Saturday, September 13, 2014

जीवित्पुत्रिका व्रत



आश्विन महीने के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को जीवित्पुत्रिका अथवा जीतिया का व्रत सम्पन्न किया जाता है। इस व्रत को मुख्यतः वही स्त्रियाँ करती हैं, जिनके पुत्र होते हैं। यह व्रत पुत्र के दीर्घायु तथा आरोग्य के लिए किया जाता है। उत्तर प्रदेश, बिहार,झारखंड, मध्यप्रदेश ,आदि क्षेत्रों में स्त्रियों के बीच यह बहुत हीं लोकप्रिय व्रत है। यह एक ऐसा व्रत है जिसमें सूर्य भगवान की पूजा के साथ-साथ ही अपने पुर्वजों की भी उपासना की जाती है।
इस व्रत की एक बहुत ही प्रचलित लोक कथा है। जिसे व्रत करनेवाली स्त्रियां बड़े प्रेम से सुनती हैं। 
किसी जंगल में एक सेमर के वृक्ष पर एक चील रहती थी और उसी से कुछ दूर पर एक झाड़ी से भरी खंदक में एक सिआरिन की माँद थी। दोनों में बहुत पटती थी। चील जो कुछ शिकार करती उसमें से सिआरिन को भी हिस्सा देती और सिआरिन भी चील के उपकारों का यदा-कदा बदला चुकाया करती। वह अपने भोजन में से कुछ न कुछ बचाकर चील के लिए अवश्य लाती। इस प्रकार दोनों के दिन बड़े सुख से कट रहे थे। 
एक बार उसी जंगल में पास के गाँव की स्त्रियां जिउतिया का व्रत कर रही थीं। चील ने उसे देखा। उसे अपने पूर्वजन्म की याद थी उसने भी यह व्रत करने की प्रतिज्ञा की। दोनों ने बड़ी निष्ठा और श्रद्धा से व्रत को पूरा किया। दोनों दिन भर निर्जल और निराहार रहकर सभी प्राणियों की कल्याण-कामना करती रहीं। किन्तु जब रात्रि आई तो सिआरिन को भूख और प्यास से बेचैनी होने लगी। उसे एक क्षण काटना भी कठिन हो गया। वह चुपचाप जंगल की ओर गई और वहाँ शिकारी जानवरों के खाने से बचे माँस और हड्डियों को लाकर धीरे-धीरे खाने लगी। चील को पहले से कुछ भी मालूम नहीं था। किन्तु जब सिआरिन ने हड्डी चबाते हुए कुछ कड़-कड़ की आवाज की तो चील ने पूछा- बहिन तुम क्या खा रही हो ?
सिआरिन बोली- बहिन क्या करूँ ! भूख के मारे मेरी हड्डियाँ चड़मड़ा रही हैं ऐसे व्रत में भला खाना-पीना कहाँ हो सकता है।
किन्तु चील इतनी बेवकूफ नहीं थी। वह सब जान गई थी। उसने कहा- बहिन तुम झूठ क्यों बोल रही हो। हड्डी चबा रही हो और बताती हो कि भूख के मारे हड्डी चड़मड़ा रही है। तुम्हे तो पहले ही सोच लेना चाहिए था कि व्रत तुमसे निभेगा या नहीं।
सिआरिन लज्जित होकर दूर चली गई। उसे भूख और प्यास के कारण इतनी बेचैनी हो रही थी कि दूर जाकर उसने भर पेट खाकर खूब पानी पिया। किन्तु चील रात भर वैसे ही पड़ी रही। परिणाम भी उसी तरह हुआ। चील को जितने बच्चे हुए सभी स्वस्थ, सुन्दर और सदाचारी किन्तु सिआरिन के जितने बच्चे हुए वे थोड़े ही दिनों बाद मरते गए।

इसलिए स्त्रियां व्रतकथा सुनने के बाद यह कामना करती हैं कि चील की तरह सब कोई हों और सिआरिन की तरह कोई नहीं।

No comments: