आस्था है कि उनके दर्शन-पूजन से अकाल मृत्यु नहीं होती है। साथ ही भक्तों की सारी कामनाएँ पूरी हो जाती है। माँ कालरात्रि भक्तों को सुख देने के साथ मोक्ष भी प्रदान करती हैं। माँ कालरात्रि का रूप भयानक है। सिर के बाल बिखरे हैं। गले की माला बिजली की तरह चमकती है। इनके तीन नेत्र हैं। इनके श्वास से अग्नि की ज्वालाएँ निकलती हैं। माँ का वाहन गर्दभ है। इनका मंदिर D 8/3 कालिका गली में स्थित है।
8) महागौरी– नवरात्र के आठवें दिन (अष्टमी) को माँ दुर्गा के महागौरी रूप की पूजा होती है। यह रूप काशी की अधिष्ठात्री देवी माता अन्नपूर्णा भी हैं। इनके दर्शन पूजन करने से भक्त कभी दरिद्र नहीं होते। भक्तों पर माँ की असीम अनुकम्पा हमेशा रहती है। जिससे धन संपदा और अन्न की प्राप्ति होती है। महागौरी हमेशा काशी वासियों का कल्याण करती हैं। इनकी कृपा से काशीवासी कभी भूखे नहीं रहते। माँ का रूप पूरी तरह से गौर है माँ की सवारी वृषभ है। इनकी चार भुजाएं हैं। इनकी मुद्रा शांत और सौम्य है। इनके दर्शन के लिए भक्तों की जमकर भीड़ होती है। यह मंदिर अन्नपूर्णा मंदिर में स्थित है।
9) सिद्धिदात्री माता– नवरात्र के नौवें (नवमी) को व अंतिम दिन सिद्धिदात्री माँ की पूजा आराधना होती है। इनके दर्शन-पूजन से कलह का शमन होता है। माँ सबकी रक्षा करने के साथ सिद्धि प्रदान करती हैं। माँ के प्रसन्न होने पर भक्तों को आठों सिद्धि मिल जाती है। आठों सिद्धियाँ इस प्रकार है। अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वाशित्व। इनका वाहन भी सिंह है और इन्हें चार भुजाएं हैं। माँ सिद्धिदात्री का मंदिर CK 6/28 बुलानाला में स्थित है।


Saturday, April 9, 2016

सोनी चौरसिया ने बनाया नृत्य करने का विश्व रिकार्ड

बूटी सी उम्र और हौसला हिमालय सा। फिर कैसा असमंजस और कैसी ऊहापोह। सो काशी की किशोरी कथक नृत्यांगना सोनी ने अपना इस्पाती इरादा पूरा कर दिखाया और रात के ठीक 9:21 पर अनवरत नृत्य की कीर्तिमान स्थापित करते हुए गिनीज बुक आफ द रिकार्ड में अपना नाम दर्ज कराया। रोहनियां के एक निजी स्वूâल में बीत तीन दिनों से चल रही इस अटूट नृत्य यात्रा को मंजिल शनिवार को तब मिली जब घड़ी की सुर्इंया 9:22 पर थरथरायीं और रंगमंडप तालियों की गड़गड़ाहट और हर हर महादेव की घोष से गूंज उठा। जैसी की उम्मीद थी सोनी ने इस कीर्तिमान के बाद भी अपना पद संचलन नहीं रोका। रात के दूसरे पहर तक नृत्य जारी रखते हुए 126 घंटे 05 मिनट के कीर्तिमान को एक चुनौतीपूर्ण मुकाम तक पहुंचाया। शनिवार को सुबह से ही कार्यक्रम स्थल पर विशिष्टजनों का जमावड़ा सोनी का हौसला अफजाई के लिए लगने लगा था। 9:03 पर अल्प समय के लिए ब्रेक लेने के बाद सोनी जैसे ही मंच पर उतरी। कार्यक्रम स्थल पर उमड़ी काशीवासियों की भीड़ तालियों के साथ लगातार हर-हर महादेव के जयघोष से तब तक गूंजता रहा जब तक उसने रिकार्ड तोड़ न दिया।
काशी की किशोरी सोनी को शुभकामना देने के लिए मां अन्नपूर्णा मंदिर के महंत रामेश्वरपुरी जी भी शाम से ही डटे रहे। बताते चले कि इसके पहले केरल की हेमलता कंमडलु ने 123 घंटे 15 मिनट तक लगातार कथक करके वर्ल्ड रिकार्ड बनाया था जिसे सोनी ने ‘बीती बात’ बना दिया। रिकार्ड टूटते ही सोनी के मां मधु चौरसिया की आंखों में खुशी के आंसू आ गये। वहीं पिता श्यामचन्द्र चौरसिया बधाईयां लेते फूले नहीं समा रहे थे। कार्यक्रम स्थल पर जुटी जनता हवा में मुटिठया उछालकर इस साहसी बाला का अभिनन्दन किया।
काशी में जश्न का माहौल--
वैसे तो शनिवार की सुबह से सोनी के मुहल्ले विविहटिया में जश्न का माहौल था लेकिन जैसे ही रिकार्ड टूटा मुहल्ले वाले मारे खुशी के झुम उठे। पटाखों की शोर और गली-गली बंटती मिठाईया बता रही थी कि सोनी की इस सफलता को लेकर काशी कितनी आहलादित थी। सारे लोग वहां रोहनियां में थे और इधर घर पर अकेले छुटी सोनी की ताई मंजू देवी बधाईया लेते और मिठाईया खिलाते थक नहीं रही थी। सोनी का तोता आंगन में पिंजड़े में बंद जल्दी आवा, जल्दी आवा का रट लगाए हुए था। घर अकेला न छोड़ पाने की मजबूरी ने उनकी पूरी तव्वजों टीवी के चैनलों पर थी। हर घंटे के बाद वह दौड़कर बाहर आती थी और मुहल्ले वालों को कार्यक्रम के बारे में बताती।
लिम्बा बुक ऑफ रिकॉर्ड में दर्ज हो चुका है नाम---
सोनी चौरसिया ने वर्ष 2010 में लगातार कत्थक करते हुए लिम्बा बुक ऑफ रिकॉर्ड में अपना नाम दर्ज करा चुकी है। सोनी की इच्छा थी कि उसका नाम सबसे अधिक घंटों तक कत्थक करने के विश्व रिकॉर्ड में भी दर्ज हो जिसे वह शनिवार को पूरा कर लिया।
ऐसे करती थी सोनी अभ्यास---
सोनी चौरसिया ने ऐसे ही नहीं नये कीर्तिमान गढ़े है इसके लिए प्रतिदिन उसने भोर तीन बजे से लगातार अपने पसीने बहाए है। विगत नवंबर माह में रिकार्ड बनाने से चूकने के बाद सोनी ने लगातार अपने अभ्यास को बढ़ाया और रोज सुबह 3 बजे उठकर गंगा तैरकर उस पार जाती और रेती में दौड़ लगाती। सोनी घर में भी घंटों कत्थक करने का अभ्यास करती रहती थी यहां तक की अपने घर में गर्म रेत बिछाकर रखती थी जिस पर वह अभ्यास कर सके। सोनी जानती थी कि लगातार कत्थक करने में काफी पसीना होगा और इससे पार पाने के लिए भी उसे अभ्यास करना होगा। सोनी ने एक साल तक कमरे में बिना पंखा व कूलर लगाये ही अभ्यास किया और सिर्फ गर्म पानी पीती रही।


Thursday, April 7, 2016

Chaitra Navratri

Chaitra Navratri is nine days festivity which starts on the first day of Hindu Luni-Solar calendar and falls in the month of March or April. Chaitra is the first month of Hindu lunar calendar and because of it this Navratri is known as Chaitra Navratri. Chaitra Navratri is also known as Vasanta Navratri. Rama Navami, the birthday of Lord Rama usually falls on the ninth day during Navratri festivity. Hence Chaitra Navratri is also known as Rama Navratri.
All nine days during Navratri are dedicated to nine forms of Goddess Shakti. Most customs and rituals followed during Shardiya Navratri, which falls in the month of September or October, are also followed during Chaitra Navratri. Ghatasthapana Puja Vidhi for Shardiya Navratri and Chaitra Navratri is same.
Chaitra Navratri is more popular in northern India. In Maharashtra Chaitra Navratri begins with Gudi Padwa and in Andhra Pradesh it begins with Ugadi.

Vikram Samvat

The Hindu New Year 2073 or Vikram Nav Varsh Samvant in the traditional lunar Hindu calendars followed in North India – especially in Uttar Pradesh, Himachal Pradesh, Haryana, Madhya Pradesh, Rajasthan, Uttarakhand, Bihar, Jharkand, Jammu and Kashmir, Punjab, Delhi and Chhattisgarh is celebrated on Chaitra Shukala Pratipada (March – April). In 2016, the Nav Samvat begins on April 8. The New Year is first day after the Amavasi (No moon) in the month of Chaitra. The current year is known as Soumya Samvatsar.
People offer prayers on the day for a happy and prosperous year. First prayer is offered to Ganesha.
Note: Nav Varsh Samvat 2073 in Gujarati calendar begins on October 31, 2016.
Note - Saka Era 1938 begins on April 8 in Maharashtra, Andhra Pradesh, Telangana and Karnataka.
Note - Chaitra or Vasant Navratri is observed from the first day for nine days in North India
Vikram Era was started in 57 BC by Emperor Vikramaditya as a commemoration of his victory upon the Shaks. This victory took place at Ujjain, one among the four places associated with Kumbh Mela. This Hindu calendar is also known as Vikram Samvant.
According to the traditional Hindu calendar followed in North India this is year Vikram Samvat 2073. This calculation of Hindu New Year is based on the Luni-Solar calendar. A month in the calendar is calculated from the day after full moon to full moon (Pratipada tithi after Purnima to Purnima). This is known as Purnimanta system.
The calendars followed mainly in North India are based on the Amanta and Purnimanta system. Amanta calendar is calculated from New moon to New moon. Purnimanta is calculated from Full moon to Full moon. Amanta is used in some places for calculating festivals and other auspicious days.
The Amanta Lunar calendar starts with Chaitra month. Amanta is used fix all the major Hindu festivals in North India. Even those communities that prefer the Purnimata calendar use Amanta calendar for fixing festivals.
It must be noted here that Gujarat follows a different calendar system and there the New Year falls on the day after Diwali – the calendar is popularly known as Vikram Samvat – the current year in Gujarati calendar is Vikram Samvat 2073 (It will change only on October 31, 2016).
Similarly, the official Government of India calendar, the Saka Calendar, has its New Year in Chaitra month but it falls on March 21st or March 22nd. 


विक्रम संवत

विक्रम संवत अत्यन्त प्राचीन संवत है। साथ ही ये गणित की दृष्टि से अत्यन्त सुगम और सर्वथा ठीक हिसाब रखकर निश्चित किये गये है। किसी नवीन 'संवत' को चलाने की शास्त्रीय विधि यह है कि जिस नरेश को अपना संवत चलाना हो, उसे संवत चलाने के दिन से पूर्व कम-से-कम अपने पूरे राज्य में जितने भी लोग किसी के ऋणी हों, उनका ऋण अपनी ओर से चुका देना चाहिये। 'विक्रम संवत' का प्रणेता सम्राट विक्रमादित्य को माना जाता है। कालिदास इस महाराजा के एक रत्न माने जाते हैं। कहना नहीं होगा कि भारत के बाहर इस नियम का कहीं पालन नहीं हुआ। भारत में भी महापुरुषों के संवत उनके अनुयायियों ने श्रद्धावश ही चलाये; लेकिन भारत का सर्वमान्य संवत 'विक्रम संवत' ही है और महाराज विक्रमादित्य ने देश के सम्पूर्ण ऋण को, चाहे वह जिस व्यक्ति का रहा हो, स्वयं देकर इसे चलाया। इस संवत के महीनों के नाम विदेशी संवतों की भाँति देवता, मनुष्य या संख्यावाचक कृत्रिम नाम नहीं हैं। यही बात तिथि तथा अंश (दिनांक) के सम्बन्ध में भी है, वे भी सूर्य-चन्द्र की गति पर आश्रित हैं। सारांश यह कि यह संवत अपने अंग-उपांगों के साथ पूर्णत: वैज्ञानिक सत्य पर स्थित है।
शास्त्रों व शिलालेखों में उल्लेख 
'विक्रम संवत' के उद्भव एवं प्रयोग के विषय में कुछ कहना कठिन है। यही बात 'शक संवत' के विषय में भी है। किसी विक्रमादित्य राजा के विषय में, जो ई. पू. 57 में था, सन्देह प्रकट किए गए हैं। इस संवत का आरम्भ गुजरात में कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से (नवम्बर, ई. पू. 58) और उत्तरी भारत में चैत्र कृष्ण प्रतिपदा (अप्रैल, ई. पू. 58) से माना जाता है। बीता हुआ विक्रम वर्ष ईस्वी सन+57 के बराबर है। कुछ आरम्भिक शिलालेखों में ये वर्ष कृत के नाम से आये हैं[1]। विद्वान मतभेद विक्रम संवत के प्रारम्भ के विषय में भी विद्वानों में मतभेद हैं। कुछ लोग ईसवी सन 78 और कुछ लोग ईसवी सन 544 में इसका प्रारम्भ मानते हैं। फ़ारसी ग्रंथ 'कलितौ दिमनः' में पंचतंत्र का एक पद्य 'शशिदिवाकर योर्ग्रहपीडनम्श' का भाव उद्धृत है। विद्वानों ने सामान्यतः 'कृत संवत' को 'विक्रम संवत' का पूर्ववर्ती माना है। किन्तु 'कृत' शब्द के प्रयोग की व्याख्या सन्तोषजनक नहीं की जा सकी है। कुछ शिलालेखों में मावल-गण का संवत उल्लिखित है, जैसे- नरवर्मा का मन्दसौर शिलालेख। 'कृत' एवं 'मालव' संवत एक ही कहे गए हैं, क्योंकि दोनों पूर्वी राजस्थान एवं पश्चिमी मालवा में प्रयोग में लाये गये हैं। कृत के 282 एवं 295 वर्ष तो मिलते हैं, किन्तु मालव संवत के इतने प्राचीन शिलालेख नहीं मिलते। यह भी सम्भव है कि कृत नाम पुराना है और जब मालवों ने उसे अपना लिया तो वह 'मालव-गणाम्नात' या 'मालव-गण-स्थिति' के नाम से पुकारा जाने लगा। किन्तु यह कहा जा सकता है कि यदि कृत एवं मालव दोनों बाद में आने वाले विक्रम संवत की ओर ही संकेत करते हैं, तो दोनों एक साथ ही लगभग एक सौ वर्षों तक प्रयोग में आते रहे, क्योंकि हमें 480 कृत वर्ष एवं 461 मालव वर्ष प्राप्त होते हैं। यह मानना कठिन है कि कृत संवत का प्रयोग कृतयुग के आरम्भ से हुआ। यह सम्भव है कि 'कृत' का वही अर्थ है जो 'सिद्ध' का है, जैसे- 'कृतान्त' का अर्थ है 'सिद्धान्त' और यह संकेत करता है कि यह कुछ लोगों की सहमति से प्रतिष्ठापित हुआ है। 8वीं एवं 9वीं शती से विक्रम संवत का नाम विशिष्ट रूप से मिलता है। संस्कृत के ज्योति:शास्त्रीय ग्रंथों में यह शक संवत से भिन्नता प्रदर्शित करने के लिए यह सामान्यतः केवल संवत नाम से प्रयोग किया गया है। 'चालुक्य विक्रमादित्य षष्ठ' के 'वेडरावे शिलालेख' से पता चलता है कि राजा ने शक संवत के स्थान पर 'चालुक्य विक्रम संवत' चलाया, जिसका प्रथम वर्ष था - 1076-77 ई.।
नव संवत्सर 'विक्रम संवत 2073' का शुभारम्भ 8 अप्रैल, सन 2016 को चैत्र मास के शुक्ल पक्ष, प्रतिपदा से है। पुराणों के अनुसार चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को ब्रह्मा ने सृष्टि निर्माण किया था, इसलिए इस पावन तिथि को नव संवत्सर पर्व के रूप में भी मनाया जाता है। संवत्सर-चक्र के अनुसार सूर्य इस ऋतु में अपने राशि-चक्र की प्रथम राशि मेष में प्रवेश करता है। भारतवर्ष में वसंत ऋतु के अवसर पर नूतन वर्ष का आरम्भ मानना इसलिए भी हर्षोल्लासपूर्ण है, क्योंकि इस ऋतु में चारों ओर हरियाली रहती है तथा नवीन पत्र-पुष्पों द्वारा प्रकृति का नव शृंगार किया जाता है। लोग नववर्ष का स्वागत करने के लिए अपने घर-द्वार सजाते हैं तथा नवीन वस्त्राभूषण धारण करके ज्योतिषाचार्य द्वारा नूतन वर्ष का संवत्सर फल सुनते हैं। शास्त्रीय मान्यता के अनुसार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की तिथि के दिन प्रात: काल स्नान आदि के द्वारा शुद्ध होकर हाथ में गंध, अक्षत, पुष्प और जल लेकर ओम भूर्भुव: स्व: संवत्सर- अधिपति आवाहयामि पूजयामि च इस मंत्र से नव संवत्सर की पूजा करनी चाहिए तथा नववर्ष के अशुभ फलों के निवारण हेतु ब्रह्मा जी से प्रार्थना करनी चाहिए कि 'हे भगवन! आपकी कृपा से मेरा यह वर्ष कल्याणकारी हो और इस संवत्सर के मध्य में आने वाले सभी अनिष्ट और विघ्न शांत हो जाएं।' नव संवत्सर के दिन नीम के कोमल पत्तों और ऋतुकाल के पुष्पों का चूर्ण बनाकर उसमें काली मिर्च, नमक, हींग, जीरा, मिश्री, इमली और अजवायन मिलाकर खाने से रक्त विकार आदि शारीरिक रोग शांत रहते हैं और पूरे वर्ष स्वास्थ्य ठीक रहता है।
राष्ट्रीय संवत
भारतवर्ष में इस समय देशी विदेशी मूल के अनेक संवतों का प्रचलन है, किंतु भारत के सांस्कृतिक इतिहास की दृष्टि से सर्वाधिक लोकप्रिय राष्ट्रीय संवत यदि कोई है तो वह 'विक्रम संवत' ही है। आज से लगभग 2,068 वर्ष यानी 57 ईसा पूर्व में भारतवर्ष के प्रतापी राजा विक्रमादित्य ने देशवासियों को शकों के अत्याचारी शासन से मुक्त किया था। उसी विजय की स्मृति में चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि से विक्रम संवत का भी आरम्भ हुआ था। नये संवत की शुरुआत प्राचीन काल में नया संवत चलाने से पहले विजयी राजा को अपने राज्य में रहने वाले सभी लोगों को ऋण-मुक्त करना आवश्यक होता था। राजा विक्रमादित्य ने भी इसी परम्परा का पालन करते हुए अपने राज्य में रहने वाले सभी नागरिकों का राज्यकोष से कर्ज़ चुकाया और उसके बाद चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से मालवगण के नाम से नया संवत चलाया। भारतीय कालगणना के अनुसार वसंत ऋतु और चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की तिथि अति प्राचीन काल से सृष्टि प्रक्रिया की भी पुण्य तिथि रही है। वसंत ऋतु में आने वाले वासंतिक 'नवरात्र' का प्रारम्भ भी सदा इसी पुण्य तिथि से होता है। विक्रमादित्य ने भारत की इन तमाम कालगणनापरक सांस्कृतिक परम्पराओं को ध्यान में रखते हुए ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की तिथि से ही अपने नवसंवत्सर संवत को चलाने की परम्परा शुरू की थी और तभी से समूचा भारत इस पुण्य तिथि का प्रतिवर्ष अभिवंदन करता है। दरअसल, भारतीय परम्परा में चक्रवर्ती राजा विक्रमादित्य शौर्य, पराक्रम तथा प्रजाहितैषी कार्यों के लिए प्रसिद्ध माने जाते हैं। उन्होंने 95 शक राजाओं को पराजित करके भारत को विदेशी राजाओं की दासता से मुक्त किया था। राजा विक्रमादित्य के पास एक ऐसी शक्तिशाली विशाल सेना थी, जिससे विदेशी आक्रमणकारी सदा भयभीत रहते थे। ज्ञान-विज्ञान, साहित्य, कला संस्कृति को विक्रमादित्य ने विशेष प्रोत्साहन दिया था। धंवंतरि जैसे महान वैद्य, वराहमिहिर जैसे महान ज्योतिषी और कालिदास जैसे महान साहित्यकार विक्रमादित्य की राज्यसभा के नवरत्नों में शोभा पाते थे। प्रजावत्सल नीतियों के फलस्वरूप ही विक्रमादित्य ने अपने राज्यकोष से धन देकर दीन दु:खियों को साहूकारों के कर्ज़ से मुक्त किया था। एक चक्रवर्ती सम्राट होने के बाद भी विक्रमादित्य राजसी ऐश्वर्य भोग को त्यागकर भूमि पर शयन करते थे। वे अपने सुख के लिए राज्यकोष से धन नहीं लेते थे। राष्ट्र की सांस्कृतिक पहचान पिछले दो हज़ार वर्षों में अनेक देशी और विदेशी राजाओं ने अपनी साम्राज्यवादी आकांक्षाओं की तुष्टि करने तथा इस देश को राजनीतिक द्दष्टि से पराधीन बनाने के प्रयोजन से अनेक संवतों को चलाया किंतु भारत राष्ट्र की सांस्कृतिक पहचान केवल विक्रमी संवत के साथ ही जुड़ी रही। अंग्रेज़ी शिक्षा-दीक्षा और पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव के कारण आज भले ही सर्वत्र ईस्वी संवत का बोलबाला हो और भारतीय तिथि-मासों की काल गणना से लोग अनभिज्ञ होते जा रहे हों परंतु वास्तविकता यह भी है कि देश के सांस्कृतिक पर्व-उत्सव तथा राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, गुरु नानक आदि महापुरुषों की जयंतियाँ आज भी भारतीय काल गणना के हिसाब से ही मनाई जाती हैं, ईस्वी संवत के अनुसार नहीं। विवाह-मुण्डन का शुभ मुहूर्त हो या श्राद्ध-तर्पण आदि सामाजिक कार्यों का अनुष्ठान, ये सब भारतीय पंचांग पद्धति के अनुसार ही किया जाता है, ईस्वी सन् की तिथियों के अनुसार नहीं।



साभार bhartdiscovery.org

Wednesday, April 6, 2016

वासंतिक नवरात्र इस बार आठ दिन के ही होंगे

शक्ति की अधिष्ठात्री भगवती की आराधना, उपासना का पर्व वासंतिक नवरात्र इस बार आठ दिनों के होंगे.
आगामी आठ अप्रैल से शुरू होकर 15 अप्रैल को रामनवमी पर हवन के साथ संपन्न होंगे. व्रत का पारन 16 अप्रैल को किया जाएगा.
ज्योतिषाचार्य अनुसार, इस बार पंचम तिथि की हानि होने से नवरात्र आठ दिनों के ही हैं. प्रतिपदा सात अप्रैल की शाम 4:52 बजे लग रही है जो आठ अप्रैल की दोपहर 2:26 बजे तक रहेगी. ऐसे में घटस्थापना और प्रथम गौरी दर्शन इसी दिन (आठ अप्रैल) होगा। दुर्गा अष्टमी व्रत 14 अप्रैल को रखा जाएगा.
रामनवमी 15 अप्रैल को मनाई जाएगी और नवरात्र का हवन भी इसी दिन किया जाएगा.
माता का आगमन शुक्रवार को डोली, तो गमन शनिवार को मुर्गा पर हो रहा है.
वैध्रति योग के कारण घट स्थापना का शुभ मुहूर्त दोपहर 11:53 बजे से 12:25 बजे तक अभिजीत नक्षत्र में है.
पूजन विधान :
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को प्रात: स्नानादि नित्य कर्म से निवृत होकर गंध, जल, अक्षत, पुष्प लेकर संकल्प करना चाहिए. सर्वप्रथम ब्रह्म का आह्वान कर आसन, पाद्य, अघ्र्य, आचमन, स्नान, वस्त्र, यज्ञोपवीत, गंध, अक्षत, पुष्प, धूप-दीप नैवेद्य, आचमन, तांबूल, निराजन, नमस्कार, पुष्पांजलि व प्रार्थना आदि उपचारों से पूजन करना चाहिए. घट स्थापनोपरांत तैलभ्यंग स्नान तथा नवरात्र व्रत का संकल्प कर गणपति व मातृका पूजन करना चाहिए.
 वर्ष में पड़ने वाले दो नवरात्रों में शारदीय नवरात्र नौ दुर्गा व वासंतिक नौ गौरी को समर्पित हैं. दोनों में ही व्रत, पूजन व दर्शन का विधान है.
 वासंतिक नवरात्र का प्रारंभ हिन्दू नववर्ष के प्रथम दिन चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से होता है. अत: इसे चैत्रीय नवरात्र भी कहा जाता है.


वासंतिक नवरात्र

वासंतिक नवरात्र में माँ दुर्गा के नौ रूप इस प्रकार हैं।
1– मुख निर्मालिका गौरी– वासंतिक नवरात्र के पहले दिन (प्रथमा) को मुखनिर्मालिका गौरी का दर्शन-पूजन किया जाता है। इनका मंदिर गाय घाट क्षेत्र में स्थित है। मान्यता है कि इनके दर्शन से वर्ष भर मंगल और कल्याण होता है।
2- ज्येष्ठा गौरी– वासंतिक नवरात्र के दूसरे दिन (द्वितीया) को ज्येष्ठा गौरी का भक्त दर्शन-पूजन करते हैं। इनका भव्य मंदिर कर्णघण्टा (सप्त सागर) क्षेत्र में स्थित है। इनके दर्शन से भक्तों का सर्व मंगल होता है।
3– सौभाग्य गौरी– वासंतिक नवरात्र के तीसरे दिन (तृतीया) को माँ दुर्गा के सौभाग्य गौरी रूप का दर्शन पूजन होता है। इनका मंदिर ज्ञानवापी परिसर के सत्यनारायण मंदिर में स्थित है। शास्त्रों में माँ के इस रूप के दर्शन-पूजन का विशेष महत्व दिया गया है। गृहस्थ आश्रम में महिलाओं के सुख-सौभाग्य की अधिष्ठात्री गौरी हैं। महिलाए माँ से पति के कल्याण की कामना करती हैं।
4– श्रृंगार गौरी– वासंतिक नवरात्र के चौथे दिन (चतुर्थी) को माँ श्रृंगार गौरी का पूजन अर्चन होता है। इनका मंदिर ज्ञानवापी परिसर में मस्जिद के पीछे हैं। मान्यता है कि इनके दर्शन से महिलाओं का श्रृंगार वर्ष भर बना रहता है।
5– विशालाक्षी गौरी– वासंतिक नवरात्र के पांचवे दिन (पंचमी) को भक्त माँ विशालाक्षी गौरी की पूजा करते हैं। इनका मंदिर मीर घाट के धर्मकूप क्षेत्र में स्थित है। इनकी आराधना करने से सारी मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं। माँ स्त्रियों को संतान प्रदान करती हैं।
 6– ललिता गौरी– वासंतिक नवरात्र के छठें दिन (षष्ठी) को ललिता गौरी की पूजा की जाती है। इनका मंदिर ललिता घाट में स्थित है। भक्त ललिता घाट पर स्नान करके माँ का दर्शन-पूजन करते हैं। मान्यता है कि इनके दर्शन से सभी प्रकार का कल्याण होता है। साथ ही सुख शांति की प्राप्ति होती है।
7– भवानी गौरी– वासंतिक नवरात्र के सातवें दिन (सप्तमी) को भवानी गौरी के दर्शन-पूजन का विधान है। माँ का मंदिर विश्वनाथ गली में स्थित माता अन्नपूर्णा मंदिर के निकट राम मंदिर में है। माँ सभी बाधा व आपदाओं को हरने वाली है।
8– मंगला गौरी – वासंतिक नवरात्र के आठवें दिन (अष्टमी) को माँ मंगलागौरी का दर्शन-पूजन होता है। इनका मंदिर बाला घाट स्थित बाला जी मंदिर के पास है। माँ भक्तों का हमेशा कल्याण करती हैं। इनके दर्शन-पूजन से कन्या विवाह की बाधाएँ दूर हो जाती हैं।
9– महालक्ष्मी गौरी– वासंतिक नवरात्र के नौवें दिन (नवमी) को महालक्ष्मी गौरी का दर्शन-पूजन होता है। इनका मंदिर लक्ष्मी कुण्ड का सुप्रसिद्ध लक्ष्मी मंदिर है। मान्यता है कि भूतों में देवी लक्ष्मी रूप में है। गृहस्थों के दर्शन-पूजन से धन सम्पत्ति प्राप्त होती है।


Friday, April 1, 2016

महामूर्ख सम्मेलन

धर्म नगरी काशी में बुधवार को डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद घाट पर मूर्ख दिवस के उपलक्ष्य में महामूर्ख सम्मेलन का आयोजन किया गया। इसमें देश के कोने—कोने से आए हास्य व्यंग कवियों ने अपनी प्रस्तुति के माध्यम से देश की वर्तमान स्थिति पर आईना दिखाया।