Dev Deepawali is celebrated on the occasion of Kartik Poornima when the Ghats of Varanasi come alive with thousands of Diyas (earthen lamps). Dev Deepavali, celebrated on the fifteenth day of Diwali, is a tribute to river Ganga by the people of Varanasi. Dev Deepavali is held on the full moon day in the month of Kartik (also known as Kartik Purnima) and is observed with great fanfare and feasts. It is believed that on the day of Dev Deepavali, the Gods descend on Earth. It is interesting to note that the Kartik Purnima festival also coincides with the Jain light festival and Guru Nanak Jayanti.
Thursday, November 26, 2015
Wednesday, November 25, 2015
आकाश दीप
शहीद होने वाले लोगों को देश बड़ी कृतज्ञता के साथ हमेशा याद करता रहा है, लेकिन वाराणसी में कार्तिक महीने के पहले दिन उनकी आत्मा की शांति और सम्मान के लिए आकाश दीप जलाने की परंपरा है। खास बात यह है कि इस परंपरा को सेना के तीनों अंगों के जवान निभाते हैं। कारगिल विजय वर्ष से आरम्भ हुए इस कार्यक्रम में बांस की टोकरियों में दीपक रखकर आसमान की तरफ कार्तिक मास की अंतिम तारीख तक रोज़ शाम को लटकाये जाते हैं।
वाराणसी के दशाश्वमेघ घाट पर सेना के जवान उस परंपरा को निभाने के लिए हर साल कार्तिक मास के पहले दिन इकट्ठा होते हैं। इसकी पौराणिकता महाभारत काल से जुड़ी हुई है। महाभारत काल में पांडवों ने महाभारत युद्ध में मारे गए शहीदों की आत्मा की शांति के लिए दीप दान शुरू किया था। क्योंकि मान्यता है कि कार्तिक मास के पवित्र महीने में मृत पूर्वजों के नाम से यदि प्रतिदिन दीप जलाए जाएं तो उन्हें न सिर्फ शांति मिलेगी बल्कि मोक्ष भी मिलेगा।
वाराणसी में सेना के जवान उसी परंपरा के तहत देश में पूरे साल में शहीद हुए जवानों की आत्मा की शांति के लिए श्रद्धापूर्वक दीप जलाते हैं, ताकि उन्हें भी शांति और मोक्ष मिले। आस्था, श्रद्धा और राष्ट्रभक्ति का यह मेल वाराणसी की एक स्वयं सेवी संस्था के प्रयास से संभव हो पाता है। इसमें सेना के तीनों अंगों के जवान भी भाग लेते हैं।
जोशीले बैंड बाजे और राष्ट्रगान के साथ जब जवान तिरंगे को सलामी देते हैं तो गंगा के किनारे देशभक्ति की एक और धारा फूट पड़ती है। सेना के जवान दीप जलाकर उसे आकाश में पहुंचा देते हैं। और उन्हें याद करते हैं जिन्होंने देश के लिए अपने जान की परवाह नहीं की।
शहीदों के सम्मान में जलाए गए ये दीप पूरे कार्तिक महीनेभर जलेंगे। जिसमें सेना के जवान प्रतिदिन शाम होने से पहले इस दीए को खुद ही रोशन करेंगे। आस्था और परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए इस पुनीत कार्य में थल सेना, वायु सेना और जल सेना के अलावा सीआरपीएफ के साथ आईटीबीपी और पुलिस के जवान भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं।
कार्तिक पूर्णिमा के दिन अंतिम सलामी देकर सेना के तीनों अंगों के अफसरान अमर जवान ज्योति के ऊपर श्रद्धा सुमन अर्पित करके इसका समापन करेंगे।
देव दीपावली
भगवान शिव की नगरी काशी में आज शाम दुनिया के सबसे बड़े जल-ज्योति पर्व यानी देव दीपावली के लिए लोग उमड़ पड़े। शाम होते ही काशी के 84 गंगा घाट करीब 51 लाख से अधिक दीपों की जगमग ज्योति से झिलमिला उठे। इससे मां गंगा के गले में करीब आठ किलोमीटर लंबा ज्योति-पुंज चंद्रहार जगमगाने लगा। इससे पहले यहां आए लोगों ने सुबह से ही गंगा में पुण्य स्नान कर काशी के विविध मंदिरों में पूजन-अर्चन किया।
देव दीपावली की पृष्ठभूमि पौराणिक कथाओं से भरी हुई है। इस कथा के अनुसार भगवान शंकर ने देवताओं की प्रार्थना पर सभी को उत्पीडि़त करने वाले राक्षस त्रिपुरासुर का वध किया, जिसके उल्लास में देवताओं ने दीपावली मनाई, जिसे आगे चलकर देव दीपावली के रूप में मान्यता मिली।
इसी संदर्भ में एक अन्य कथानक भी है।
त्रिशंकु को राजर्षि विश्वामित्र ने अपने तपोबल से स्वर्ग पहुँचा दिया। देवतागण इससे उद्विग्न हो गए और त्रिशंकु को देवताओं ने स्वर्ग से भगा दिया। शापग्रस्त त्रिशंकु अधर में लटके रहे। त्रिशंकु को स्वर्ग से निष्कासित किए जाने से क्षुब्ध विश्वामित्र ने पृथ्वी-स्वर्ग आदि से मुक्त एक नई समूची सृष्टि की ही अपने तपोबल से रचना प्रारंभ कर दी।
उन्होंने कुश, मिट्टी, ऊँट, बकरी-भेड़, नारियल, कोहड़ा, सिंघाड़ा आदि की रचना का क्रम प्रारंभ कर दिया। इसी क्रम में विश्वामित्र ने वर्तमान ब्रह्मा-विष्णु-महेश की प्रतिमा बनाकर उन्हें अभिमंत्रित कर उनमें प्राण फूँकना आरंभ किया। सारी सृष्टि डाँवाडोल हो उठी। हर ओर कोहराम मच गया। हाहाकार के बीच देवताओं ने राजर्षि विश्वामित्र की अभ्यर्थना की।
महर्षि प्रसन्न हो गए और उन्होंने नई सृष्टि की रचना का अपना संकल्प वापस ले लिया। देवताओं और ऋषि-मुनियों में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई। पृथ्वी, स्वर्ग, पाताल सभी जगह इस अवसर पर दीपावली मनाई गई। यही अवसर अब देव दीपावली के रूप में विख्यात है।
Tuesday, November 24, 2015
गुरु नानक जयन्ती
गुरु नानक देवजी सिखों के पहले गुरु थे। अंधविश्वास और आडंबरों के कट्टर विरोधी गुरु नानक का प्रकाश उत्सव (जन्मदिन) कार्तिक पूर्णिमा को मनाया जाता है हालांकि उनका जन्म 15 अप्रैल 1469 को हुआ था। पंजाब के तलवंडी नामक स्थान में एक किसान के घर जन्मे नानक के मस्तक पर शुरू से ही तेज आभा थी। तलवंडी जोकि पाकिस्तान के लाहौर से 30 मील पश्चिम में स्थित है, गुरु नानक का नाम साथ जुड़ने के बाद आगे चलकर ननकाना कहलाया। गुरु नानक के प्रकाश उत्सव पर प्रति वर्ष भारत से सिख श्रद्धालुओं का जत्था ननकाना साहिब जाकर वहां अरदास करता है।
गुरुनानक बचपन से ही गंभीर प्रवृत्ति के थे। बाल्यकाल में जब उनके अन्य साथी खेल कूद में व्यस्त होते थे तो वह अपने नेत्र बंद कर चिंतन मनन में खो जाते थे। यह देख उनके पिता कालू एवं माता तृप्ता चिंतित रहते थे। उनके पिता ने पंडित हरदयाल के पास उन्हें शिक्षा ग्रहण करने के लिए भेजा लेकिन पंडितजी बालक नानक के प्रश्नों पर निरुत्तर हो जाते थे और उनके ज्ञान को देखकर समझ गए कि नानक को स्वयं ईश्वर ने पढ़ाकर संसार में भेजा है। नानक को मौलवी कुतुबुद्दीन के पास पढ़ने के लिए भेजा गया लेकिन वह भी नानक के प्रश्नों से निरुत्तर हो गए। नानक ने घर बार छोड़ बहुत दूर दूर के देशों में भ्रमण किया जिससे उपासना का सामान्य स्वरूप स्थिर करने में उन्हें बड़ी सहायता मिली। अंत में कबीरदास की 'निर्गुण उपासना' का प्रचार उन्होंने पंजाब में आरंभ किया और वे सिख संप्रदाय के आदिगुरु हुए।
सन 1485 में नानक का विवाह बटाला निवासी कन्या सुलक्खनी से हुआ। उनके दो पुत्र श्रीचन्द और लक्ष्मीचन्द थे। गुरु नानक के पिता ने उन्हें कृषि, व्यापार आदि में लगाना चाहा किन्तु यह सारे प्रयास नाकाम साबित हुए। उनके पिता ने उन्हें घोड़ों का व्यापार करने के लिए जो राशि दी, नानक ने उसे साधु सेवा में लगा दिया। कुछ समय बाद नानक अपने बहनोई के पास सुल्तानपुर चले गये। वहां वे सुल्तानपुर के गवर्नर दौलत खां के यहां मादी रख लिये गये। नानक अपना काम पूरी ईमानदारी के साथ करते थे और जो भी आय होती थी उसका ज्यादातर हिस्सा साधुओं और गरीबों को दे देते थे।
सिख ग्रंथों के अनुसार, गुरु नानक नित्य प्रातरू बेई नदी में स्नान करने जाया करते थे। एक दिन वे स्नान करने के पश्चात वन में अन्तर्ध्यान हो गये। उस समय उन्हें परमात्मा का साक्षात्कार हुआ। परमात्मा ने उन्हें अमृत पिलाया और कहा− मैं सदैव तुम्हारे साथ हूं, जो तुम्हारे सम्पर्क में आयेंगे वे भी आनन्दित होंगे। जाओ दान दो, उपासना करो, स्वयं नाम लो और दूसरों से भी नाम स्मरण कराओ। इस घटना के पश्चात वे अपने परिवार का भार अपने श्वसुर को सौंपकर विचरण करने निकल पड़े और धर्म का प्रचार करने लगे। उन्हें देश के विभिन्न हिस्सों के साथ ही विदेशों की भी यात्राएं कीं और जन सेवा का उपदेश दिया। बाद में वे करतारपुर में बस गये और 1521 ई. से 1539 ई. तक वहीं रहे।
गुरु नानक देवजी ने जात−पांत को समाप्त करने और सभी को समान दृष्टि से देखने की दिशा में कदम उठाते हुए 'लंगर' की प्रथा शुरू की थी। लंगर में सब छोटे−बड़े, अमीर−गरीब एक ही पंक्ति में बैठकर भोजन करते हैं। आज भी गुरुद्वारों में उसी लंगर की व्यवस्था चल रही है, जहां हर समय हर किसी को भोजन उपलब्ध होता है। इस में सेवा और भक्ति का भाव मुख्य होता है। नानक देवजी का जन्मदिन गुरु पूर्व के रूप में मनाया जाता है। तीन दिन पहले से ही प्रभात फेरियां निकाली जाती हैं। जगह−जगह भक्त लोग पानी और शरबत आदि की व्यवस्था करते हैं। गुरु नानक जी का निधन सन 1539 ई. में हुआ। इन्होंने गुरुगद्दी का भार गुरु अंगददेव (बाबा लहना) को सौंप दिया और स्वयं करतारपुर में 'ज्योति' में लीन हो गए।
गुरु नानक जी की शिक्षा का मूल निचोड़ यही है कि परमात्मा एक, अनन्त, सर्वशक्तिमान और सत्य है। वह सर्वत्र व्याप्त है। मूर्ति−पूजा आदि निरर्थक है। नाम−स्मरण सर्वोपरि तत्त्व है और नाम गुरु के द्वारा ही प्राप्त होता है। गुरु नानक की वाणी भक्ति, ज्ञान और वैराग्य से ओत−प्रोत है। उन्होंने अपने अनुयायियों को जीवन की दस शिक्षाएं दीं जो इस प्रकार हैं−
1. ईश्वर एक है।
2. सदैव एक ही ईश्वर की उपासना करो।
3. ईश्वर सब जगह और प्राणी मात्र में मौजूद है।
4. ईश्वर की भक्ति करने वालों को किसी का भय नहीं रहता।
5. ईमानदारी से और मेहनत कर के उदरपूर्ति करनी चाहिए।
6. बुरा कार्य करने के बारे में न सोचें और न किसी को सताएं।
7. सदैव प्रसन्न रहना चाहिए। ईश्वर से सदा अपने लिए क्षमा मांगनी चाहिए।
8. मेहनत और ईमानदारी की कमाई में से ज़रूरतमंद को भी कुछ देना चाहिए।
9. सभी स्त्री और पुरुष बराबर हैं।
10. भोजन शरीर को जि़ंदा रखने के लिए ज़रूरी है पर लोभ−लालच व संग्रहवृत्ति बुरी है।
कार्तिक पूर्णिमा
हिंदू पंचांग के अनुसार साल का आठवां महीना कार्तिक महीना होता है। कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा कार्तिक पूर्णिमा कहलाती है। प्रत्येक वर्ष पंद्रह पूर्णिमाएं होती हैं। जब अधिकमास या मलमास आता है तब इनकी संख्या बढ़कर सोलह हो जाती है। सृष्टि के आरंभ से ही यह तिथि बड़ी ही खास रही है। पुराणों में इस दिन स्नान,व्रत व तप की दृष्टि से मोक्ष प्रदान करने वाला बताया गया है।
इसका महत्व सिर्फ वैष्णव भक्तों के लिए ही नहीं शैव भक्तों और सिख धर्म के लिए भी बहुत ज्यादा है। विष्णु के भक्तों के लिए यह दिन इसलिए खास है क्योंकि भगवान विष्णु का पहला अवतार इसी दिन हुआ था। प्रथम अवतार में भगवान विष्णु मत्स्य यानी मछली के रूप में थे। भगवान को यह अवतार वेदों की रक्षा,प्रलय के अंत तक सप्तऋषियों,अनाजों एवं राजा सत्यव्रत की रक्षा के लिए लेना पड़ा था। इससे सृष्टि का निर्माण कार्य फिर से आसान हुआ।
शिव भक्तों के अनुसार इसी दिन भगवान भोलेनाथ ने त्रिपुरासुर नामक महाभयानक असुर का संहार कर दिया जिससे वह त्रिपुरारी के रूप में पूजित हुए। इससे देवगण बहुत प्रसन्न हुए और भगवान विष्णु ने शिव जी को त्रिपुरारी नाम दिया जो शिव के अनेक नामों में से एक है। इसलिए इसे 'त्रिपुरी पूर्णिमा' भी कहते हैं।
इसी तरह सिख धर्म में कार्तिक पूर्णिमा के दिन को प्रकाशोत्सव के रूप में मनाया जाता है। क्योंकि इसी दिन सिख सम्प्रदाय के संस्थापक गुरु नानक देव का जन्म हुआ था। इस दिन सिख सम्प्रदाय के अनुयाई सुबह स्नान कर गुरुद्वारों में जाकर गुरुवाणी सुनते हैं और नानक जी के बताए रास्ते पर चलने की सौगंध लेते हैं। इसे गुरु पर्व भी कहा जाता है।
इस तरह यह दिन एक नहीं बल्कि कई वजहों से खास है। इस दिन गंगा-स्नान,दीपदान,अन्य दानों आदि का विशेष महत्त्व है। इस दिन क्षीरसागर दान का अनंत महत्व है,क्षीरसागर का दान 24 अंगुल के बर्तन में दूध भरकर उसमें स्वर्ण या रजत की मछली छोड़कर किया जाता है। यह उत्सव दीपावली की भांति दीप जलाकर सायंकाल में मनाया जाता है।
ऐसा भी माना जाता है कि इस दिन कृतिका में शिव शंकर के दर्शन करने से सात जन्म तक व्यक्ति ज्ञानी और धनवान होता है। इस दिन चन्द्र जब आकाश में उदित हो रहा हो उस समय शिवा, संभूति, संतति, प्रीति, अनुसूया और क्षमा इन छह कृतिकाओं का पूजन करने से शिव जी की प्रसन्नता प्राप्त होती है।
Sunday, November 22, 2015
Prabodhini Ekadashi
The Vaishnava Prabodhini Ekadashi is an auspicious fasting day for Hare Krishna followers that falls on the ‘ekadashi’ (11th day) of Shukla Paksha (the bright fortnight of moon) during the month of ‘Damodara’ in the Vaishnava calendar. This date corresponds to the months of October-November in the Gregorian calendar. The Vaishnava Prabodhini Ekadashi is known by different names like ‘Utthana Ekadashi’, ‘Haribodhini Ekadashi’ or Dev Oothni Ekadashi’. This ekadashi is second ekadashi of the sacred month of Kartik and signifies the end of four month long ‘Chaturmaas’ period. The end of Chaturmaas period also marks the beginning of the auspicious Hindu wedding season.
As per the Hindu legends it is believed that Sri Hari Vishnu goes to sleep on ‘Shayani Ekadashi’ and wakes up on ‘Vaishnava Prabodhini Ekadashi’. Hence this ekadashi is also fondly known as ‘Dev Oothani’ or ‘Lord’s Awakening’ Ekadashi. Just after the festival of Vaishnava Prabodhini Ekadashi comes, ‘Kartik Poornima’ that is observed as ‘Dev Diwali’ (the Diwali of Gods and Goddesses). The celebrations of Prabodhini Ekadashi are very prominent in the Indian states of Maharashtra, Gujarat and Rajasthan. Lord Vishnu followers, who devotedly observe the Vaishnava Prabodhini Ekadashi will gain freedom from their sins, will be bestowed with merits and ultimately gain liberation or moksha.
Rituals during Vaishnava Prabodhini Ekadashi:
- Devotees keep a strict fast on Vaishnava Prabodhini Ekadashi. The observer of this vrat should not eat in anyone else’s house nor eat food cooked in iron utensils. The fast begins from the time of getting up and continues till the dawn of the following day known as Utthana Dwadashi’. During the time of fast the devotees neither eat nor drink all day. They also stay awake all night.
- On the day of Vaishnava Prabodhini Ekadashi, in some places, the Vaishnavas also begin the ‘Bheeshma Panchaka Vrat’ or the ‘Bheeshma Panchakam’. It is a five day fasting ritual that is kept during the last five days in the month of ‘Kartik’ right from ekadashi to the Poornima. This fast is particularly observed by Vaishnavites who cannot observe fast during the entire ‘Damodara’ month.
- Tulsi Vivaah is another important ritual of the day. On this day a ritualistic marriage of Lord Vishnu with Goddess Tulsi takes place.
- On Vaishnava Prabodhini Ekadashi devotees worship Sri Krishna with fruits, camphor and aromatic flowers like the yellow agaru flower. They also read ‘Vishnu Sahasranaam’ and other religious books dedicated to Lord Vishnu to receive His divine love and affection.
Significance of Vaishnava Prabodhini Ekadashi:
The glory of Vaishnava Prabodhini Ekadashi was first narrated to Narada Muni by Lord Brahma. The lord himself stated that observing this ekadashi is more meritorious than taking a holy dip in the Hindu pilgrimages or even performing 1000 Asvamedha sacrifices. It is believed that a person who observes Vaishnava Prabodhini Ekadashi by eating once midday, all the sins from his/her previous life will be pardoned, if the observer eats a supper, the sins from his/her previous two births will be acquitted and one who observes a complete fast, the sins during his/her past seven births will be eradicated. By the virtues of the Vaishnava Prabodhini Ekadashi, the observer of this vrat will be bestowed with fame and prosperity and will finally seek place in ‘Vaikunth’, the heavenly abode of Lord Vishnu.
प्रबोधनी एकादशी
आज देव प्रबोधनी एकादशी है। इस दिन भगवान विष्णु के शलिग्राम रूप और देवी तुलसी के विवाह की सालगिरह मनार्ई जाती है। शास्त्रों में बताया गया है कि इस अवसर पर भगवान विष्णु के शालिग्राम रूप का विवाह तुलसी से कराना बड़ा ही पुण्यदायी होता है।जो व्यक्ति तुलसी के साथ शालिग्राम का विवाह करवाता है उनके दांपत्य जीवन में आपसी सद्भाव बना रहता है और मृत्यु के पश्चात उत्तम लोक में स्थान मिलता है। इन्हीं मान्यताओं के कारण देवप्रबोधनी एकादशी के दिन मंदिरों में तुलसी और शालिग्राम का विवाह करवाया जाता है।कई घरों में भी लोग इस नियम का पालन करते हैं और शाम के पूजा घर से लेकर तुलसी के पास तक भगवान के चरण चिन्ह और रंगोली बनाते हैं।तुलसी और शालिग्राम विवाह की कथाएक समय जलंधर नाम का एकपराक्रमी असुर हुआ। इसका विवाह वृंदा नामक कन्या से हुआ। वृंदा भगवान विष्णु की परम भक्त थी। इसके पतिव्रत धर्म के कारण जलंधर अजेय हो गया था। इसने एक युद्ध में भगवान शिव को भी पराजित कर दिया। अपने अजेय होने पर इसे अभिमान हो गया और स्वर्ग की कन्याओं को परेशान करने लगा। दुःखी होकर सभी देवता भगवान विष्णु की शरण में गये और जलंधर के आतंक को समाप्त करने की प्रार्थना करने लगे।भगवान विष्णु ने अपनी माया से जलांधर का रूप धारण कर लिया और छल से वृंदा के पतिव्रत धर्म को नष्ट कर दिया। इससे जलंधर की शक्ति क्षीण हो गयी और वह युद्ध में मारा गया। जब वृंदा को भगवान विष्णु के छल का पता चला तो उसने भगवान विष्णु को पत्थर का बन जाने का शाप दे दिया। देवताओं की प्रार्थना पर वृंदा ने अपना शाप वापस ले लिया। लेकिन भगवान विष्णु वृंदा के साथ हुए छल के कारण लज्जित थे अतः वृंदा के शाप कोजिवित रखने के लिए उन्होनें अपना एक रूप पत्थर रूप में प्रकट किया जो शालिग्राम कहलाया।भारत में शालिग्राम पत्थर नर्मदा नदी से प्राप्त होता है। भगवान विष्णु ने वृंदा से कहा कि तुम अगले जन्म में तुलसी के रूप में प्रकट होगी और लक्ष्मी से भी अधिक मेरी प्रिय रहोगी। तुम्हारा स्थान मेरे शीश पर होगा। मैं तुम्हारे बिना भोजन ग्रहण नहीं करूंगा। यही कारण है कि भगवान विष्णु के प्रसाद में तुलसी अवश्य रखा जाता है। बिना तुलसी के अर्पित किया गया प्रसाद भगवान विष्णु स्वीकार नहीं करते हैं।भगवान विष्णु को दिया शाप वापस लेने के बाद वृंदा जलंधर के साथ सती हो गयी। वृंदा के राख से तुलसी का पौधा निकला। वृंदा की मर्यादा और पवित्रता को बनाये रखने के लिए देवताओं ने भगवान विष्णु के शालिग्राम रूप का विवाह तुलसी से कराया। इसी घटना को याद रखने के लिए प्रतिवर्ष कार्तिक शुक्ल एकादशी यानी देव प्रबोधनी एकादशी के दिन तुलसी का विवाह शालिग्राम के साथ कराया जाता है।
Tuesday, November 17, 2015
Saturday, November 14, 2015
नवसंघ की माँ काली प्रतिमा देवनाथपूरा
बनारस की अतिसवेदनशील माने जाने वाली नवसंघ की माँ काली प्रतिमा देवनाथपूरा! मुस्लिम बाहुल्य इलाके से गुजरने के कारण यह प्रतिमा अतिसंवेदनसील मानी जाती है और सकुशल प्रतिमा का विसर्जन भी प्रशासन के लिए एक बड़ी मुश्किल होती है!
क्यों चर्चा में आयी नवसंघ की प्रतिमा:
नवसंघ की प्रतिमा 1990 से चर्चा में आयी। 1990 में यही की प्रतिमा के जुलूस के दौरान मदनपूरा में आतिशबाजी के दौरान दो सम्प्रदायों में बवाल हुआ था जिसके बाद कर्फ्यू लगाना पड़ा था।इसके बाद से नवसंघ की प्रतिमा अतिसंवेदनशील की श्रेणी में रखा गया है।
Thursday, November 12, 2015
Chitragupt Puja
Chitragupt pooja is done every year after diwali in the month of kartik. And mainly kayasth family definitely performed this pooja. On this day mainly worship of pen and ink-pot is done with note book. So puja of kalam and dawat is done during chitragupt puja. Now the question is that who is chitragupt, why it is necessary to worship chitragupt, what are the benefits a person can get by worshipping chitragupta. So in this article I am going to clear this.
As per Indian scriptures Chitragupta is a Hindu god who keeps and maintain the complete records of a person whole life. When a person leaves a body then this god analyse the accounts of person and then decide whether heaven or hell is ok for the person. People also called him 'dharmraj'. Yamaraj the god of death also obeys the instructions of chitragupta.
Kayastha are the children of chitragupta that's why kayasth families worship chitragupta on the auspicious day.
Now Know About The Family Of Chitragupta:
Iravati and Sudakhina are 2 wifes of shree chitragupta and from them 12 sons are borned their names are- Shrivastava, Surajdwaj, Nigam, Kulshreshtha, Mathur, Karn, Saxena, Gaud, Ashtana, Ambast, Bhatnagar, Valmik.
Simple Spell or Mantra of Shree Chitragupt:
"Om Shree Chitraguptaay Namah"
Benefits From Chitragupta Puja:
Significance of chitragupt puja, importance of chitragupt puja, why kayastha worship chitragupt, benefits of chitragupt pooja, Mantra or spell of chitragupta god, Easy way to worship shree chitragupt.
People can get Justice by worshipping dharmraja.
People can get peace in life by the blessings of chitragupta.
People can get Literacy.
People can get Knowledge by the blessings of god dharmraja.
If you are in accounting work then the puja of chitragupta will defintiely help you a lot.
If you are facing problems in life then you can pray to dharmraja ask for guidance.
Things Needed To Perform Chitragupta Pooja:
Pen, Note book, Ink pot, Honey, sugar, camphor or kapoor, Pooja paat, dhoop, deep, curd or yoghurt, sweets, pooja cloths, milk, seasonal fruits, beetal and betel nut, haldi, kanku, unbroken rice etc.
Easy Way To Worship Shree Chitragupta God:
First of all clean the place and then put the idol of shree chitraguptaji on the decided place. Now do the abhishek with panchamrut i.e. milk, curd, ghee, honey, sugar and then with rose water and clean water and then put the idol on the place where you are going to worship also put the ink pot, pen, and note book.
Now burn the deepak and offer dhoop, sweets, paan, sticks etc.
Now Offer roli, chawal, itra, flowers etc.
Recite the mantra of chitraguptaji as much as poosible.
Do the arti with camphor and pray for the well being of every one.
So worship chitragupta for getting knowledge, for getting prosperity, for wellness. Make your life better with the blessings of chitragupta.
Bhai Dooj
Bhai Dooj or Bhau Beej known by different names in different parts of country is a celebration of bond of everlasting love and affection between brother and his sister. Find out the rituals and significance of Bhai Dooj.
In Bhai Dooj or Bhau Beej is basically the fourth and final day of the Diwali festivity. In the year 2015, Bhai Dooj will be celebrated on 13th of November. On this day sisters pray for their brother by applying a red Tilak of Kumkum, and pray for the long life, peace and prosperity of the brother. This Tilak is an auspicious mark put on the forehead of the brothers and an Arati is performed. The holy flame of the Diya is a mark of sisterly love that will protect the brother from all evil and obstacles in life.
In turn the sisters are pampered with lavish goodies from their brothers. Bhai Dooj is observed on the second day of the new moon, where “Bhai’ means brother and “Dooj” means second day post new moon. The day is named differently in different parts of India, like in northern India it is known as Bhai Dooj and in the eastern part of India, it is known as Bhai Phonta.
Every sister and brother looks forward to this festival that marks the bond of everlasting love and affection and is also observed by people who are not related through family tree. Which means; this is also an occasion when new bonds are formed, and commemorated and social ties of peace and brotherhood are established and renewed.
Story Behind Bhai Dooj or Bhau Beej
Since this day falls on the Yama Dwitiya, the legend goes that Lord Yama, or the God of Death visits his sister Yami on this when she puts an auspicious mark on his forehead so that her brother stand protected and prays for his well-being. The belief hence goes that when a sister puts Tilak on the forehead of her brother on this day, he will never be hurled into hell and be protected from all evil and obstacles.
The other legend on this is that Lord Krishna visits his sister Subhadra after vanquishing the demon Narakasura, where she welcomes him with a victor’s Tilak , flowers and sweets.
Story Behind Bhai Phonta
In Bengal this day is observed as Bhai Phonta where the sister fasts until she puts the auspicious mark of sandalwood paste on the forehead of her brother. They exchange gifts and the sister prays for a healthy and prosperous life for her brother. The occasion is completed with grand feasts and merriment.
Significance of Bhai Dooj
Just like the numerous other Hindu festivals, Bhai Dooj is also a commemoration of family bonds and social attachments. It marks the undying bond of affection between the brother and his sister. Such is the significance of the festival that these days when the brothers are unable to visit their sisters on this occasion due to fast life and work compulsions, sisters send the “Tika” that is considered as the holy spot of protection through post or courier.
Indians are known to glorify customs, rituals and relationships through festivals. Bhai Dooj is similar in essence to Raksha Bandhan, where sisters observe the day to pray for the long life and well being of their brothers. If Raksha Bandhan is all about tying a Rakhi on the arm of the brother as a mark of the infallible bond of love and affection, whereby, the brother is committed to protect the sister from all adversities in life.
चित्रगुप्त जयंती
चित्रगुप्त जयंती
हिंदू धर्म में एकादशी का व्रत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। प्रत्येक वर्ष चौबीस एकादशियाँ होती हैं। जब अधिकमास या मलमास आता है तब इनकी संख्या बढ़कर 26 हो जाती है। यम द्वितीया के दिन ही यह त्यौहार भी मनाया जाता है। यह खासकर कायस्थ वर्ग में अधिक प्रचलित है। उनके ईष्ट देवता ही चित्रगुप्त जी हैं।
सन्दर्भ
जो भी प्राणी धरती पर जन्म लेता है उसकी मृत्यु निश्चित है क्योकि यही विधि का विधान है। विधि के इस विधान से स्वयं भगवान भी नहीं बच पाये और मृत्यु की गोद में उन्हें भी सोना पड़ा। चाहे भगवान राम हों, कृष्ण हों, बुध और जैन सभी को निश्चित समय पर पृथ्वी लोक आ त्याग करना पड़ता है। मृत्युपरान्त क्या होता है और जीवन से पहले क्या है यह एक ऐसा रहस्य है जिसे कोई नहीं सुलझा सकता। लेकिन जैसा कि हमारे वेदों एवं पुराणों में लिखा और ऋषि मुनियों ने कहा है उसके अनुसार इस मृत्युलोक के उपर एक दिव्य लोक है जहां न जीवन का हर्ष है और न मृत्यु का शोक वह लोक जीवन मृत्यु से परे है।
इस दिव्य लोक में देवताओं का निवास है और फिर उनसे भी ऊपर विष्णु लोक, ब्रह्मलोक और शिवलोक है। जीवात्मा जब अपने प्राप्त शरीर के कर्मों के अनुसार विभिन्न लोकों को जाता है। जो जीवात्मा विष्णु लोक, ब्रह्मलोक और शिवलोक में स्थान पा जाता है उन्हें जीवन चक्र में आवागमन यानी जन्म मरण से मुक्ति मिल जाती है और वे ब्रह्म में विलीन हो जाता हैं अर्थात आत्मा परमात्मा से मिलकर परमलक्ष्य को प्राप्त कर लेता है।
जो जीवात्मा कर्म बंधन में फंसकर पाप कर्म से दूषित हो जाता हैं उन्हें यमलोक जाना पड़ता है। मृत्यु काल में इन्हे आपने साथ ले जाने के लिए यमलोक से यमदूत आते हैं जिन्हें देखकर ये जीवात्मा कांप उठता है रोने लगता है परंतु दूत बड़ी निर्ममता से उन्हें बांध कर घसीटते हुए यमलोक ले जाते हैं। इन आत्माओं को यमदूत भयंकर कष्ट देते हैं और ले जाकर यमराज के समक्ष खड़ा कर देते हैं। इसी प्रकार की बहुत सी बातें गरूड़ पुराण में वर्णित है।
यमराज के दरवार में उस जीवात्मा के कर्मों का लेखा जोखा होता है। कर्मों का लेखा जोखा रखने वाले भगवान हैं चित्रगुप्त। यही भगवान चित्रगुप्त जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त जीवों के सभी कर्मों को अपनी पुस्तक में लिखते रहते हैं और जब जीवात्मा मृत्यु के पश्चात यमराज के समझ पहुचता है तो उनके कर्मों को एक एक कर सुनाते हैं और उन्हें अपने कर्मों के अनुसार क्रूर नर्क में भेज देते हैं।
चित्रगुप्त जी
भगवान चित्रगुप्त परमपिता ब्रह्मा जी के अंश से उत्पन्न हुए हैं और यमराज के सहयोगी हैं। इनकी कथा इस प्रकार है कि सृष्टि के निर्माण के उद्देश्य से जब भगवान विष्णु ने अपनी योग माया से सृष्टि की कल्पना की तो उनकी नाभि से एक कमल निकला जिस पर एक पुरूष आसीन था चुंकि इनकी उत्पत्ति ब्रह्माण्ड की रचना और सृष्टि के निर्माण के उद्देश्य से हुआ था अत: ये ब्रह्मा कहलाये। इन्होंने सृष्ट की रचना के क्रम में देव-असुर, गंधर्व, अप्सरा, स्त्री-पुरूष पशु-पक्षी को जन्म दिया। इसी क्रम में यमराज का भी जन्म हुआ जिन्हें धर्मराज की संज्ञा प्राप्त हुई क्योंकि धर्मानुसार उन्हें जीवों को सजा देने का कार्य प्राप्त हुआ था। धर्मराज ने जब एक योग्य सहयोगी की मांग ब्रह्मा जी से की तो ब्रह्मा जी ध्यानलीन हो गये और एक हजार वर्ष की तपस्या के बाद एक पुरूष उत्पन्न हुआ। इस पुरूष का जन्म ब्रह्मा जी की काया से हुआ था अत: ये कायस्थ कहलाये और इनका नाम चित्रगुप्त पड़ा।
भगवान चित्रगुप्त जी के हाथों में कर्म की किताब, कलम, दवात और करवाल है। ये कुशल लेखक हैं और इनकी लेखनी से जीवों को उनके कर्मों के अनुसार न्याय मिलती है। कार्तिक शुक्ल द्वितीया तिथि को भगवान चित्रगुप्त की पूजा का विधान है। इस दिन भगवान चित्रगुप्त और यमराज की मूर्ति स्थापित करके अथवा उनकी तस्वीर रखकर श्रद्धा पूर्वक सभी प्रकार से फूल, अक्षत, कुमकुम, सिन्दूर एवं भांति भांति के पकवान, मिष्टान एवं नैवेद्य सहित इनकी पूजा करें। और फिर जाने अनजाने हुए अपराधों के लिए इनसे क्षमा याचना करें। यमराज और चित्रगुप्त की पूजा एवं उनसे अपने बुरे कर्मों के लिए क्षमा मांगने से नरक का फल भोगना नहीं पड़ता है। इस संदर्भ में एक कथा का यहां उल्लेखनीय है।
कथा
सौराष्ट्र में एक राजा हुए जिनका नाम सौदास था। राजा अधर्मी और पाप कर्म करने वाला था। इस राजा ने कभी को पुण्य का काम नहीं किया था। एक बार शिकार खेलते समय जंगल में भटक गया। वहां उन्हें एक ब्रह्मण दिखा जो पूजा कर रहे थे। राजा उत्सुकतावश ब्रह्ममण के समीप गया और उनसे पूछा कि यहां आप किनकी पूजा कर रहे हैं। ब्रह्मण ने कहा आज कार्तिक शुक्ल द्वितीया है इस दिन मैं यमराज और चित्रगुप्त महाराज की पूजा कर रहा हूं। इनकी पूजा नरक से मुक्ति प्रदान करने वाली है। राजा ने तब पूजा का विधान पूछकर वहीं चित्रगुप्त और यमराज की पूजा की।
काल की गति से एक दिन यमदूत राजा के प्राण लेने आ गये। दूत राजा की आत्मा को जंजीरों में बांधकर घसीटते हुए ले गये। लहुलुहान राजा यमराज के दरबार में जब पहुंचा तब चित्रगुप्त ने राजा के कर्मों की पुस्तिका खोली और कहा कि हे यमराज यूं तो यह राजा बड़ा ही पापी है इसने सदा पाप कर्म ही किए हैं परंतु इसने कार्तिक शुक्ल द्वितीया तिथि को हमारा और आपका व्रत पूजन किया है अत: इसके पाप कट गये हैं और अब इसे धर्मानुसार नरक नहीं भेजा जा सकता। इस प्रकार राजा को नरक से मुक्ति मिल गयी।
भैया दूज
भैया दूज कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को मनाए जाने वाला हिन्दू धर्म का पर्व है जिसे यम द्वितीया भी कहते हैं। भारतीय समाज में परिवार सबसे अहम पहलू है। भारतीय परिवारों के एकता यहां के नैतिक मूल्यों पर टिकी होती है। इन नैतिक मूल्यों को मजबूती देने के लिए वैसे तो हमारे संस्कार ही काफ़ी हैं लेकिन फिर भी इसे अतिरिक्त मजबूती देते हैं हमारे त्यौहार। इन्हीं त्यौहारों में भाई-बहन के आत्मीय रिश्ते को दर्शाता एक त्यौहार है भैया दूज।
भैया दूज की एक पौराणिक कथा है।
भगवान सूर्यदेव की पत्नी संज्ञा की दो संतानें थीं। उनमें पुत्र का नाम यमराज और पुत्री का नाम यमुना था। संज्ञा अपने पति सूर्य की उद्दीप्त किरणों को सहन नहीं कर सकने के कारण अपनी ही प्रतिकृति छाया बनाकर तपस्या करने चली गयीं|तथा छाया सूर्यदेव की पत्नी संज्ञा बनकर रहने लगी। इसी से ताप्ती नदी तथा शनिश्चर का जन्म हुआ। इसी छाया से सदा युवा रहने वाले अश्विनी कुमारों का भी जन्म हुआ है, जो देवताओं के वैद्य माने जाते हैं ।छाया का यम तथा यमुना के साथ व्यवहार में अंतर आ गया। इससे व्यथित होकर यम ने अपनी नगरी यमपुरी बसाई। यमुना अपने भाई यम को यमपुरी में पापियों को दंड देते देख दु:खी होती, इसलिए वह गोलोक चली गई।
समय व्यतीत होता रहा। तब काफी सालों के बाद अचानक एक दिन यम को अपनी बहन यमुना की याद आई। यम ने अपने दूतों को यमुना का पता लगाने के लिए भेजा, लेकिन वह कहीं नहीं मिली। फिर यम स्वयं गोलोक गए जहां यमुनाजी की उनसे भेंट हुई। इतने दिनों बाद यमुना अपने भाई से मिलकर बहुत प्रसन्न हुई।
यमुना अपने भाई यमराज से बड़ा स्नेह करती हैं। वह उनसे बराबर निवेदन करतीं कि वह उनके घर आकर भोजन करें, लेकिन यमराज अपने काम में व्यस्त रहने के कारण यमुना की बात टाल जाते थे। कार्तिक शुक्ल द्वीतिया को यमुना ने अपने भाई यमराज को भोजन करने के लिए बुलाया। बहन के घर जाते समय यमराज ने नरक में निवास करने वाले जीवों को मुक्त कर दिया।भाई को देखते ही यमुना ने हर्षविभोर होकर भाई का स्वागत किया और स्वादिष्ट भोजन करवाया। इससे भाई यम ने प्रसन्न होकर बहन से वरदान मांगने के लिए कहा। तब यमुना ने वर मांगा कि- 'हे भैया, मैं चाहती हूं कि जो भी मेरे जल में स्नान करे, वह यमपुरी नहीं जाए।'
यह सुनकर यम चिंतित हो उठे और मन-ही-मन विचार करने लगे कि ऐसे वरदान से तो यमपुरी का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा। भाई को चिंतित देख, बहन बोली- भैया आप चिंता न करें, मुझे यह वरदान दें कि आप प्रतिवर्ष इस दिन मेरे यहां भोजन करने आया करेंगे तथा इस दिन जो बहन अपने भाई को टीका करके भोजन खिलाये, उसे आपका भय न रहे। जो लोग आज के दिन बहन के यहां भोजन करें तथा मथुरा नगरी स्थित विश्रामघाट पर स्नान करें, वे यमपुरी नहीं जाएं। यमराज ने तथास्तु कहकर यमुना को वरदान दे दिया तथा यमुना को अमूल्य वस्त्राभूषण देकर यमपुरी चले गये। ।
बहन-भाई मिलन के इस पर्व को अब भाई-दूज के रूप में मनाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि जो भाई आज के दिन यमुना में स्नान करके पूरी श्रद्धा से बहनों के आतिथ्य को स्वीकार करते हैं, उन्हें यम का भय नहीं रहता। इस दिन बहन दूज बनाकर भाई को हल्दी, अक्षत रोली का तिलक करे। तिलक करने के बाद भाई को फल, मिठाई खाने के लिए दे। भाई भी अक्षत रोली का तिलक करे। भाई भी बहन को स्वर्ण, वस्त्र, आभूषण तथा द्रव्य देकर प्रसन्न करे। बहन के चरण स्पर्श कर आशीष ले। बहन चाहे छोटी या आयु में बड़ी हो उसके चरण स्पर्श अवश्य करें। भैया दूज के ही दिन चित्रगुप्त पूजा भी होती है। भगवान चित्रगुप्त स्वर्ग और नरक लोक का लेखा-जोखा रखते हैं। इस पूजा को कलम दवात पूजा भी कहा जाता है। चित्रवंशियों के लिये यह पूजा अति महत्वपूर्ण होती है। इस दिन लगभग सभी चित्रवंशी अपनी कलम की पूजा करते हैं।
मनाने की विधि
इस पूजा में भाई की हथेली पर बहनें चावल का घोल लगाती हैं। उसके ऊपर सिन्दूर लगाकर कद्दू के फूल, पान, सुपारी मुद्रा आदि हाथों पर रखकर धीरे-धीरे पानी हाथों पर छोड़ते हुए कुछ मंत्र बोलती हैं जैसे 'गंगा पूजे यमुना को यमी पूजे यमराज को, सुभद्रा पूजा कृष्ण को, गंगा यमुना नीर बहे मेरे भाई की आयु बढ़े' इसी प्रकार कहीं इस मंत्र के साथ हथेली की पूजा की जाती है 'सांप काटे, बाघ काटे, बिच्छू काटे जो काटे सो आज काटे' इस तरह के शब्द इसलिए कहे जाते हैं क्योंकि ऐसी मान्यता है कि आज के दिन अगर भयंकर पशु काट भी ले तो यमराज के दूत भाई के प्राण नहीं ले जाएंगे। कहीं कहीं इस दिन बहनें भाई के सिर पर तिलक लगाकर उनकी आरती उतारती हैं और फिर हथेली में कलावा बांधती हैं। भाई का मुंह मीठा करने के लिए उन्हें माखन मिस्री खिलाती हैं। संध्या के समय बहनें यमराज के नाम से चौमुख दीया जलाकर घर के बाहर रखती हैं। इस समय ऊपर आसमान में चील उड़ता दिखाई दे तो बहुत ही शुभ माना जाता है। इस संदर्भ में मान्यता यह है कि बहनें भाई की आयु के लिए जो दुआ मांग रही हैं, उसे यमराज ने कुबूल कर लिया है या चील जाकर यमराज को बहनों का संदेश सुनाएगा।
Wednesday, November 11, 2015
Govardhana Puja
The day after Diwali is called Annakuta, or Govardhana Puja. On this day the inhabitants of Vrindavan (Lord Krishna’s abode on Earth) used to hold a festival to honor King Indra, the demigod responsible for providing the rains essential for a successful harvest.
One day, however, sensing that Indra had become overly proud of his position as king of heaven, Lord Krishna convinced the residents of Vrindavan to modify their festival and celebrate Govardhana Hill instead, arguing that it was the fertile soils on the hill that provided the grass upon which the cows and bulls grazed; that the cows and bulls who provided milk and ploughed the lands should be worshiped. This turn of events naturally upset the mighty Indra, who retaliated with terrifying rains and thunderstorms.
Seeing this, Lord Krishna, the Supreme Personality of Godhead, calmly lifted Govardhana Hill with the little finger of His left hand and held it up like a giant umbrella, providing a shelter for the people and animals of Vrindavan from the torrential downpours. The rains intensified. Indra's fury raged. Finally, after seven days, beholding the wonder of the situation and realizing the futility of his own actions, King Indra surrendered. He came down from the heavens and bowed before Lord Krishna with folded hands, offering prayers and asking for forgiveness. He realized his true position as servant of the Supreme Personality of Godhead. In this way Lord Krishna demonstrated that He is Deva Deva, the Lord of the Demigods, and that any purpose for which demigods might be worshiped could easily be served by worshiping Him, the supreme cause of all causes.
Several thousand years later, on this same day, Srila Madhavendra Puri established a temple for the self-manifest Gopala Deity on top of Govardhana Hill.
To celebrate this festival, devotees build a replica of Govardhana Hill made of various opulent foods, worship Lord Krishna as the lifter of Govardhana Hill, worship the hill as His incarnation, and worship the cows and bulls who are dear to the Lord. At the end of the festival, the hill of prasada (sanctified food) is distributed to the public. All Vaishnava temples in India and throughout the world observe this ceremony, and hundreds of people are fed prasada according to the capacity of each temple.
गोवर्धन पूजा
बाबा विश्वनाथ की नगरी काशी में गोवर्धन पूजा अनूठे ढंग से मनाई जाएगी । गाय के गोबर से बने गोवर्धन पर्वत उठाए राधा संग कृष्ण की पूजा पूरे श्रद्धा और परम्परागत रूप से की जाएगी । दीपावली की अगली सुबह गोवर्धन पूजा की जाती है। लोग इसे अन्नकूट के नाम से भी जानते हैं। इस त्यौहार का भारतीय लोकजीवन में काफी महत्व है। इस पर्व में प्रकृति के साथ मानव का सीधा सम्बन्ध दिखाई देता है। इस पर्व की अपनी मान्यता और लोककथा है। गोवर्धन पूजा में गोधन यानी गायों की पूजा की जाती है। शास्त्रों में बताया गया है कि गाय उसी प्रकार पवित्र होती जैसे नदियों में गंगा। गाय को देवी लक्ष्मी का स्वरूप भी कहा गया है। देवी लक्ष्मी जिस प्रकार सुख समृद्धि प्रदान करती हैं उसी प्रकार गौ माता भी अपने दूध से स्वास्थ्य रूपी धन प्रदान करती हैं। इनका बछड़ा खेतों में अनाज उगाता है। इस तरह गौ सम्पूर्ण मानव जाती के लिए पूजनीय और आदरणीय है। गौ के प्रति श्रद्धा प्रकट करने के लिए ही कार्तिक शुक्ल पक्ष प्रतिपदा के दिन गोर्वधन की पूजा की जाती है और इसके प्रतीक के रूप में गाय की।
जब कृष्ण ने ब्रजवासियों को मूसलधार वर्षा से बचने के लिए सात दिन तक गोवर्धन पर्वत को अपनी सबसे छोटी उँगली पर उठाकर रखा और गोप-गोपिकाएँ उसकी छाया में सुखपूर्वक रहे। सातवें दिन भगवान ने गोवर्धन को नीचे रखा और हर वर्ष गोवर्धन पूजा करके अन्नकूट उत्सव मनाने की आज्ञा दी। तभी से यह उत्सव अन्नकूट के नाम से मनाया जाने लगा।
Tuesday, November 10, 2015
हनुमान जयंती
हनुमान जयंती 10 अक्टूबर मंगलवार को है. शास्त्रों के अनुसार हनुमान जी का जन्म कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी मंगलवार, स्वाती नक्षत्र व मेष लग्न में हुआ था. इस वर्ष सभी संयोग मिल रहे है. इसलिए इस दिन महिलाएं शृंगार कर सौन्दर्य निखारेंगी। शाम को दक्षिणामुख होकर तेल के दीपक जलाएंगी। महिलाएं धन व ऐश्वर्य की कामना के लिए चंद्रमा के दर्शन करेगी।
Monday, November 9, 2015
छोटी दीपावली
छोटी दीपावली नरक चतुर्दशी को कहा जाता है। इसे कार्तिक माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को मनाया जाता है। इसे रूप चतुर्दशी भी कहा जाता है।
कारण या कथा-
इस दिन के व्रत और पूजा के विषय मेँ कथा यह है कि रन्तिदेव नामक एक धर्मात्मा राजा थे। उन्होने कभी अनजाने मेँ भी कोई पाप नहीँ किया था लेकिन जब उनकी मृत्यु का समय आया तो यमदूत उनके प्राण लेने आ पहुँचें। उन्हेँ सामने देख राजा आश्चर्यचकित होकर बोले - हे दूत! "मैने कभी कोई पाप कर्म नहीँ किया है फिर आप लोग मुझे लेने क्योँ आए है?" राजा दूतोँ से बोले कि आपके यहाँ आने का तात्पर्य है कि मुझे नरक जाना होगा।अतः आप मुझ पर कृपा करके बताएँ कि मुझसे क्या अपराध हुआ है। राजा की विनयपूर्ण वाणी सुनकर यमदूत ने कहा कि एक बार आपके द्धार से एक ब्राह्राण भूखा लौट गया था। यह उसी पाप का फल है।
यह सुनकर राजा ने यमदूतोँ से कहा कि उन्हेँ अपनी भूल को सुधारने का एक मौका दिया जाए। यमदूत ने राजा की प्रार्थना पर उन्हेँ एक वर्ष की मोहलत दे दी। इसके बाद राजा ब्राह्राणोँ के पास गए और उन्हेँ अपनी परेशानी से अवगत कराया। राजा के पूछने पर बाह्राण बोले -हे राजन्! आपको कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी का व्रत करके ब्राह्राणोँ को भोजन कराना होगा। इसके बाद उनसे अपने अपराध की क्षमा याचना करनी होगी। राजा ने वैसा ही किया और वे अपने पाप कर्म से मुक्त होकर बैकुंठ को गए।
इस प्रकार उस दिन से पाप और नरक से मुक्ति हेतु मृत्युलोक मेँ कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी का व्रत प्रचलित है।
क्रियाएँ-
इस दिन संध्या के पश्चात् दीपक जलाकर यमराज जी से अकाल मृत्यु से मुक्ति व स्वास्थ्य सुरक्षा के लिए उपासना की जाती है।
इसके अतिरिक्त इस दिन सुबह शरीर पर उबटन लगाकर पानी मेँ चिचड़ी की पत्तियोँ को डालकर स्नान किया जाता है। इससे सुंदरता प्राप्त होती है।
दीपावली
कार्तिक मास की अमावस्या का दिन दीपावली के रूप में पूरे देश में बडी धूम-धाम से मनाया जाता हैं। इसे प्रकाश का पर्व भी कहा जाता है।
कहा जाता है कि कार्तिक अमावस्या को भगवान रामचन्द्र जी चौदह वर्ष का बनवास पूरा कर अयोध्या लौटे थे। अयोध्या वासियों ने श्री रामचन्द्र के लौटने की खुशी में दीप जलाकर खुशियाँ मनायी थीं, इसी याद में आज तक दीपावली पर दीपक जलाए जाते हैं और कहते हैं कि इसी दिन महाराजा विक्रमादित्य का राजतिलक भी हुआ था। आज के दिन व्यापारी अपने बही खाते बदलते है तथा लाभ हानि का ब्यौरा तैयार करते हैं। दीपावली पर जुआ खेलने की भी प्रथा हैं। इसका प्रधान लक्ष्य वर्ष भर में भाग्य की परीक्षा करना है। लोग जुआ खेलकर यह पता लगाते हैं कि उनका पूरा साल कैसा रहेगा।
पूजन विधानः दीपावली पर माँ लक्ष्मी व गणेश के साथ सरस्वती मैया की भी पूजा की जाती है। भारत मे दीपावली परम्प रम्पराओं का त्यौंहार है। पूरी परम्परा व श्रद्धा के साथ दीपावली का पूजन किया जाता है। इस दिन लक्ष्मी पूजन में माँ लक्ष्मी की प्रतिमा या चित्र की पूजा की जाती है। इसी तरह लक्ष्मी जी का पाना भी बाजार में मिलता है जिसकी परम्परागत पूजा की जानी अनिवार्य है। गणेश पूजन के बिना कोई भी पूजन अधूरा होता है इसलिए लक्ष्मी के साथ गणेश पूजन भी किया जाता है। सरस्वती की पूजा का कारण यह है कि धन व सिद्धि के साथ ज्ञान भी पूजनीय है इसलिए ज्ञान की पूजा के लिए माँ सरस्वती की पूजा की जाती है।
इस दिन धन व लक्ष्मी की पूजा के रूप में लोग लक्ष्मी पूजा में नोटों की गड्डी व चाँदी के सिक्के भी रखते हैं। इस दिन रंगोली सजाकर माँ लक्ष्मी को खुश किया जाता है। इस दिन धन के देवता कुबेर, इन्द्र देव तथा समस्त मनोरथों को पूरा करने वाले विष्णु भगवान की भी पूजा की जाती है। तथा रंगोली सफेद व लाल मिट्टी से बनाकर व रंग बिरंगे रंगों से सजाकर बनाई जाती है।
विधिः दीपावली के दिन दीपकों की पूजा का विशेष महत्व हैं। इसके लिए दो थालों में दीपक रखें। छः चौमुखे दीपक दोनो थालों में रखें। छब्बीस छोटे दीपक भी दोनो थालों में सजायें। इन सब दीपको को प्रज्जवलित करके जल, रोली, खील बताशे, चावल, गुड, अबीर, गुलाल, धूप, आदि से पूजन करें और टीका लगावें। व्यापारी लोग दुकान की गद्दी पर गणेश लक्ष्मी की प्रतिमा रखकर पूजा करें। इसके बाद घर आकर पूजन करें। पहले पुरूष फिर स्त्रियाँ पूजन करें। स्त्रियाँ चावलों का बायना निकालकर कर उस रूपये रखकर अपनी सास के चरण स्पर्श करके उन्हें दे दें तथा आशीवार्द प्राप्त करें। पूजा करने के बाद दीपकों को घर में जगह-जगह पर रखें। एक चौमुखा, छः छोटे दीपक गणेश लक्ष्मीजी के पास रख दें। चौमुखा दीपक का काजल सब बडे बुढे बच्चे अपनी आँखो में डालें।
नरक चतुर्दशी
नरक चतुर्दशी का त्योहार हर साल कार्तिक कृष्ण चतुदर्शी को यानी दीपावली के एक दिन पहले मनाया जाता है। इस चतुर्दशी तिथि को छोटी दीपावाली के नाम से भी जाना जाता है। इस दिन प्रातः काल स्नान करके यम तर्पण एवं शाम के समय दीप दान का बड़ा महत्व है।
पुराणों की कथा के अनुसार भगवान श्री कृष्ण ने कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी तिथि को नरकासुर नाम के असुर का वध किया। नरकासुर ने 16 हजार कन्याओं को बंदी बना रखा था।
नरकासुर का वध करके श्री कृष्ण ने कन्याओं को बंधन मुक्त करवाया। इन कन्याओं ने श्री कृष्ण से कहा कि समाज उन्हें स्वीकार नहीं करेगा अतः आप ही कोई उपाय करें। समाज में इन कन्याओं को सम्मान दिलाने के लिए सत्यभामा के सहयोग से श्री कृष्ण ने इन सभी कन्याओं से विवाह कर लिया।
नरकासुर का वध और 16 हजार कन्याओं के बंधन मुक्त होने के उपलक्ष्य में नरक चतुर्दशी के दिन दीपदान की परंपरा शुरू हुई। एक अन्य मान्यता के अनुसार नरक चतुर्दशी के दिन सुबह स्नान करके यमराज की पूजा और संध्या के समय दीप दान करने से नर्क के यतनाओं और अकाल मृत्यु का भय नहीं रहता है। इस कारण भी नरक चतु्र्दशी के दिन दीनदान और पूजा का विधान है।
पुराणों की कथा के अनुसार भगवान श्री कृष्ण ने कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी तिथि को नरकासुर नाम के असुर का वध किया। नरकासुर ने 16 हजार कन्याओं को बंदी बना रखा था।
नरकासुर का वध करके श्री कृष्ण ने कन्याओं को बंधन मुक्त करवाया। इन कन्याओं ने श्री कृष्ण से कहा कि समाज उन्हें स्वीकार नहीं करेगा अतः आप ही कोई उपाय करें। समाज में इन कन्याओं को सम्मान दिलाने के लिए सत्यभामा के सहयोग से श्री कृष्ण ने इन सभी कन्याओं से विवाह कर लिया।
नरकासुर का वध और 16 हजार कन्याओं के बंधन मुक्त होने के उपलक्ष्य में नरक चतुर्दशी के दिन दीपदान की परंपरा शुरू हुई। एक अन्य मान्यता के अनुसार नरक चतुर्दशी के दिन सुबह स्नान करके यमराज की पूजा और संध्या के समय दीप दान करने से नर्क के यतनाओं और अकाल मृत्यु का भय नहीं रहता है। इस कारण भी नरक चतु्र्दशी के दिन दीनदान और पूजा का विधान है।
Sunday, November 8, 2015
अन्नपूर्णा देवी
काशी विश्वनाथ जी मंदिर के निकट दक्षिण दिशा में माँ अन्नपुर्णा देवी का मंदिर है जो भक्तों को अन्न धन प्रदान करने वाली माँ अन्नपूर्णा का दिव्य धाम है। दीपावली से पहले पड़ने वाले धनतेरस के दिन माँ का अनमोल खजाना खोला जाता है और श्रधालुयों में इसकों साल में केवल एक दिन धनतेरस के दिन बाटा जाता है जिसके पीछे की मान्यता है कि इस खजाने के पैसे को अगर अपने घर में रखा जाये तो कभी धन, सुख, और समृद्धि में कमी नहीं होती। माता अन्नपूर्णा ‘समस्त संसार का भरण पोषण करने वाली हैं। यह ही मनुष्यों को सुख-सौभाग्य, नित्य आनन्द, ऐश्वर्य और आश्रित को अभय प्रदान करने वाली हैं। धन-धान्य से सम्पन्न भूमि माता का जीता जागता स्वरुप हैं देवी अन्नपूर्णा। श्रीअन्नपूर्णा को माता पार्वती का ही स्वरुप बताया गया है। काशी की पारम्परिक नवगौरी-यात्रा में आठवीं भवानी गौरी तथा नवदुर्गा-यात्रा में अष्टम् महागौरीका दर्शन-पूजन अन्नपूर्णा मंदिर में ही होता है। अन्नपूर्णा माता की विधि पूर्वक पूजा करने से सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। माता अन्नपूर्णा अत्यन्त दयालु व वरदायिनी हैं। इनकी उपासना से अनेक जन्मों से चली आ रही दरिद्रता का निवारण हो जाता है। पौराणिक कथाओं के मुताबिक भगवान् शिव ज़ब काशी आये तो लोगों का पेट भरने के लिए उन्होंने माँ अन्नपूर्णा से भिक्षा मांगी थी। माँ ने भिक्षा के साथ साथ भगवान शिव को यह वचन भी दिया कि काशी में कभी भी कोई भूखा नही सोयेगा। क्योकि यह नगरी महादेव को अतिप्रिय है इसलिए देवी अन्नपूर्णा भी हमेशा के लिए यहीं बस गयीं। लेकिन माँ का दर्शन भक्तों को पुरे वर्ष में केवल चार दिनों के लिए ही मिलता है। यह अदभुत संयोग धनतेरस से लेकर दिवाली तक ही होता है । माता अन्नपुर्णा के मंदिर में स्वर्ण प्रतिमा का दर्शन धनतेरस के दिन से चार दिनों के लिये होता है। माँ के दर्शन करने के लिए पूरे भारतवर्ष से लोग आते है लेकिन धनतेरस के दिन माँ के दर्शन का विशेष महात्म्य है। भगवती अन्नपूर्णा की शरण में आने वाले को कभी धन-धान्य से वंचित नही होने पड़ता है ऐसा उनका आशीष माना जाता है। अन्नपूर्णा देवी की पूजा व उनकी उपासना करने से घर में कभी धन-धान्य की कमी नहीं होती है। भगवती लक्ष्मी जिस दिन पृथ्वी पर आयी वो त्रयोदशी तिथि थी इसीलिये कार्तिक मास की त्रयोदशी को धनतेरस मनराया जाता है। धनवंतरी जी भी आज के ही दिन हाथों में अमृत कलश लिये पृथ्वी पर आये थे। इस दिन धनवंतरी जयंती भी मनाई जाती। भक्ति और श्रद्धा से सराबोर इस अलौकिक नजारे को देखने और उसका एक हिस्सा बनने के लिए लोग दूर – दूर से माँ के दरबार में पहुचते हैं। अन्नपूर्णा पार्वती ही धन , धान्य, वैभव और सुख शान्ति की अधिष्ठात्री देवी है।
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