Wednesday, September 17, 2014

विश्वकर्मा पूजा


वास्तुकला के अद्वितीय आचार्य भगवान विश्वकर्मा की जयंती देशभर में प्रत्येक वर्ष 17 सितंबर को मनाया जाता है. लेकिन कुछ भागों में इसे दीपावली के दूसरे दिन भी मनाया जाता है.
हमारे देश में विश्वकर्मा जयंती बडे़ धूमधाम से मनाई जाती है. इस दिन देश के विभिन्न राज्यों में, खासकर औद्योगिक क्षेत्रों, फैक्ट्रियों, लोहे की दुकान, वाहन शोरूम, सर्विस सेंटर आदि में पूजा होती है. इस मौके पर मशीनों, औजारों की सफाई एवं रंगरोगन किया जाता है. इस दिन ज्यादातर कल-कारखाने बंद रहते हैं और लोग हर्षोल्लास के साथ भगवान विश्वकर्मा की पूजा करते है.
उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, दिल्ली आदि राज्यों में भगवान विश्वकर्मा की भव्य मूर्ति स्थापित की जाती है और उनकी आराधना की जाती है.

क्या है मान्यता
कहा जाता है कि प्राचीन काल में जितनी राजधानियां थी, प्राय: सभी विश्वकर्मा की ही बनाई कही जाती हैं. यहां तक कि सतयुग का 'स्वर्ग लोक', त्रेता युग की 'लंका', द्वापर की 'द्वारिका' और कलयुग का 'हस्तिनापुर' आदि विश्वकर्मा द्वारा ही रचित हैं. 'सुदामापुरी' की तत्क्षण रचना के बारे में भी यह कहा जाता है कि उसके निर्माता विश्वकर्मा ही थे. इससे यह आशय लगाया जाता है कि धन-धान्य और सुख-समृद्धि की अभिलाषा रखने वाले पुरुषों को बाबा विश्वकर्मा की पूजा करना आवश्यक और मंगलदायी है.

कैसे हुई भगवान विश्वकर्मा की उत्पत्ति 
एक कथा के अनुसार सृष्टि के प्रारंभ में सर्वप्रथम 'नारायण' अर्थात साक्षात विष्णु भगवान सागर में शेषशय्या पर प्रकट हुए. उनके नाभि-कमल से चर्तुमुख ब्रह्मा दृष्टिगोचर हो रहे थे. ब्रह्मा के पुत्र 'धर्म' तथा धर्म के पुत्र 'वास्तुदेव' हुए. कहा जाता है कि धर्म की 'वस्तु' नामक स्त्री से उत्पन्न 'वास्तु' सातवें पुत्र थे, जो शिल्पशास्त्र के आदि प्रवर्तक थे. उन्हीं वास्तुदेव की 'अंगिरसी' नामक पत्नी से विश्वकर्मा उत्पन्न हुए. पिता की भांति विश्वकर्मा भी वास्तुकला के अद्वितीय आचार्य बने.

अनेक रूप हैं भगवान विश्वकर्मा के
भगवान विश्वकर्मा के अनेक रूप बताए जाते हैं- दो बाहु वाले, चार बाहु एवं दस बाहु वाले तथा एक मुख, चार मुख एवं पंचमुख वाले. उनके मनु, मय, त्वष्टा, शिल्पी एवं दैवज्ञ नामक पांच पुत्र हैं. यह भी मान्यता है कि ये पांचों वास्तु शिल्प की अलग-अलग विधाओं में पारंगत थे और उन्होंने कई वस्तुओं का आविष्कार किया. इस प्रसंग में मनु को लोहे से, तो मय को लकड़ी, त्वष्टा को कांसे एवं तांबे, शिल्पी ईंट और दैवज्ञ को सोने-चांदी से जोड़ा जाता है. विश्वकर्मा पर प्रचलित कथा
भगवान विश्वकर्मा की महत्ता स्थापित करने वाली एक कथा है. इसके अनुसार वाराणसी में धार्मिक व्यवहार से चलने वाला एक रथकार अपनी पत्नी के साथ रहता था. अपने कार्य में निपुण था, परंतु विभिन्न जगहों पर घूम-घूम कर प्रयत्न करने पर भी भोजन से अधिक धन नहीं प्राप्त कर पाता था. पति की तरह पत्नी भी पुत्र न होने के कारण चिंतित रहती थी. पुत्र प्राप्ति के लिए वे साधु-संतों के यहां जाते थे, लेकिन यह इच्छा उसकी पूरी न हो सकी. तब एक पड़ोसी ब्राह्मण ने रथकार की पत्नी से कहा कि तुम भगवान विश्वकर्मा की शरण में जाओ, तुम्हारी इच्छा पूरी होगी और अमावस्या तिथि को व्रत कर भगवान विश्वकर्मा महात्म्य को सुनो. इसके बाद रथकार एवं उसकी पत्नी ने अमावस्या को भगवान विश्वकर्मा की पूजा की, जिससे उसे धन-धान्य और पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई और वे सुखी जीवन व्यतीत करने लगे. उत्तर भारत में इस पूजा का काफी महत्व है.

जानें क्या है पूजन विधि
भगवान विश्वकर्मा की पूजा और यज्ञ विशेष विधि-विधान से होता है. इसकी विधि यह है कि यज्ञकर्ता पत्नी सहित पूजा स्थान में बैठे. इसके बाद विष्णु भगवान का ध्यान करे. तत्पश्चात् हाथ में पुष्प, अक्षत लेकर मंत्र पढ़े और चारों ओर अक्षत छिड़के. अपने हाथ में रक्षासूत्र बांधे एवं पत्नी को भी बांधे. पुष्प जलपात्र में छोड़े. इसके बाद हृदय में भगवान विश्वकर्मा का ध्यान करें. दीप जलायें, जल के साथ पुष्प एवं सुपारी लेकर संकल्प करें. शुद्ध भूमि पर अष्टदल कमल बनाए. उस पर जल डालें. इसके बाद पंचपल्लव, सप्त मृन्तिका, सुपारी, दक्षिणा कलश में डालकर कपड़े से कलश की तरफ अक्षत चढ़ाएं. चावल से भरा पात्र समर्पित कर विश्वकर्मा बाबा की मूर्ति स्थापित करें और वरुण देव का आह्वान करें. पुष्प चढ़ाकर कहना चाहिए- ‘हे विश्वकर्माजी, इस मूर्ति में विराजिए और मेरी पूजा स्वीकार कीजिए’. इस प्रकार पूजन के बाद विविध प्रकार के औजारों और यंत्रों आदि की पूजा कर हवन यज्ञ करें.

वेद, उपनिषदों में है भगवान विश्वकर्मा के पूजन की गाथा
1. हम अपने प्राचीन ग्रंथो उपनिषद एवं पुराण आदि का अवलोकन करें तो पायेगें कि आदि काल से ही विश्वकर्मा शिल्पी अपने विशिष्ट ज्ञान एवं विज्ञान के कारण ही न मात्र मानवों अपितु देवगणों द्वारा भी पूजित और वंदित है.
2. माना जाता है कि पुष्पक विमान का निर्माण तथा सभी देवों के भवन और उनके दैनिक उपयोग में होने वाली वस्तुएं भी इनके द्वारा ही बनाया गया है. कर्ण का कुण्डल, विष्णु भगवान का सुदर्शन चक्र, शंकर भगवान का त्रिशूल और यमराज का कालदण्ड इत्यादि वस्तुओं का निर्माण भगवान विश्वकर्मा ने ही किया है.
3. हमारे धर्मशास्त्रों और ग्रथों में विश्वकर्मा के पांच स्वरुपों और अवतारों का वर्णन है. विराट विश्वकर्मा, धर्मवंशी विश्वकर्मा, अंगिरावंशी विश्वकर्मा, सुधन्वा विश्वकर्म और भृंगुवंशी विश्वकर्मा.
4. भगवान विश्वकर्मा के सबसे बडे पुत्र मनु ऋषि थे. इनका विवाह अंगिरा ऋषि की कन्या कंचना के साथ हुआ था. इन्होंने मानव सृष्टि का निर्माण किया है. इनके कुल में अग्निगर्भ, सर्वतोमुख, ब्रम्ह आदि ऋषि उत्पन्न हुये है.
5. विश्वकर्मा वैदिक देवता के रूप में मान्य हैं, किंतु उनका पौराणिक स्वरूप अलग प्रतीत होता है. आरंभिक काल से ही विश्वकर्मा के प्रति सम्मान का भाव रहा है. उनको गृहस्थ जैसी संस्था के लिए आवश्यक सुविधाओं का निर्माता और प्रवर्तक माना गया है. वह सृष्टि के प्रथम सूत्रधार कहे गए हैं.
6. विष्णुपुराण के पहले अंश में विश्वकर्मा को देवताओं का देव-बढ़ई कहा गया है तथा शिल्पावतार के रूप में सम्मान योग्य बताया गया है. यही मान्यता अनेक पुराणों में आई है, जबकि शिल्प के ग्रंथों में वह सृष्टिकर्ता भी कहे गए हैं. स्कंदपुराण में उन्हें देवायतनों का सृष्टा कहा गया है. कहा जाता है कि वह शिल्प के इतने ज्ञाता थे कि जल पर चल सकने योग्य खड़ाऊ तैयार करने में समर्थ थे.
7. विश्व के सबसे पहले तकनीकी ग्रंथ विश्वकर्मीय ग्रंथ ही माने गए हैं. विश्वकर्मीयम ग्रंथ इनमें बहुत प्राचीन माना गया है, जिसमें न केवल वास्तुविद्या बल्कि रथादि वाहन और रत्नों पर विमर्श है. ‘विश्वकर्माप्रकाश’ विश्वकर्मा के मतों का जीवंत ग्रंथ है. विश्वकर्माप्रकाश को वास्तुतंत्र भी कहा जाता है. इसमें मानव और देववास्तु विद्या को गणित के कई सूत्रों के साथ बताया गया है, ये सब प्रामाणिक और प्रासंगिक हैं.

Vishwakarma Puja


Vishwakarma is known as the divine Engineer since the Puranic age. As a mark of reverence he is not only worshiped by the engineering community but also by all other professionals. This festival is celebrated in the month of September. On this day all the workers in the workshops and offices worship their tools and instruments in front of Lord Vishwakarma, which are generally used in their profession.
This is the puja of Lord Vishwakarma, the main architect of the universe who had fabricated the universe as per the direction of Brahma, the lord of creation.
Vishwakarma Puja is celebrated by all industrial houses, artists, craftsman and weavers. The festival is observed on the Kanya Sankranti Day (September) which follows the Ganesh Puja.

Vishwakarma Puja Legends
In Hindu religious texts, he is known as 'Devashilpi' or 'The Architect of Gods'. His mother’s name was Yogasiddha and sister was known as Brihaspati. His father was called Prabhas, the eighth hermit of the legendary Astam Basu. According to mythology, it is Lord Vishwakarma who not only made the universe but also the earth and heaven. It is said that Vishwakarma also created the weapons used in mythological times like the Vajra made from the bones of Dadhichi sage used by Lord Indra. Lord Vishwakarma is considered to be the best worker, the symbol of quality and excellence in craftsmanship. Mythology describes some of Vishwakarma’s creations in vivid details. They include the mythical town of Dwarka, the capital of Lord Krishna. It is also aid that Vishwakarma built the town of Hastinapur, the capital of Pandavas and Kauravas. Vishwakarma also built the town of Indraprastha for the Pandavas. Most important of all creations is Vishwakarma’s "Sone ki Lanka" where demon king Ravana lived and ruled. Lord Vishwakarma is the divine architect of the whole universe. He has four hands, carrying a water-pot, a book, a noose and craftsman's tools.  

Celebrations
This festival of Vishwakarma Puja is celebrated with full enthusiasm. It is observed mostly in workshops, offices and factories in the industrial areas. Shop floors in various factories wear a festive look on this occasion. The images and idols of Lord Vishwakarma and his faithful elephant are inaugurated and worshipped in beautifully decorated pandals. The industrial towns in urban area come alive with decorative pandals and loudspeakers. Most factories around the area declare the annual bonus on this day. The puja pandals are usually made within the factory premises. On this day family members of the employees come together to create a bright moment in an otherwise dull and mundane workshop.

The rituals are followed by the distribution of "prasad". The yearly feast is cooked and the workmen and the owners take their lunch together. People are also seen flying multicolor kites. The sky fills up with all shades and colours. Chadials, Mombattis, Chowrangees, Petkattas, Mayurpankhis, Baggas fly high to establish the skills of the fliers. The sky becomes a war zone with the discarded kites dropping every now and then with the cry of "Bho-Kattaaa" from the distant roofs or parks.

Tuesday, September 16, 2014

सोरहिया मेला


काशी में माँ लक्ष्मी के मंदिर में भाद्र शुक्ल पक्ष अष्ठमी से 16 दिन का मेला लगता है जो सोरहिया मेला के नाम से प्रसिद्ध है। यह लक्सा थाना से सौ मीटर की दूरी पर औरंगाबाद मार्ग पर स्थित है। इस कुण्ड पर लगने वाले मेले में प्रतिदिन हजारों लोग दर्शन-पूजन के लिये एकत्र होते हैं। लक्ष्मी कुण्ड के बारे में प्राचीन मान्यता रही है कि ये कुण्ड पहले लक्ष्मण कुण्ड के नाम जाना जाता था। इसके पास में ही रामकुण्ड और सीताकुण्ड भी था। लेकिन धीरे-धीरे सीता कुण्ड विलुप्त हो गया। किन्तु रामकुण्ड का अस्तित्व आज भी बरकरार है। लक्ष्मण कुण्ड का स्वरूप समय के अनुसार बदलता गया बाद में यह लक्ष्मी कुण्ड के नाम से जाना जाने लगा। लक्ष्मी जी के मंदिर में भाद्र पक्ष में सोलह दिनों का पर्व होने लगा।
भक्ति दायिनी काशी की महिमा केवल मोक्ष की दृष्टि से ही नहीं अपितु जल तीर्थो के कारण भी है। इसका एक नाम अष्ट कूप व नौ बावलियाँ वाला नगर भी है। काशी के जल तीर्थ भी गंगा के समान ही पूज्य हैं। सोलह दिनों तक चलने वाले मेले के आखिरी दिन महिलायें जीवित्पुत्रिका का व्रत रखती हैं और इसी कुण्ड पर अपने निर्जला व्रत को तोड़ती हैं। इस दृष्टि से यह कुण्ड अत्यन्त पवित्र रूप से पूजित है। जीवित्पुत्रिका व्रत पर लक्ष्मी कुण्ड के पूजन-अर्चन की प्रथा अति प्राचीन काल से चली आ रही है।

Saturday, September 13, 2014

जीवित्पुत्रिका व्रत



आश्विन महीने के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को जीवित्पुत्रिका अथवा जीतिया का व्रत सम्पन्न किया जाता है। इस व्रत को मुख्यतः वही स्त्रियाँ करती हैं, जिनके पुत्र होते हैं। यह व्रत पुत्र के दीर्घायु तथा आरोग्य के लिए किया जाता है। उत्तर प्रदेश, बिहार,झारखंड, मध्यप्रदेश ,आदि क्षेत्रों में स्त्रियों के बीच यह बहुत हीं लोकप्रिय व्रत है। यह एक ऐसा व्रत है जिसमें सूर्य भगवान की पूजा के साथ-साथ ही अपने पुर्वजों की भी उपासना की जाती है।
इस व्रत की एक बहुत ही प्रचलित लोक कथा है। जिसे व्रत करनेवाली स्त्रियां बड़े प्रेम से सुनती हैं। 
किसी जंगल में एक सेमर के वृक्ष पर एक चील रहती थी और उसी से कुछ दूर पर एक झाड़ी से भरी खंदक में एक सिआरिन की माँद थी। दोनों में बहुत पटती थी। चील जो कुछ शिकार करती उसमें से सिआरिन को भी हिस्सा देती और सिआरिन भी चील के उपकारों का यदा-कदा बदला चुकाया करती। वह अपने भोजन में से कुछ न कुछ बचाकर चील के लिए अवश्य लाती। इस प्रकार दोनों के दिन बड़े सुख से कट रहे थे। 
एक बार उसी जंगल में पास के गाँव की स्त्रियां जिउतिया का व्रत कर रही थीं। चील ने उसे देखा। उसे अपने पूर्वजन्म की याद थी उसने भी यह व्रत करने की प्रतिज्ञा की। दोनों ने बड़ी निष्ठा और श्रद्धा से व्रत को पूरा किया। दोनों दिन भर निर्जल और निराहार रहकर सभी प्राणियों की कल्याण-कामना करती रहीं। किन्तु जब रात्रि आई तो सिआरिन को भूख और प्यास से बेचैनी होने लगी। उसे एक क्षण काटना भी कठिन हो गया। वह चुपचाप जंगल की ओर गई और वहाँ शिकारी जानवरों के खाने से बचे माँस और हड्डियों को लाकर धीरे-धीरे खाने लगी। चील को पहले से कुछ भी मालूम नहीं था। किन्तु जब सिआरिन ने हड्डी चबाते हुए कुछ कड़-कड़ की आवाज की तो चील ने पूछा- बहिन तुम क्या खा रही हो ?
सिआरिन बोली- बहिन क्या करूँ ! भूख के मारे मेरी हड्डियाँ चड़मड़ा रही हैं ऐसे व्रत में भला खाना-पीना कहाँ हो सकता है।
किन्तु चील इतनी बेवकूफ नहीं थी। वह सब जान गई थी। उसने कहा- बहिन तुम झूठ क्यों बोल रही हो। हड्डी चबा रही हो और बताती हो कि भूख के मारे हड्डी चड़मड़ा रही है। तुम्हे तो पहले ही सोच लेना चाहिए था कि व्रत तुमसे निभेगा या नहीं।
सिआरिन लज्जित होकर दूर चली गई। उसे भूख और प्यास के कारण इतनी बेचैनी हो रही थी कि दूर जाकर उसने भर पेट खाकर खूब पानी पिया। किन्तु चील रात भर वैसे ही पड़ी रही। परिणाम भी उसी तरह हुआ। चील को जितने बच्चे हुए सभी स्वस्थ, सुन्दर और सदाचारी किन्तु सिआरिन के जितने बच्चे हुए वे थोड़े ही दिनों बाद मरते गए।

इसलिए स्त्रियां व्रतकथा सुनने के बाद यह कामना करती हैं कि चील की तरह सब कोई हों और सिआरिन की तरह कोई नहीं।

Tuesday, September 9, 2014

पितृ पक्ष


श्राद्ध का अर्थ है, श्रद्धा, आस्था व प्रेम के साथ कुछ भी भेंट किया जाय। पितृ पक्ष पूर्वजों की मृत्यु तिथि के दिन जल, जौ, कुशा, अक्षत, दूध, पुष्प आदि से उनका श्राद्ध सम्पन्न किया जाता है। पितृ पक्ष में श्राद्ध करने से पितृ दोष से मुक्ति मिलती है तथा पूर्वज प्रसन्न होकर पूरे वर्ष आपके दीर्घायु तथा प्रगति की कामना करते है।
एक मास में दो पक्ष होते है। कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष, एक पक्ष 15 दिन का होता है। आश्विन मास के कृष्ण पक्ष के पन्द्रह दिन पितृ पक्ष के नाम से प्रचलित है। इन 15 दिनों में लोग अपने पूर्वजों/पितरों को जल देंते है तथा उनकी मृत्यु तिथि पर श्राद्ध करते है। पितरों का ऋण श्राद्धों के द्वारा उतारा जाता है। पितृ पक्ष श्राद्धों के लिए निश्चित पन्द्रह तिथियों का कार्यकाल है। वर्ष के किसी महीना या तिथि में स्वर्गवासी हुए पूर्वजों के लिए कृष्ण पक्ष की उसी तिथि को श्राद्ध किया जाता है।
विशेष मुहूर्त- शास्त्रों के अनुसार गृहस्थ को अपने पूर्वजों की निधन तिथि के दिन तृतीय प्रहर (अपरान्हकाल) में श्राद्ध करना चाहिए। इसलिए पितृकर्म में अपरान्हव्यापनी तिथि ग्रहण करनी चाहिए। इस वर्ष पितृ पक्ष 30 सितम्बर से प्रारम्भ होकर 15 सितम्बर तक रहेंगे। तर्पण-प्रत्येक दिन मध्यान्ह 12 बजे से 1:30 मि0 के मध्य तर्पण करना उत्तम रहेगा।
निर्णय सिन्धु में- 12 प्रकार के श्राद्धों का उल्लेख मिलता है।
1- नित्य श्राद्धः कोई भी व्यक्ति अन्न, जल, दूध, कुशा, पुष्प व फल से प्रतिदिन श्राद्ध करके अपने पितरों को प्रसन्न कर सकता है।
2- नैमित्तक श्राद्ध- यह श्राद्ध विशेष अवसर पर किया जाता है। जैसे- पिता आदि की मृत्यु तिथि के दिन इसे एकोदिष्ट कहा जाता है। इसमें विश्वदेवा की पूजा नहीं की जाती है, केवल मात्र एक पिण्डदान दिया जाता है।
3- काम्य श्राद्धः किसी कामना विशेष के लिए यह श्राद्ध किया जाता है। जैसे- पुत्र की प्राप्ति आदि।
4- वृद्धि श्राद्धः यह श्राद्ध सौभाग्य वृद्धि के लिए किया जाता है।
5- सपिंडन श्राद्ध- मृत व्यक्ति के 12 वें दिन पितरों से मिलने के लिए किया जाता है। इसे स्त्रियां भी कर सकती है।
6- पार्वण श्राद्धः पिता, दादा, परदादा, सपत्नीक और दादी, परदादी, व सपत्नीक के निमित्त किया जाता है। इसमें दो विश्वदेवा की पूजा होती है।
7- गोष्ठी श्राद्धः यह परिवार के सभी लोगों के एकत्र होने के समय किया जाता है।
8- कर्मागं श्राद्धः यह श्राद्ध किसी संस्कार के अवसर पर किया जाता है।
9- शुद्धयर्थ श्राद्धः यह श्राद्ध परिवार की शुद्धता के लिए किया जाता है।
10- तीर्थ श्राद्धः यह श्राद्ध तीर्थ में जाने पर किया जाता है।
11- यात्रार्थ श्राद्धः यह श्राद्ध यात्रा की सफलता के लिए किया जाता है।
12- पुष्टयर्थ श्राद्धः शरीर के स्वास्थ्य व सुख समृद्धि के लिए त्रयोदशी तिथि, मघा नक्षत्र, वर्षा ऋतु व आश्विन मास का कृष्ण पक्ष इस श्राद्ध के लिए उत्तम माना जाता है।
पितृ पक्ष के विशेष दिन-
1- प्रतिपदा तिथि को नाना का श्राद्ध किया जाता है।
2- चतुर्थी या पंचमी तिथि में उसका श्राद्ध किया जाता है जिसकी मृत्यु गतवर्ष हुयी है।
3- अपने जीवन काल में मरने वाली स्त्री का श्राद्ध नवमी तिथि को किया जाता है।
4- युद्ध, दुर्घटना या आत्महत्या आदि में मृत व्यक्तियों का श्राद्ध चतुर्दशी तिथि में किया जाता है।
5- आमावस्या तिथि को सभी पितरों का श्राद्ध किया जा सकता है।

Friday, September 5, 2014

अनंत चतुर्दशी की पौराणिक कथा

एक बार महाराज युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ किया। उस समय यज्ञ मंडप का निर्माण सुंदर तो था ही, अद्भुत भी था वह यज्ञ मंडप इतना मनोरम था कि जल व थल की भिन्नता प्रतीत ही नहीं होती थी। जल में स्थल तथा स्थल में जल की भांति प्रतीत होती थी। बहुत सावधानी करने पर भी बहुत से व्यक्ति उस अद्भुत मंडप में धोखा खा चुके थे।
एक बार कहीं से टहलते-टहलते दुर्योधन भी उस यज्ञ-मंडप में आ गया और एक तालाब को स्थल समझ उसमें गिर गया। द्रौपदी ने यह देखकर 'अंधों की संतान अंधी' कह कर उनका उपहास किया। इससे दुर्योधन चिढ़ गया।
यह बात उसके हृदय में बाण समान लगी। उसके मन में द्वेष उत्पन्न हो गया और उसने पांडवों से बदला लेने की ठान ली। उसके मस्तिष्क में उस अपमान का बदला लेने के लिए विचार उपजने लगे। उसने बदला लेने के लिए पांडवों को द्यूत-क्रीड़ा में हरा कर उस अपमान का बदला लेने की सोची। उसने पांडवों को जुए में पराजित कर दिया।
पराजित होने पर प्रतिज्ञानुसार पांडवों को बारह वर्ष के लिए वनवास भोगना पड़ा। वन में रहते हुए पांडव अनेक कष्ट सहते रहे। एक दिन भगवान कृष्ण जब मिलने आए, तब युधिष्ठिर ने उनसे अपना दुख कहा और दुख दूर करने का उपाय पूछा। तब श्रीकृष्ण ने कहा- 'हे युधिष्ठिर! तुम विधिपूर्वक अनंत भगवान का व्रत करो, इससे तुम्हारा सारा संकट दूर हो जाएगा और तुम्हारा खोया राज्य पुन: प्राप्त हो जाएगा।'
इस संदर्भ में श्रीकृष्ण ने उन्हें एक कथा सुनाई -
प्राचीन काल में सुमंत नाम का एक नेक तपस्वी ब्राह्मण था। उसकी पत्नी का नाम दीक्षा था। उसकी एक परम सुंदरी धर्मपरायण तथा ज्योतिर्मयी कन्या थी। जिसका नाम सुशीला था। सुशीला जब बड़ी हुई तो उसकी माता दीक्षा की मृत्यु हो गई।
पत्नी के मरने के बाद सुमंत ने कर्कशा नामक स्त्री से दूसरा विवाह कर लिया। सुशीला का विवाह ब्राह्मण सुमंत ने कौंडिन्य ऋषि के साथ कर दिया। विदाई में कुछ देने की बात पर कर्कशा ने दामाद को कुछ ईंटें और पत्थरों के टुकड़े बांध कर दे दिए।
कौंडिन्य ऋषि दुखी हो अपनी पत्नी को लेकर अपने आश्रम की ओर चल दिए। परंतु रास्ते में ही रात हो गई। वे नदी तट पर संध्या करने लगे। सुशीला ने देखा- वहां पर बहुत-सी स्त्रियां सुंदर वस्त्र धारण कर किसी देवता की पूजा पर रही थीं। सुशीला के पूछने पर उन्होंने विधिपूर्वक अनंत व्रत की महत्ता बताई। सुशीला ने वहीं उस व्रत का अनुष्ठान किया और चौदह गांठों वाला डोरा हाथ में बांध कर ऋषि कौंडिन्य के पास आ गई।
कौंडिन्य ने सुशीला से डोरे के बारे में पूछा तो उसने सारी बात बता दी। उन्होंने डोरे को तोड़ कर अग्नि में डाल दिया, इससे भगवान अनंत जी का अपमान हुआ। परिणामत: ऋषि कौंडिन्य दुखी रहने लगे। उनकी सारी सम्पत्ति नष्ट हो गई। इस दरिद्रता का उन्होंने अपनी पत्नी से कारण पूछा तो सुशीला ने अनंत भगवान का डोरा जलाने की बात कहीं।
पश्चाताप करते हुए ऋषि कौंडिन्य अनंत डोरे की प्राप्ति के लिए वन में चले गए। वन में कई दिनों तक भटकते-भटकते निराश होकर एक दिन भूमि पर गिर पड़े। तब अनंत भगवान प्रकट होकर बोले- 'हे कौंडिन्य! तुमने मेरा तिरस्कार किया था, उसी से तुम्हें इतना कष्ट भोगना पड़ा। तुम दुखी हुए। अब तुमने पश्चाताप किया है। मैं तुमसे प्रसन्न हूं। अब तुम घर जाकर विधिपूर्वक अनंत व्रत करो। चौदह वर्षपर्यंत व्रत करने से तुम्हारा दुख दूर हो जाएगा। तुम धन-धान्य से संपन्न हो जाओगे। कौंडिन्य ने वैसा ही किया और उन्हें सारे क्लेशों से मुक्ति मिल गई।'
श्रीकृष्ण की आज्ञा से युधिष्ठिर ने भी अनंत भगवान का व्रत किया जिसके प्रभाव से पांडव महाभारत के युद्ध में विजयी हुए तथा चिरकाल तक राज्य करते रहे।

Monday, September 1, 2014

Pindra Halt Railway Station

A small railway station connecting Pindta Halt to Lucknow and Varanasi is located in Pindra. Varanasi Junction is the major railway station, which is situated 25 Kms away from the place. Varanasi Junction railway station is linked to all major cities of the country via trains.


Lolark Chhath

Lolark Kund is one of the oldest sacred sites of Varanasi. The word Lolark means “trembling Sun”, it denotes the wavering image of Lord Surya, the Sun God, in the water of the pond. A flight of steep steps have been built for approaching the pond.
Thousands took dip in Lolark Kund on Sunday the 31st August 2014 (the sixth day of second fortnight of Bhadrapada). Devotees and faithfuls thronged at Lolark Kund in Varanasi.
Lolark Chhath festival relates to the issueless women. Those women who could not beget offspring take dip in the pond on this occasion with a fruit or vegetable. Childless couples leave their wet clothes and a fruit or vegetable in the well. They vow not to eat that particular fruit or vegetable lifelong.
People strongly believe that they will be blessed after bathing in this pond. Folks celebrate this Chhat festival with great devotion and reverence. Faithfuls visit the shrine dedicated to God Surya (Sun) nearby. As thousands come to bathe in the holy waters of the Lolark kund at sun rise, a make shift colourful bazaar mushrooms around the kund.
Ladies cook ‘Puri’ and sweetmeat (‘Haluwa’) and offer to Sun god.
Many come to Lolark Kund after the fulfillment of their wishes and perform Mundan Sanskar (head-shaving sacrament) near the pond. The women in their colourful attire present a keleidospic atmosphere.