Saturday, July 30, 2016
Wednesday, July 27, 2016
कर्दमेश्वर महादेव मंदिर
अर्द्धचंद्राकार रूप में प्रवाहित उत्तरवाहिनी मां गंगा के किनारे स्थित विद्या और संस्कृति की राजधानी काशी नगरी अपनी धार्मिक और पौराणिक स्थानों की विशाल संख्या और उनमें व्याप्त विविधता के लिए विश्वविख्यात है। काशी की महिमा का उल्लेख अनेक पुराणों में मिलता है। काशी की धार्मिक परंपराओें में यात्रा तथा यात्रा के दौरान काशी खंड में स्थित देवालयों में दर्शन-पूजन का विशेष महत्त्व है। इस क्रम में पंचक्रोशी यात्रा में पहले विश्राम के रूप में प्रसिद्ध है कर्दमेश्वर महादेव मंदिर। काशी हिंदू विश्वविद्यालय से करीब 5 किलोमीटर की दूरी पर दक्षिण-पश्चिमी दिशा में यह मंदिर स्थित है। एक बड़े चतुर्भुजाकार तालाब के पश्चिमी ओर स्थित यह मंदिर उड़ीसा के विकसित मंदिरों सा प्रतीत होता है। साथ ही मूर्तिकला की संपन्नता लिए यह चंदेल इतिहास का प्रतीक है। कर्दमेश्वर मंदिर का उल्लेख पंचक्रोशी महात्म्य में कर्दमेश के तौर पर है। यहीं पर पंचक्रोशी यात्री अपना पहला पड़ाव या विश्राम करते हैं। एक कथा कर्दमेश्वर से अवश्य जुड़ी है। इस कथा के अनुसार एक बार जब प्रजापति कर्दम शिव पूजा में ध्यानमग्न थे। उनका पुत्र कुछ मित्रों के साथ तालाब में नहाने गया स्नान के दौरान उसे एक घडि़याल ने खिंच लिया। डरे हुए मित्रों ने यह बात कर्दम को बताई। कर्दम बिना बाधित हुए ध्यानमग्न रहे, परंतु ध्यानावस्था में ही वह पूरे विश्व के घटनाक्रम को देख सकते थे। उन्होंने देखा कि उनका पुत्र एक जल देवी द्वारा बचाकर समुद्र को सौंप दिया गया है। जिसे समुद्र में गहनों से सजाकर शिव के गण को सौंप दिया। शिवगण ने शिव आज्ञा से बालक को उसके घर पहुंचाया। ध्यानावस्था से उठने पर कर्दम ने अपने पुत्र को सम्मुख पाया कर्दम के यही पुत्र कर्दमी के नाम से जाने गए तथा पिता की आज्ञा से वाराणसी चले आए। कर्दमी ने एक शिवलिंग स्थापित कर पांच हजार वर्षों तक अत्यंत कठोर तप किया। शिव ने प्रसन्न होकर उन्हें प्रत्येक स्रोत का स्वामी घोषित किया। एक अन्य वरदान में शिव ने कहा कि मणिकर्णेश के दक्षिण-पश्चिम स्थित जो लिंग है वह वरूणेश के नाम से जाना जाएगा। काशीखंड तथा तीर्थ विवेचन खंड यह दर्शाते है कि वरूणेश लिंग गड़वाल काल का है। जो बाद में कर्दमेश्वर नाम से जाना गया। कर्दमेश्वर मंदिर पंचरथ प्रकार का मंदिर है इसकी तल छंद योजना में एक चौकोर गर्भगृह अंतराल तथा एक चतुर्भुजाकार अर्द्धमंडप है। मंदिर का निचला भाग अधिष्ठान, मध्यभित्ति क्षेत्र मांडोवर भाग है जिस पर अलंकृत तांखे बने हुए हैं। ऊपरी भाग में नक्काशीदार कंगूरा वरांदिका व आमलक सहित सजावटी शिखर है। मंदिर का पूर्वाभिमुख मुख्य द्वार तीन फीट पांच इंच चौड़ा तथा छः फीट ऊंचा है। इसी गर्भृगृह के मध्य ही कर्दमेश्वर शिवलिंग अवस्थित है। गर्भगृह के ही उत्तर-पश्चिमी कोने में छः फीट की ऊचाई पर एक जल स्रोत है। जिससे शिवलिंग पर लगातार जलधारा गिरती रहती है। वास्तुशिल्प और मूर्तिशिल्प के आधार पर यह मंदिर बहुत ही रोचक है। आधार की अपेक्षा खंभे काफी हद तक सादे हैं। कर्दमेश्वर मंदिर के अर्द्धमंडप के दो स्तंभों पर अभिलेख है। जो 14वीं-15वीं शताब्दी से है। जिनसे पुष्ट होता है कि अर्द्धमंडप के निर्माण में पुरानी सामग्री को पुनः प्रयोग में लाया गया है। कर्दमेश्वर मंदिर पर बनी मूर्तियां शिल्प के दृष्टिकोण से सामान्य प्रकृति की है। वामन तथा विष्णु की मूर्तियों में बने आभूषणों में घुंघरू की उपस्थिति भी बहुत बाद की मूर्ति शिल्प विशेषता है। ऐसे ही पश्चिमी भाग पर खड़ी मुद्रा में विष्णु की मूर्ति के माथे पर यू आकार का चिन्ह है जो वर्तमान समय में भी प्रचलित है। निःसंदेह कर्दमेश्वर मंदिर पर उत्कीर्ण मूर्तियां तेजस्वी है
Monday, July 18, 2016
सावन
सावन प्रारंभ- 20 जुलाई 2016
सावन अंत- 18 अगस्त 2016
सावन की पौराणिक कथा
सावन माह के बारे में एक पौराणिक कथा है कि- "जब सनत कुमारों ने भगवान शिव से सावन महीना प्रिय होने का कारण पूछा तो भगवान भोलेनाथ ने बताया कि “जब देवी सती ने अपने पिता दक्ष के घर में योगशक्ति से शरीर त्याग किया था, उससे पहले देवी सती ने महादेव को हर जन्म में पति के रूप में पाने का प्रण किया था। अपने दूसरे जन्म में देवी सती ने पार्वती के नाम से हिमाचल और रानी मैना के घर में पुत्री के रूप में जन्म लिया। पार्वती ने युवावस्था के सावन महीने में निराहार रह कर कठोर व्रत किया और शिव को प्रसन्न कर उनसे विवाह किया, जिसके बाद ही महादेव के लिए यह विशेष हो गया”।
वैसे सावन की महत्ता को दर्शाने के लिए और भी अन्य कई कहानी बताई गयी हैं जैसे कि मरकंडू ऋषि के पुत्र मारकण्डेय ने लंबी आयु के लिए सावन माह में ही घोर तप कर शिव की कृपा प्राप्त की थी।
कुछ कथाओं में वर्णन आता है कि इसी सावन महीने में समुद्र मंथन किया गया था। मंथन के बाद जो विष निकला, उसे भगवान शंकर ने पीकर सृष्टि की रक्षा की थी।
किन्तु कहानी चाहे जो भी हो, बस सावन महीना पूरी तरह से भगवान शिव जी की आराधना का महीना माना जाता है। यदि एक व्यक्ति पूरे विधि-विधान से भगवान शिव की पूजा करता है, तो यह सभी प्रकार के दुखों और चिंताओं से मुक्ति प्राप्त करता है।
2016 में सावन महीना बुधवार 20 जुलाई से शुरू हो रहा है।पुराणों में भगवान शिव की उपासना का उल्लेख बताया गया है। शिव की उपासना करते समय पंचाक्षरी मंत्र 'ॐ नम: शिवाय' और 'महामृत्युंजय' आदि मंत्र जप बहुत खास है। इन मंत्रों के जप-अनुष्ठान से सभी प्रकार के दुख, भय, रोग, मृत्युभय आदि दूर होकर मनुष्य को दीर्घायु की प्राप्ति होती है। देश-दुनिया भर में होने वाले उपद्रवों की शांति तथा अभीष्ट फल प्राप्ति को लेकर रूद्राभिषेक आदि यज्ञ-अनुष्ठान किए जाते हैं। इसमें शिवोपासना में पार्थिव पूजा का भी विशेष महत्व होने के साथ-साथ शिव की मानस पूजा का भी महत्व है।
सावन मास के आरंभ होते ही व्रत-उपवासों का दौर शुरू हो जाता है। सावन मास में जहाँ शिवोपासना, शिवलिंगों की पूजा की जाती है जिससे मनुष्य को अपार धन-वैभव की प्राप्ति होती है। इस माह में बिल्व पत्र, जल, अक्षत और बम-बम बोले का जयकारा लगाकर तथा शिव चालीसा, शिव आरती, शिव-पार्वती की उपासना से भी आप शिव को प्रसन्न कर सकते हैं। दयालु होने के कारण भगवान शिव सहज ही अपने भक्तों को कृपा पात्र बना देते हैं।
अगर आपके लिए हर रोज शिव आराधना करना संभव नहीं हो तो सोमवार के दिन आप शिव पूजन और व्रत करके शिव भक्ति को प्राप्त कर सकते हैं। और इसके लिए सावन माह तो अति उत्तम हैं। सावन मास के दौरान एक महीने तक आप भगवान शिव की विशेष पूजा-अर्चना कर साल भर की पूजा का फल प्राप्त सकते हैं। शिव को दूध-जल, बिल्व पत्र, बेल फल, धतूरे-गेंदे के फूल और जलेबी-इमरती का भोग लगाकर शिव की सफल आराधना कर सकते हैं।
भगवान शंकर को सोमवार का दिन प्रिय होने के कारण भी सावन माह भोलेनाथ को अतिप्रिय है। अत: सावन माह में पड़ने वाले प्रत्येक सोमवार का और इन दिनों की कई शिवोपासना का बहुत महत्व है। सावन में प्रति सोमवार, प्रदोष काल में की गई पार्थिव शिव पूजा अतिफलदायी है। सावन में रात्रिकाल में घी-कपूर, गूगल धूप से आरती करके शिव का गुणगान किया जाता है।
इन दिनों की गई पूजा का फल हर मनुष्य को अवश्य ही प्राप्त होता है। भगवान शिव अपने सभी भक्तों की मनोकामना को पूण करते हैं और उनके सारे दुखों का निवारण कर उन्हें सुखी जीवन जीने का वरदान देते हैं। ॐ नम: शिवाय का मंत्र जप हमारे पाप कर्मों को दूर करके हमें पुण्य के रास्ते पर ले
काँवर का महीना
सावन के महीने में भक्त, गंगा नदी से पवित्र जल या अन्य नदियों के जल को मीलों की दूरी तय करके लाते हैं और भगवान शिव का जलाभिषेक करते हैं। कलयुग में यह भी एक प्रकार की तपस्या और बलिदान ही है, जिसके द्वारा देवो के देव महादेव को प्रसन्न करने का प्रयास किया जाता है।
Sunday, July 17, 2016
Tuesday, July 12, 2016
National Geographic Travel Photographer Of The Year Contest 2016
Rooftop Dreams, Varanasi
Photo and caption by Yasmin Mund
It was 5:30 a.m. and I had just arrived in Varanasi, India, off a sleeper train. I got to my guesthouse and instinctively climbed the seven flights of stairs to see the sunrise over the famous Ganges River. As I looked over the side of the rooftop terrace, my jaw dropped in disbelief. Below were mothers, fathers, children, cats, dogs, and monkeys all sleeping on their roofs. It was midsummer in Varanasi and sleeping without air-conditioning was pretty difficult. Can you spot the curry?
CATEGORY:
People
LOCATION:
Varanasi, Uttar Pradesh, India
Courtesy : http://travel.nationalgeographic.com/
Photo and caption by Yasmin Mund
It was 5:30 a.m. and I had just arrived in Varanasi, India, off a sleeper train. I got to my guesthouse and instinctively climbed the seven flights of stairs to see the sunrise over the famous Ganges River. As I looked over the side of the rooftop terrace, my jaw dropped in disbelief. Below were mothers, fathers, children, cats, dogs, and monkeys all sleeping on their roofs. It was midsummer in Varanasi and sleeping without air-conditioning was pretty difficult. Can you spot the curry?
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Varanasi, Uttar Pradesh, India
Courtesy : http://travel.nationalgeographic.com/
Saturday, July 9, 2016
Shivpur Rathyatra
The Rath Yatra of Lord Jagannath on the traditional chariot on Saturday commenced in the city under heavy security deployment.Amidst traditional gaiety the devotees took out a procession with the idols of Lord Jagnnath, Subhadra and Balbhadra from the Jagnnath temple in Assi area. After three-day fair, held annually as a part of Rathyatra festival in Rathyatra Crossing, the procession culminated at Shivpur where the idols were placed on the beautifully decorated traditional chariot, after religious rituals.The one-day fair, held annually as a part of Rathyatra festival , in Shivpur Varanasi City.
Wednesday, July 6, 2016
रथयात्रा
भगवान जगन्नाथ के रथ पर सवार होने के साथ बुधवार को वाराणसी में रथयात्रा मेले की शुरुआत हो गयी। अपनी 200 से ज्यादा वर्षो पुरानी परंपरा को निभाते हुए बुधवार की सुबह भगवान जगन्नाथ ने भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा संग रथ पर सवार होकर भक्तों को दर्शन दिए। मान्यता है कि बीमारी से ठीक होने के बाद भगवान घूमने के लिए रथ पर निकलते हैं जिसे रथयात्रा मेल कहा जाता है।
इस दौरान जगन्नाथ मंदिर के पुजारी राधेश्याम से बात करने पर उन्होंने बताया कि वाराणसी शहर के रथयात्रा चौराहे पर बुधवार की भोर से इस रथयात्रा मेले की शुरुआत हुई। सबसे पहले रथ पर सवार भगवान जगन्नाथ, भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा की आरती हुई जिसमें शामिल होने के लिए भक्तों की भीड़ जुटी। उसके बाद भक्तों ने भगवान के रथ को खीच कर इस रथयात्रा मेले की शुरुआत की। वैसे तो रथयात्रा का यह पर्व मुख्य तौर पर पुरी में मनाया जाता है। मगर वाराणसी में भी इसकी शुरुआत पुरी ट्रस्ट के जरिये ही हुई और यहाँ भी यह उसी परंपरागत तरीके से मनाया जाता हैं।
मान्यता है कि रथयात्रा के इस पर्व पर भगवान अपने भाई और बहन के साथ नगर भ्रमण और अपनी मौसी के घर जाते हैं। भगवान के दर्शन और उनका रथ खीचने के लिए शहर में भक्तों की भीड़ उमड़ती है और यह पर्व एक मेला बन जाता है। भक्त ये मानते हैं कि रथयात्रा के पर्व पर भगवान जगन्नाथ के दर्शन से उनकी सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं।
भगवान के आगमन पर रथयात्रा चौराहे स्थित इस स्थान पर एक मेले का आयोजन भी किया जाता है। तीन दिन तक लगने वाले इस मेले में हज़ारों की संख्या में भक्त पहुंच कर पुन्य कमाते हैं। भगवान जगन्नाथ स्वामी को तुलसी बेहद प्रिय है और इन्हे तुलसी अर्पण करना छप्पन भोग के बराबर पुण्य माना जाता है।भगवान जगन्नाथ के रथ पर सवार होने के साथ बुधवार को वाराणसी में रथयात्रा मेले की शुरुआत हो गयी। अपनी 200 से ज्यादा वर्षो पुरानी परंपरा को निभाते हुए बुधवार की सुबह भगवान जगन्नाथ ने भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा संग रथ पर सवार होकर भक्तों को दर्शन दिए। मान्यता है कि बीमारी से ठीक होने के बाद भगवान घूमने के लिए रथ पर निकलते हैं जिसे रथयात्रा मेल कहा जाता है।
इस दौरान जगन्नाथ मंदिर के पुजारी राधेश्याम से बात करने पर उन्होंने बताया कि वाराणसी शहर के रथयात्रा चौराहे पर बुधवार की भोर से इस रथयात्रा मेले की शुरुआत हुई। सबसे पहले रथ पर सवार भगवान जगन्नाथ, भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा की आरती हुई जिसमें शामिल होने के लिए भक्तों की भीड़ जुटी। उसके बाद भक्तों ने भगवान के रथ को खीच कर इस रथयात्रा मेले की शुरुआत की। वैसे तो रथयात्रा का यह पर्व मुख्य तौर पर पुरी में मनाया जाता है। मगर वाराणसी में भी इसकी शुरुआत पुरी ट्रस्ट के जरिये ही हुई और यहाँ भी यह उसी परंपरागत तरीके से मनाया जाता हैं।
मान्यता है कि रथयात्रा के इस पर्व पर भगवान अपने भाई और बहन के साथ नगर भ्रमण और अपनी मौसी के घर जाते हैं। भगवान के दर्शन और उनका रथ खीचने के लिए शहर में भक्तों की भीड़ उमड़ती है और यह पर्व एक मेला बन जाता है। भक्त ये मानते हैं कि रथयात्रा के पर्व पर भगवान जगन्नाथ के दर्शन से उनकी सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं।
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