Tuesday, September 29, 2015

बनारस की गलियाँ

काशी की कुछ प्रमुख गलियाँ इस प्रकार हैं-
1. विश्वनाथ गली- काशी नगरी के हृदय में श्री काशी विश्वनाथ मंदिर स्थित है। इस मंदिर के प्रांगण में स्वयं भगवान शंकर ज्योर्तिलिंग के रूप में प्रतिष्ठित हैं। ऐसी मान्यता है कि विश्वनाथ जी के दर्शन से सभी द्वाद्वश ज्योर्तिलिंगों के दर्शन का फल मिलता है। विश्वनाथ जी के नाम पर ही इस गली का नाम विश्वनाथ गली पड़ा। यह काशी की सबसे प्रसिद्ध गली है। यह गली, ज्ञानवापी, चौक से शुरू होकर विश्वनाथ मंदिर होते हुये दशाश्वमेध घाट तक जाती है। विश्वनाथ गली व्यावसायिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण स्थान रखती है। इस गली में कपड़े, श्रृंगार के सामान तथा लकड़ी के बने खिलौने मिलते हैं जो पूरे भारत वर्ष में प्रसिद्ध हैं।
2. कचौड़ी गली- यह गली विश्वनाथ गली के ठीक पीछे स्थित है। इस गली की विशेषता यह है कि यहाँ पर स्थित अधिकांश दुकानें कचौड़ी की हैं। इसी कारण गली का नाम कचौड़ी गली पड़ा। यहाँ दुकानें सुबह से ही खुल जाती हैं तथा बारह बजे रात तक खुली रहती हैं। दुकानदारों में ऐसी मान्यता है कि उनके दुकानों पर भगवान शिव के गण स्वयं कचौड़ी तथा मिठाई खाने आते हैं। यहाँ पर कचौड़ी खाने वालों की भीड़ सुबह सात बजे से शुरू हो जाती है जो कि रात तक जारी रहती है। यह गली भी विश्वनाथ गली की ही तरह घाट के पास निकलती है। इस गली में कचौड़ी के अलावा पौराणिक किताबों, ग्रन्थों तथा बही खातों की दुकानें भी हैं।
3. खोवा गली- जैसा की नाम से ही प्रतीत हो रहा है कि “खोवा गली” अर्थात् इस गली में खोवा की बहुत बड़ी मण्डी लगती है। खोवा की इतनी बड़ी मण्डी शायद ही भारत के किसी शहर में लगती हो। इसी कारण से इस गली का नाम खोवा गली पड़ गया।
4. ठठेरी (बाजार) गली- यह गली चौक क्षेत्र में स्थित है। इस गली में पहले ठठेरा लोग रहते थे जो बर्तन इत्यादि का निर्माण किया करते थे। आज भी इस गली में पीतल के बर्तन बनते और बिकते हैं। पीतल के बर्तन व उससे बने सामानों का सबसे बड़ा बाजार इस गली में है। गली में अन्दर जाकर भारत के युग निर्माता तथा प्रसिद्ध कवि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जी का निवास तथा उससे कुछ दूरी पर अग्रसेन महाजनी पाठशाला है।
5. दालमण्डी गली- यह गली काशी के दो महत्वपूर्ण बाजार चौक तथा नई सड़क को आपस में जोड़ती है। इस गली में कपड़े-जूते-चप्पल तथा इलेक्ट्रानिक्स की दुकानें तथा श्रृंगार की वस्तुएँ थोक में मिलती हैं। राजाओं-महाराजाओं के समय में इस गली में नृत्यांगनायें रहा करती थीं जिनके यहाँ नृत्य, संगीत का आनन्द लेने के लिये नगर के धन्ना सेठ जाया करते थे। लखनऊ की प्रसिद्ध नृत्यांगना उमराव-जान लखनऊ छोड़कर दालमण्डी में बस गयीं थीं, उनका अन्तिम समय यहीं व्यतीत हुआ। काशी में ही उनकी कब्र आज भी स्थित है।
6. नारियल (बाजार) गली- यह गली चौक थाना के ठीक पीछे है जो दालमण्डी गली में आकर मिलती है। इस गली में नारियल, विवाह से सम्बन्धित सामान बिकते हैं। नारियल की बड़ी मण्डी होने के कारण इस गली का नाम नारियल बाजार पड़ा।
7. घुंघरानी गली-यह गली दालमण्डी से निकली है तथा दालमण्डी और काशी के मुख्य बाजार बाँसफाटक को आपस में जोड़ती है। इस गली में भी इलेक्ट्रॉनिक्स की दुकानें हैं।
8. गोविन्दपुरा गली- यह गली चौक क्षेत्र में है तथा चौक मजार से पहले अवस्थित है। इसमें सोने-चाँदी के आभूषण, रत्न इत्यादि की दुकानें हैं। यह गली चौक, नारियल बाजार, रेशम कटरा को आपस में जोड़ती है।
9. रेशम कटरा गली- यह गली गोविन्दपुरा गली की मुख्य शाखा है। इसमें भी सोने-चाँदी के आभूषण की दुकाने हैं। यहाँ सोने-चाँदी के आभूषणों का निर्माण किया जाता है।
10. विन्ध्यवासिनी गली- इस गली को विन्ध्याचल की गली भी कहा जाता है। इस गली में विन्ध्याचल माता का मंदिर है जो मिर्जापुर में स्थित विन्ध्याचल मंदिर की प्रतिमा का प्रतिरूप है। इस कारण मंदिर को विन्ध्वासिनी मंदिर कहा जाता है जिसके नाम पर इस गली का नाम विन्ध्यवासिनी गली पड़ा। यह गली काशीपुरा क्षेत्र से शुरू होती है तथा रेशम कटरा में जाकर मिलती है।
11. कालभैरव गली- यह गली विश्वेश्वरगंज क्षेत्र में है। यह भैरोनाथ चौराहा से आरम्भ होकर कालभैरव मंदिर तक फैली है। कालभैरव जी काशी के कोतवाल हैं जो भगवान शंकर के प्रधान सेनापति हैं। ऐसी मान्यता है कि काशी में कोई व्यक्ति तभी निवास कर सकता है जब कालभैरव जी की अनुमति मिलती है। कालभैरव जी के नाम पर इस गली का नाम कालभैरव गली पड़ा। यहाँ स्थित मोहल्ले का नाम भैरवनाथ है।
12. भूतही इमिली की गली- यह गली मैदागिनी क्षेत्र में स्थित टाउनहाल मैदान के पीछे है। यह मालवीय मार्केट से आरम्भ होकर भैरोनाथ क्षेत्र तक जाती है। कहा जाता है कि इस गली में इमली का पेड़ था जिस पर भूत तथा चुड़ैल निवास करती थी जिसकी वजह से लोग इधर से गुजरने में डरते थे। परन्तु अब ऐसी कोई बात नहीं है। किन्तु पहले जो नाम था वही आज भी है।
13. सप्तसागर गली- यह गली मैदागिन क्षेत्र में है तथा टाउनहाल मैदान के गेट के ठीक सामने से शुरू होती है तथा नखास की ओर निकलती है। इस गली में पूर्वांचल की सबसे बड़ी दवा मण्डी है।
14. आसभैरव गली- यह गली नीचीबाग क्षेत्र में है। आस-भैरव के मन्दिर के नाम पर इस गली का नाम आसभैरव गली पड़ा। इस गली में सिक्खों का पवित्र गुरुद्वारा स्थित है।
15. कर्णघंटा गली- यह गली कर्णघंटा क्षेत्र में पड़ती है। कर्णघंटा से शुरू होकर रेशम कटरा तक जाती है। यहीं पर विन्ध्यवासिनी गली भी आकर मिलती है। कर्णघंटा क्षेत्र में छपाई व कागज सम्बन्धित सभी सामानों का बहुत बड़ा मार्केट है।
16. गोला दीनानाथ गली- गोला दीनानाथ गली में पूर्वांचल की सबसे बड़ी मसाले की मण्डी है। यह कबीरचौरा क्षेत्र में स्थित है। इस मण्डी में भगवान दीनानाथ का मन्दिर होने से इसका नाम गोला दीनानाथ पड़ा तथा इस मण्डी में आने वाली सभी गलियों को गोला दीनानाथ की गली के नाम से जाना जाता है। इस मण्डी के चारों तरफ गलियाँ हैं।
17. गोपाल मंदिर की गली- यह गली बुलानाला क्षेत्र से प्रारम्भ होकर गोपाल मंदिर तक जाती है। इस मन्दिर में गोपाल जी की अष्टधातु निर्मित प्रतिमा है। ऐसी मान्यता है कि इस प्रतिमा की पूजा महारानी कुन्ती करती थीं। यह प्रतिमा महारानी कुन्ती द्वारा स्थापित की गई है। जन्माष्टमी के समय इस मन्दिर तथा गली को दुल्हन की भाँति सजाया जाता है।
18. पत्थर गली- काशी में पत्थर की गली दो क्षेत्र में है। एक जतनबर की पत्थर गली तथा दूसरी चौक क्षेत्र की पत्थर गली। चौक क्षेत्र की पत्थर गली में सभी मकान पत्थर के थे, इसलिये उसका नाम पत्थर गली पड़ा तथा जतनबर की पत्थर गली में पत्थर का गेट बना था जिसके कारण उसका नाम पत्थर गली पड़ा। अब पत्थर का गेट नहीं है।
19. हनुमान गली- यह गली हनुमान घाट से प्रारम्भ होकर अस्सी तथा गोदौलिया मार्ग को आपस में जोड़ती है। हनुमान घाट के निर्माण के साथ ही इस गली का निर्माण हुआ। हनुमान घाट के नाम पर गली का नाम हनुमान गली पड़ा।
20. तुलसी गली- यह गली अस्सी क्षेत्र में पड़ती है। गोस्वामी तुलसीदास के नाम पर इस गली का नाम तुलसी गली पड़ा। गोस्वामी तुलसीदास जी की मृत्यु इसी गली में हुई थी।
21. गुदड़ी गली- इस गली में “बड़ा गुदड़ जी” तथा “छोटा गूदड़ जी” के नाम के दो प्रसिद्ध अखाड़े थे। इनका निर्माण अट्टारहवीं शताब्दीं में हा था। ये अखाड़े आज भी वहाँ पर अवस्थित है। इन्हीं अखाड़ों के नाम पर ही इसका नाम गुदड़ी गली पड़ा। यह गली तुलसी गली से ही निकली है।
22. शिवाला गली- यह गली शिवाला घाट से आरम्भ होती है तथा शिवाला घाट को मुख्य मार्ग से जोड़ती है। शिवाला घाट के नाम पर ही इस क्षेत्र का नाम शिवाला पड़ गया तथा इस गली का नाम शिवाला गली पड़ा।
23. खिड़की गली- यह गली खिड़की घाट से प्रारम्भ होती है। खिड़की घाट का निर्माण बैजनाथ मिश्र ने करवाया था। यह घाट लगभग दो सौ वर्ष पुराना है। अतः गली भी उतनी ही पुरानी है।
24. जुआड़ी गली- ऐसा कहा जाता है कि प्रसिद्ध जुआड़ी नन्द दास ने जुए की एक दिन की कमाई से इसे बनवाया था। इसलिये इस गली का नाम जुआड़ी गली पड़ा। यह गली अब विलुप्त हो चुकी है।
25. ढुंढीराज गली- यह गली चौक क्षेत्र के ज्ञानवापी से आरम्भ होती है तथा दण्डपाणि भैरव मन्दिर तक जाती है। इस गली में गणेश जी का मन्दिर है जो गणनाथ विनायक के नाम से जाने जाते है।
26. संकठा गली- यह गली संकठा घाट से आरम्भ होती है। गली में संकठा देवी का प्रसिद्ध मन्दिर है जिसका निर्माण गोहनाबाई ने करवाया था। संकठा देवी नाम पर ही गली का नाम संकठा गली पड़ा तथा घाट का नाम संकठा घाट पड़ा। संकठा देवी के मन्दिर के बगल में ही कात्यायनी देवी का भी मन्दिर है। यह गली विश्वनाथ गली से आकर मिलती है।
27. पशुपतेश्वर गली- यह गली चौक क्षेत्र से आरम्भ होकर रामघाट तक जाती है। इस गली में पशुपतेश्वर महादेव का मन्दिर है। उन्हीं के नाम पर इस गली का नाम पशुपतेश्वर गली पड़ा।
28. पंचगंगा गली- पंचगंगा घाट के नाम पर इस गली का नाम पंचगंगा गली पड़ा। ऐसी मान्यता है कि पंचगंगा घाट पर पाँच नदियों का संगम होता है। गंगा, जमुना, सरस्वती के अलावा दो नदियाँ “सुकिरणा” जो भगवान सूर्य की प्रतिमा से निकलती है तथा “धूतपापा” जो घाट पर ही जमीन से निकली है। पाँच नदियों के संगम के कारण इस घाट का नाम पंचगंगा घाट पड़ा। ऐसा पुराणों में वर्णित है कि स्वयं तीर्थराज प्रयाग गंगा दशहरा के दिन अपने पाप धोने इसी घाट पर आते हैं। यही गली पंचगंगा घाट से आरम्भ होकर ब्रह्माघाट, दुर्गाघाट, राजमन्दिर, गायघाट, त्रिलोचन घाट, प्रहलाद घाट की गलियों को आपस में जोड़ती है। यह गली बहुत बड़ी तथा प्रसिद्ध है।
29. चौरस्ता गली- यह गली गायघाट से प्रारम्भ होती है और त्रिलोचन घाट, तेलियानाला होते हुये चौखम्भा तक जाती है। चौखम्भा में बीबी हटिया की पतली गली में मिलती है।
30. नेपाली गली- सुप्रसिद्ध नेपाली मन्दिर के नाम पर ही इस गली का नाम नेपाली गली पड़ा। यह विश्वनाथ गली तथा ललिता घाट को आपस में जोड़ती है। नेपाली मन्दिर के नाम पर ही इस मोहल्ले का नाम नेपाली खपड़ा पड़ा।
31. सिद्धमाता गली- यह गली मैदागिन क्षेत्र के गोलघर में स्थित है। यह गोलघर को बुलानाला मुख्य मार्ग से जोड़ती है। इस गली में सिद्धमाता देवी का मन्दिर है।
32. कामेश्वर महादेव गली- यह गली मच्छोदरी पर बिड़ला हॉस्पिटल के सामने से प्रारम्भ होती है जो कामेश्वर महादेव मन्दिर तक जाती है।
33. त्रिलोचन महादेव गली- यह गली गायघाट से प्रारम्भ होकर त्रिलोचन महादेव मन्दिर तक जाती है तथा कामेश्वर महादेव गली से आपस में मिलती है।
34. पाटन दरवाजा गली- यह गली गायघाट से शुरू होकर बद्री नारायण घाट तक जाती है।
35. भार्गव भूषण प्रेस वाली गली- मच्छोदरी स्थित भार्गव भूषण प्रेस को मच्छोदरी मुख्य मार्ग से जोड़ती है। इसलिए इस गली को भार्गव भूषण प्रेस वाली गली कहते हैं।
36. लट्ट गली- यह गली जतनबर में स्थित है तथा गणेश गली को आपस में जोड़ती है।
37. नइचाबेन गली- यह गली कोयला बाजार से प्रारम्भ होकर बहेलिया टोला तक जाती है।
38. नचनी कुआँ गली- यह गली भी कोयला बाजार से प्रारम्भ होकर भदऊ चुँगी तक जाती है।
39. चित्रघंटा गली- यह गली चौक क्षेत्र से प्रारम्भ होकर रानी कुआँ तक जाती है तथा इस गली में चित्रघंटा माता का मन्दिर स्थित है।
40. गढ़वासी टोला गली- यह गली चौखम्भा से प्रारम्भ होकर संकठा की गली में जाकर मिलती है।
41. भारद्वाजी टोला गली- यह गली प्रहलाद घाट से प्रारम्भ होकर भदऊ चुँगी तक जाती है।
42. हाथी गली- यह गली बीबी हटिया की गली से प्रारम्भ होकर दादुल चौक होते हुए ब्रह्मा घाट तक जाती है।
43. कातरा गली- यह गली राजमन्दिर क्षेत्र में पड़ती है। यह अत्यन्त छोटी गली है इस गली में केवल 4 से 5 मकान ही पड़ते हैं। यह गली एक तरफ से बन्द है।
44. चौखम्भा गली- यह गली चौखम्भा क्षेत्र से शुरू होकर ठठेरी बाजार की गली में आकर मिलती है।
45. सुग्गा गली- सुग्गा गली ठठेरी बाजार से प्रारम्भ होकर रानी कुआँ तक जाती है। इस गली पर सिन्नी टुल्लु का पहला कारखाना था।
46. गोला गली- ठठेरी बाजार स्थित भारतेन्दु भवन के पीछे की गली।

Monday, September 28, 2015

रामनगर रामलीला

काशी के रामनगर इलाके की रामलीला दुनिया में मशहूर है। इसका इतिहास बड़ा ही दिलचस्प है। इलेक्ट्रिक लाइट और बल्ब के जमाने में यहां आज भी पेट्रोमैक्स की रोशनी में रामलीला होती है। इसे देखने के लिए देश-विदेश के श्रद्धालु जुटते हैं। साल 1855 में राजा महीपनारायण सिंह ने रामनगर में रामलीला की शुरुआत की थी। ओपन थियेटर की तर्ज पर होने वाली लीलाओं में यह दुनिया की सबसे बड़ी रामलीला है।
माना जाता है कि तुलसीदास ने काशी में सबसे पहले रामलीला की शुरुआत की थी। वे वाराणसी के अलग-अलग मोहल्लों और घाटों पर रामलीला, कृष्णलीला, नरसिंघलीला और वामन लीलाओं का मंचन कराते थे। एक बार महराज महीपनारायण सिंह चुनार में रामलीला के मुख्य अतिथि थे। उन्हें रामलीला स्थल पहुंचने में थोड़ी देर हो गई। तब तक राम द्वारा धनुष तोड़े जाने का मंचन हो चुका था। महाराज को इस नहीं देख पाने का बड़ा मलाल हुआ। ऐसे में उन्हें रामनगर किले में रामलीला की शुरुआत की।
रामलीला की 10 अंजान बातें
1. एक बार महराजा महीपनारायण सिंह के बेटे युवराज उदित नारायण सिंह काफी बीमार थे। रामलीला देखने के दौरान महाराज ने युवराज के ठीक होने की प्रार्थना की। इसी दौरान लीला में भगवान राम बने पात्र ने अपने गले की माला उतार कर राजा को दे दी। राजा ने युवराज को यह माला पहना दी। बस फिर क्या था, अगले ही दिन युवराज पूरी तरह से ठीक हो गए।
2. काशी में उस समय हजारों साधु-संत रहते थे। रामनगर की लीला के दौरन राजघराने के लोग इन्हें किले में इकट्ठा करते थे। उन्हें दान में कीमती चीजें दी जाती थी। ऐसा काशी में भगवान शिव की कृपा को बनाए रखने के लिए किया जाता था।
3. रामलीला के मंचन से पहले रामनगर में अलग-अलग जगहों पर अयोध्या, जनकपुर, अशोक वाटिका, लंका जैसे स्थल बनाए जाते थे। इसके साथ ही धनुषयज्ञ, राज्याभिषेक, सीताहरण, रावणवध जैसी लीलाओं का मंचन महाराजा की मौजूदगी में होता था।
4. पं. कमलाकर मिश्रा ने बताया कि रामनगर की लीला 31 दिन चलती है। यह वक्त भाद्रपद शुक्ल चतुर्दशी से लेकर अश्विन पूर्णिमा तक होता है। इस दौरान हर रोज शाम पांच बजे बिगुल बजता है। इसके बाद महराज की सवारी निकलती है। इसके दो घंटे बाद लीला शुरू हो जाती है, जो रात दस बजे तक चलती है।
5. रामनगर की रामलीला में नाच-गाना नहीं होता है। सिर्फ डायलॉग के जरिए लीलाओं का मंचन किया जाता है।






















आइये जाने की क्या हैं त्रिपिंडी श्राद्ध

पितरों की प्रसन्ता‍ के लिये धर्म के नियमानुसार हविष्ययुक्त पिंड प्रदान आदि कर्म करना ही श्राध्द कहलाता है। श्राध्द करने से पितरों कों संतुष्टि मिलती है और वे सदा प्रसन्न रहते हैं और वे श्राध्द कर्ता को दीर्घायू प्रसिध्दि, तेज स्त्री पशु एवं निरागता प्रदान करते है। और्ध्वदैविक सांवत्सारिक, एकोदिष्ट पार्वण तथा भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष में किये जाने वाले श्राध्द कुल पांच प्रकार के हैं। कोई विशेष इच्छा मन में रखकर किया जाने वाला कार्य काम्य कहलाता हैं। 
नारायण बलि, नागबलि एवं त्रिपिंडी ये तीन श्राध्द कहलाते है। पितरो को प्रसन्न करने के लिए किए जाने वाले श्राध्द को शास्त्र में पितृयज्ञ से संम्बोदधित किया गया है। पितर ही अपने कुल की रक्षा करते हैं, इसलिये श्राध्द करके उन्हें संतुष्ट रखें ऐसा वचन शास्त्रों का है। जिस घर परिवार के पितर खुश रहते हैं उसमें कभी भी किसी प्रकार का कष्ट नहीं आता। 
तमोगुणी, रजोगुणी एवं सत्यगुणी ऐसी तीन प्रेतयोनिया है| पृथ्वी पर वास्तव्य करने वाले पिशाच्च तमोगुणी, अंतरिक्षमें वास्तव्य करनेवाले पिशाच्च रजोगुणी एवं वायु मंडल मे वास्तव्य करने वाले पिशाच्च सत्वगुणी होते है| इन तीनो प्र्कारके प्रेतयोनि की पिशाच्चपीडा परिघरार्थ त्रिपिंडी श्राद्ध किया जाता है|हमारे कुल वंश को पीडा देने वाले प्रेतयोनी को प्राप्त जिवात्मायों की इस श्राद्ध कर्म से तृप्ती हो और उनको सदगती प्राप्त हो, ऐसी प्रार्थना के साथ यह कार्य किया जाता है| सोना, चांदी, ताबा, गाय, चावल(जव), कालेतील, उडद,छत्र- खडावा दान देकर यह कार्य पूर्ण होता है| 
त्रिपिंडी श्राद्ध विधी करने का अधिकार विवाहित पती-पत्नी यह विधी कर सकते है| अविवाहीत व्यक्ती भी यह विधी कर सकते है| त्रिपिंडी श्राद्ध में ब्रह्मा, विष्णू और महेश इनकी प्रतिमाए उनका प्राण प्रतिष्ठा पूर्वक पूजन किया जाता है| हमे सताने वाला, परेशान करने वाला पिशाच्च योनिप्राप्त जो जीवात्मा रहता है उसका नाम एवं गोत्र हमे द्न्यात नही होने से उसके लिए "अनादिष्ट गोत्र" का शब्दप्रयोग किया जाता है| अंतता इसके प्रेतयोनिप्राप्त उस जिवात्मा को संबोधित करते हुए यह श्राद्ध किया जाता है| त्रिपिंडी श्रद्ध जीवनभर दरिद्रता अनेक प्रकारसे परेशानीया, श्राद्ध कर्म, और्ध्ववैदिक क्रिया शास्त्र के विधी के अनुसार न किये जाने के कारण भूत, प्रेत, गंधर्व, राक्षस, शाकिणी - डाकिणी, रेवती, जंबूस आदि द्वारा पिडाए उत्पन्न होती है.. 
लगातार तीन वर्ष तक जिनका श्राध्द न किया गया हो, उनको प्रेतत्‍व प्राप्त होता है और वह दूर करने के लिए यह श्राध्द करना चाहिये। यह श्राद्ध सिर्फ त्र्यंबकेश्वर में ही करना चाहिये |
यह पूजा अपघाती मृत्यु, प्रेत पीडा, पिशाच्य बाधा, शापीत कुंडली, पितृ दोष आदी कारण की जाती है. मानव का एक मास पित्रों का एक दिन होता है। अमावस्या पित्रों की तिथी है। इस दिन दर्शश्राध्द होता है। अतृप्त पितर प्रेतरूपसे पीडा देते है। इस लिये त्रिपिंडी श्राध्द करना चाहिए। इसका विधान 'श्राद्ध चितांमणी' इस ग्रंथमे बताया है। 
कार्तिके श्रावण मासे मार्गशीर्ष तथैवच। 
माघ फाल्गुन वैशाखे शुक्ले कृष्ण तथैवच। 
चर्तुदश्या विशेष्ण षण्मासा: कालउच्यते। 
अन्यच्च कार्तिकादि चर्तुमासेषु कारयेत्।।
तथापि दोष बाहुल्ये सति न कालापेक्षा।।

इस विधी को श्रावण, कार्तिक, मार्गशिर्ष, पौष, माघ, फाल्गुन और वैशाख मुख्य मास है ५, ८, ११, १३, १४, ३० में शुक्ल तथा कृष्ण पक्ष की तिथीयाँ और रविवार दिन बताया गया है। किंन्तु तीव्रवार पिडा यदि हो रही है तो तत्काल त्रिपिडी श्राध्द करना उचित है। इसके लिए गोदायात्रा विवेका-दर्शा में प्रमाण दिया है। 
अवर्णनियो महिमा त्रिपिंडी श्राद्व-कर्मण। 
अत: सर्वेषु कालेषु त्र्यंबकेंतु विशिष्यते।।इस कर्म के पिंड प्रदान में 'येकेचिप्रेरुपेण पीडयंते च महेश्वर' ऐसा वचन आया है। रघुवंश महाकाव्य में कालिदासने 'महेश्वर, (त्र्यंबक) एवं नापर : कहा है। अत: महेश्वर संज्ञा त्र्यंबकेश्वरके लिये ही है। महेश्वर (त्र्यंबक) जो कोई हमे प्रेतरूप में दुर्धर पडा दे रहे हो उन सभी को नष्ट कर दे 'ऐसी मेरी प्रार्थना है। प्रेतरूपी के पितर रवि जब कन्या और तुल राशी मे आता है तब पृथ्वीपर वार करते है। श्राद्ध के लिए यह काल भी योग्य है, महत्व का है। यह कामश्राद्ध होनेसे पिडा दूर होती। अत: नवरात्रमे यह कामश्राद्ध न करे। वैसेही त्रिपिंडी श्राद्ध और तीर्थश्राद्ध एकही दिन न करके अलग अलग करे। और यदि समय न हो तो प्रथमत: त्रिपिंडी कर्म पुरा करके बाद तीर्थश्राद्ध करे।

'प्रेताय सदगति दत्वा पार्वणादि समाचरेत्। 
पिशाच्चमोचनेतीर्थ कुशावर्ते विशेषत।। 
यह कर्म पिशाच्चविमोचन तीर्थ अथवा कुशावर्त तीर्थपर करे। इस विधी मे ब्रम्हा, विष्णु, रुद्र (महेश) प्रमुख देवता है। ये द्विविस्थ, अंतरिक्षस्थ, भूमिस्थ और वृद्ध अवस्था के अनादिष्ट प्रेतों को सदगति देते है। अत: विधिवत एकोद्दिष्ट विधिसे त्रिपिंडी श्राद्ध करे। इस विधी के पूर्व गंगाभेट शरीर शुध्यर्थ प्रायश्चित्तादि कर्म करे। यहा क्षौर करने की जरूरत नही। किंन्तु प्रायश्चित अंगभूत क्षौर के लिए आता है। त्रिपिंडी विधी सपत्निक नूतन वस्त्र पहनकर करे। यह विधी जो अविवाहीत है अथवा जिसकी पत्नी जीवित नही है वो कर सकता है। इसमें देवता ब्रम्हा (रौप्य), विष्णु (सुवर्ण), रुद्र (ताम्र) धातू की होती है। ============================================= 
और्ध्वदैहिक :----- 
यह मृतकों का श्राध्द है। जो व्याक्ति जिस तिथि को देह त्याग देता हैं, उस तिथि को हर वर्ष यह श्राध्द किया जाता है। इसी महालय श्राध्‍द को पार्वण श्राध्द कहा जाता है । हर पंचाग में भाद्रपद मास के पन्ने पर जो शास्त्रार्थ लिखा जाता है और प्रत्येक तिथी का श्राध्द किस तारीख को किया जाना चाहिए, इस विषय की जानकारी छापी जाती है। तीर्थस्थल में किया जाने वाला श्राध्द तीर्थश्राध्द, कहलाता है। त्रिपिंडी श्राध्द को एकोदिष्ट श्राध्दा भी कहा जाता है। 
जानिए की क्या हैं त्रिपिंडी श्राध्द --- 
त्रिपिंडी काम्‍य श्राध्द है। लगातार तीन वर्ष तक जिनका श्राध्द न किया गया हो, उनको प्रेतत्‍व प्राप्त होता है। अमावस्या पितरों की तिथि है। इस दिन त्रिपिंडी श्राध्द करें। तमोगुणी, रजोगुणी एवं सत्तोगुणी - ये तीन प्रेत योनियां हैं। पृथ्वीपर वास करने वाले पिशाच तमोगुमी होते है। अंतरिक्ष में वास करने वाले पिशाच रजोगुणी एवं वायुमंडल पर वास करने वाले पिशाच सत्तोगुणी होते है। इन तीनों प्रकार की प्रेतयोनियो की पिशाच पीडा के निवारण हेतु त्रिपिंडी श्राध्द किया जाता है। कई साल तक पितरों का विधी पूर्वक श्राध्द न होने से पितरों को प्रेतत्व प्राप्त होता है।श्राध्द कमलाकर ग्रंथ में साल मे ७२ दफा पितरों का श्राध्द करना चाहिए यह कह गया है।

अमावस्या व्दादशैव क्षयाहव्दितये तथा।षोडशापरपक्षस्य अष्टकान्वष्टाकाश्च षट॥ 
संक्रान्त्यो व्दादश तथा अयने व्दे च कीर्तिते।चतुर्दश च मन्वादेर्युगादेश्च चतुष्टयम॥ 
श्राध्द न करने से पितर लोग अपने वंशजों का खून पिते है यह आदित्यपुराण मे कहा है। न सन्ति पितरश्र्चेति कृत्वा मनसि यो नरः। श्राध्दं न कुरुते तत्र तस्य रक्तं पिबन्ति ते॥(आदित्यपुराण) श्राध्द न करने से होनेवाले दोष त्रिपिंडी श्राध्द से समाप्त होते है।जैसे भूतबाधा,प्रेतबाधा,गंधर्व राक्षस शाकिनी आदि दोष दूर करने के लिए त्रिपिंडी श्राध्द करने की प्रथा है| घर में कलह, अशांती,बिमारी,अपयश,अकाली मृत्य,वासना पूर्ति न होना,शादी वक्त पर न होना,संतान न होना इस सब को प्रेत दोष कहा जाता है।धर्म ग्रंथ में धर्म शास्त्र के नुसार सभी दोष के निवारण के लिए त्रिपिंडी श्राध्द करना को सुचित किया गया है। 
त्रिपिंडी श्राध्द में ब्रम्हदेव,विष्णु,रुद्र ये तिन देवताओंकी प्राणप्रतिष्ठापूर्वक पुजा की जाती है।त्रिपिंडी श्राध्द में सात्विक प्रेत दोष निवारण के लिए ब्रम्ह पुजन करते है और यव का पिंड दिया जाता है।राजस प्रेत दोष निवारण के लिए विष्णु पुजन करते है और चावल का पिंड दिया जाता है।तामसप्रेत दोष निवारण के लिए तिल्लिका पिंड दिया जाता है और रुद्र पुजन करते है। 
यह पुजा सभी अतृप्त आत्माओंके मोक्ष प्राप्ती के लिए कियी जाती है।त्रिपिंडी श्राध्द में अपने गोत्र,पितरोंके नाम का नही किया जाता।कारण कौनसी पितरों की बाधा है।इस के बारेमे शाश्वत ज्ञान नहि होता।सभी अतृप्त आत्माओंकी मोक्ष प्राप्ती के लिए त्रिपिंडी श्राध्द करने का शास्त्र धर्मग्रंथ में बताया गया है। त्रिपिंडी श्राध्द का आरम्भ करने से पूर्व किसी पवित्र नदी या तीर्थ स्थात में शरीर शुध्दि के लिये प्रायश्चित के तौर पर क्षौर कर्म कराने का विधान है। त्रिपिंडी श्राध्द में ब्रह्मा, विष्णु् और महेश इनकी प्रतिमाएं तैयार करवाकर उनकी प्राण-प्रतिष्ठापुर्वक पूजन किया जाता है। ब्राह्मण से इन तीनों देवताओं के लिये मंत्रों का जाप करवाया जाता है। हमें सतानेवाला, परेशान करने वाला पिशाचयोनि प्राप्त जो जीवात्मा है, उसका नाम एवं गोत्र हमे ज्ञात नहीं होने से उसके लिये अनाधिष्ट गोत्र शब्द‍ का प्रयोग किया जाता है। अंतत: इससे प्रेतयोनि प्राप्त उस जीवात्मा को सम्बोधित करते हुए यह श्राध्द किया जाता है। जौ तिल, चावल के आटे के तीन पिंड तैयार किये जाते हैं। जौ का पिंड समंत्रक एवं सात्विक होता हे, वासना के साथ प्रेतयोनि में गये जीवात्मा को यह पिंड दिया जाता है। चावल के आटे से बना पिंड रजोगुणी प्रेतयोनी में गए प्रेतात्माओ को दिया जाता है। इन तीनों पिंडो का पूजन करके अर्ध्यं देकर देवाताओं को अर्पण किये जाते है। हमारे कुलवंश को पिडा देने वाली प्रेतयोनि को प्राप्त जीवात्मा ओं को इस श्राध्द कर्म से तृप्ती हो और उनको सदगति प्राप्त हो, ऐसी प्रार्थना के साथ यह कर्म किया जाता है। सोना, चांदी,तांबा, गाय, काले तिल, उडद, छत्र-खडाऊ, कमंडल में चीजें प्रत्यक्ष रुप में या उनकी कीमत के रुप में नकद रकम दान देकर अर्ध्य दान करने के पश्चात ब्राह्मण एवं सौभाग्यीशाली स्त्री को भोजन करवाने के पश्चाडत यह श्राध्दं कर्म पूर्ण होता है।

काशी के पिशाच मोचन कुंड में शुरू हुआ त्रिपिंडी श्राद्ध

पितृ पक्ष के पहले दिन सोमवार से ही काशी के पिशाच मोचन कुंड पर त्रिपिंडी श्राद्ध शुरू हो गया है। मान्यता के अनुसार, काशी के प्राचीन पिशाच मोचन कुंड पर होने वाले त्रिपिंडी श्राद की से पितरों को प्रेत बाधा और अकाल मृत्यु से मरने के बाद विकारों से मुक्ति मिल जाती है। इसीलिए पितृ पक्ष के दिनों तीर्थ स्थली पिशाच मोचन पर लोगों की भारी भीड़ उमड़ती है। यह भी मान्‍यता है कि वाराणसी में पिंड दान करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है क्योंकि काशी भगवान शिव की नगरी है।
बताते चलें कि 12 महीने चैत्र से फाल्गुन तक 15- 15 दिन का शुक्ल और कृष्ण पक्ष का होता है, लेकिन आश्विन मास के कृष्ण पक्ष से शुरू होता है। पितृ पक्ष के 15 दिन पितरों की मुक्ति के माने जाते हैं और इन 15 दिनों के अंदर देश के विभिन्न तीर्थ स्थलों पर श्राद और तर्पण का कार्य होता है। इसके लिए काशी के अति प्राचीन पिशाच मोचन कुंड पर त्रिपिंडी श्राद होता है। यह पितरों को प्रेत बाधा और अकाल मृत्यु से मरने के बाद विकारों से मुक्ति दिलाता है। इस श्राद कार्य में इस पवित्र तीर्थ पर संस्कृत के श्लोकों के साथ तीन मिट्टी के कलश की स्थापना की जाती है, जो काले, लाल और सफेद झंडों से सजाए जाते हैं।
तीन तरह की होती हैं प्रेत बाधाएं
प्रेत बधाएं तीन तरीके की होती हैं। इनमें सात्विक, राजस, तामस शामिल हैं। इन तीनों बाधाओं से पितरों को मुक्ति दिलवाने के लिए काला, लाल और सफेद झंडे लगाए जाते हैं। इसको भगवान शंकर, ब्रह्म और कृष्ण के ताप्‍तिक रूप में मानकर तर्पण और श्राद का कार्य किया जाता है। इस पिशाच मोचन तीर्थ स्थल का वर्णन गरुण पुराण में भी वर्णित है।
मानव शरीर से भगाए जाते हैं भूत-प्रेत
पुरोहितों ने बताया कि यहां अपने पितरों के साथ-साथ अन्य पिशाच बाधाएं भी दूर की जाती हैं, जिनका प्रमाण सिर्फ देखने से मिलता है जिसमे प्रमुख रूप से महिला ओझा पुरोहितों के साथ बैठकर भूतों से कबूल करवाती हैं कि वह दुबारा उस मानव शरीर को परेशान नहीं करेगा। इसके लिए लोग यहां स्थित पीपल के पेड़ में उस भूत के नाम का सिक्का गाड़ते हैं। मान्यता है की वह भूत यही रहेगा और परेशान नहीं करेगा। इस बात की पुष्‍टि जौनपुर से आए एक दंपत्‍त‍ि ने की। उन्‍होंने बताया कि उनकी पत्नी विगत एक शाल से परेशान थी, जिसको लेकर वह यहां आए हैं।

क्‍या कहते हैं पुरोहित
प्रधान तीर्थ पुरोहित कृष्ण कुमार अनुसार, पितरों के लिए 15 दिन स्वर्ग का दरवाजा खोल दिया जाता है। उन्होंने बताया कि यहां के पूजा-पाठ और पिंड दान करने के बाद ही लोग गया के लिए जाते हैं। उन्‍होंने बताया कि जो कुंड वहां है वो अनादि काल से है भूत-प्रेत सभी से मुक्ति मिल जाती है।




Saturday, September 26, 2015

Ananta Chaturdashi

Anant Chaturdashi 2015 date is 27 September. Ananta Chaturdashi - worshipping Lord Vishnu & a spectacular farewell to Lord Ganesha comes 10 days after Ganesh Chaturthi. Ananta Chaturdashi is observed on the 14th day of Shukla Paksha of the Bhadrapada month, as per the Hindu calendar. Anant Chaturdashi is dedicated to the worship of Lord Vishnu. People worship him to invoke his blessings and to regain the lost wealth. At the same time, Ananta Chaturdashi is celebrated on a huge note, as the last day of the popular Hindu festival, Ganesh Chaturthi.

Some facts about Anant Chaturdashi

People worship Lord Vishnu as Lord Ananta on Anant Chaturdashi. Ananta means the eternal one. Along with Lord Vishnu, Sheshnaga is also worshipped on Anant Chaturdashi.
A solemn promise or an oath is taken, which is observed in the form of fast for fourteen years. It is said that the one, who observes this fast, receives the blessings of Lord Vishnu.
From the popular legend of Kaundilya and Sushila (mentioned below), associated with the significance of Anant Chaturdashi, one gets to know, that one should observe this fast, in order to win back the lost wealth.

Anant Chaturdashi: Legend of Kaundilya and Sushila
While celebrating Anant Chaturdashi in 2015, its a good idea to know about legends associated with this festival. Sushila was the daughter of a Brahmin named Sumant. Her mother, Diksha died. Sumant married Karkash, who used to give Sushila, a lot of trouble. Sushila got married to Kaundilya and they ran away far from Sushilas parents. Once, Kaundilya went to take bath in a river. Meanwhile, Sushila met a group of women. They told her to observe the fast of Lord Ananta, in order to get blessed with good wealth.
They told her the procedure to celebrate this festival. They told her that food items like Gharga and anarsee are prepared and are also given to the Brahmins. Sheshnaga is being worshipped with oil lamp and flowers. A string called Ananta, which has 14 knots and is colored with kumkum is kept and worshipped before Lord Vishnu. Then, one should tie it on ones hand. This fast is kept for 14 years, to get good results. Sushila did the same and reaped good benefits. She and Kaundilya became rich. When Kaundilya came to know about it, he, out of pride, refused to accept the fact, that the reason behind his success is also, the blessings of Lord Vishnu. Rather, he gave all the credit to himself and his hard work. Out of anger, he pulled open the sacred knot from Sushilas hand and threw it in the fire. Soon they became poor and finally, Kaundilya realized his mistake. He went on a deep search for Lord Vishnu, to say sorry for his mistakes. But, the search was very difficult. He asked to a mango tree, then a cow, the lakes, then the bull, the donkey and at the end, the elephant, about Lord Vishnu, but, he only got the answer no. He was so guilty, that he decided to hang himself. But, suddenly a saint appeared in front of him, and saved him. He took Kaundilya to a dark cave, where suddenly a bright light appeared and that was Lord Vishnu. He realized that it was Lord Vishnu only, who saved him. He asked for forgiveness and Lord Vishnu or Ananta, told him that if he kept this fast on Ananta Chaturdashi for consecutively 14 years, then he will free himself from all the sins and Kaundilya promised to observe this fast with all his devotion.

Anant Chaturdashi: Rituals performed during worship
Lord Ananta is worshipped on this day. The fast is being observed in his name. Salt is avoided during the fast. One can have fruits and milk. People wake up early in the morning and take bath. Then prasada is made. Incense, sandalwood, kumkum, turmeric, oil lamps and flowers are essential items for pooja. A string with 14 knots colored with kumkum and turmeric is kept before God Vishnu. Aarti is performed and prasada is offered to Lord Vishnu. Then, boys wear this sanctified thread in their right arm and women in their left. This fast should be observed for 14 years consecutively on Ananta Chaturadashi.

Ananta Chaturdashi: Extravagant end to Ganeshaotsav
On Ananta Chaturdashi, people also bid goodbye to their favorite Lord Ganesha. Ganeshotsav is being celebrated all over India with all the hustle and bustle. It begins on Shukla Chaturthi, and Ananta Chaturdashi, marks the end of this festival. It is a ten day long festival to celebrate the birthday of Lord Ganesha.
Lord Ganesha is the God of wisdom and prosperity for Hindus. They take his name, whenever they start a new task or event. His birthday is also given a lot of importance. People celebrate Ganesh Chaturthi for almost a period of ten days. Different groups of people set-up and decorate beautiful pandals and keep Ganeshas Idol in these pandals. They gather together at these pandals, worship Lord Ganesha and enjoy this festival by keeping different cultural functions and events on each day.

Anant Chaturdashi, being the last day, is very important. Lord Ganeshas idol is immersed in water on this day. People gather in large procession. Dancing and singing, they take Lord Ganeshs idol, which they establish in beautiful Pandals on the first day, in beautiful chariots, in order to immerse them in the river. It is immensely spectacular to watch thousands of people on road, dancing, singing and cheering the slogans like Ganpati bappa moraya, purcha varashi laukar ya. Through these cheers, people request their loving god to come early next year.
Therefore, the day of Anant Chaturdashi is of a lot of significance for the Hindus. It is a dual festival, dedicated to the worship of Lord Vishnu and a farewell to Lord Ganeshas ten day long festival of Ganeshaotsav. Here wishing you a very happy and prosperous Ananta Chaturdashi 2015.

Friday, September 25, 2015

अनन्त चतुर्दशी

अनन्त चतुर्दशी का व्रत २७ सितम्बर को है।भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को अनन्त चतुर्दशी कहा जाता है। इस दिन अनन्त भगवान की पूजा करके संकटों से रक्षा करने वाला अनन्त सूत्र बांधा जाता है। चौदह गांठ वाले अनंत सूत्र को विधिवत धारण करने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं।
प्रात:स्नान आदि करने के बाद घर में पूजाघर की स्वच्छ भूमि पर कलश स्थापित करें। शास्त्रों के अनुसार यदि सम्भव हो तो पूजन किसी पवित्र नदी या सरोवर के तट पर करें। कलश पर शेषनाग की शैय्या पर लेटे भगवान विष्णु की मूर्ति अथवा चित्र को रखें। उनके समीप 14 गांठ लगाकर हल्दी से रंगे कच्चे डोरे को रखे और गंन्ध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य द्वारा ॐ अनन्ताय नम: मंत्र से भगवान विष्णु तथा अनंत सूत्र की विधि-पूर्वक पूजन करें। तत्पश्चात् अनन्त भगवान का ध्यान कर शुद्ध अनन्त को
अनंन्तसागरमहासमुद्रेमग्नान्समभ्युद्धरवासुदेव। 
अनंतरूपेविनियोजितात्माह्यनन्तरूपायनमोनमस्ते॥   
मंत्र पढकर पुरुष अपने दाहिने हाथ और स्त्री बाएं हाथ में बांध लें। यह धागा अनन्त फल देने वाला है । अनन्त की चौदह गाँठे चौदह लोको को प्रतीक है उनमे अनन्त भगवान विद्यमान रहते है ।
अनंत सूत्र बांध लेने के बाद किसी ब्राह्मण को नैवेद्य में भोग लगाया पकवान देकर स्वयं सपरिवार प्रसाद ग्रहण करें। पूजा के बाद व्रत-कथा को पढें या सुनें।

अनन्त चतुर्दशी की कथा
प्राचीन ग्रंथों के अनुसार पाण्डव, कौरवों से द्युत क्रीडा़ में हार जाते हैं और उन्हें 12 वर्ष का वनवास मिलता है | एक दिन भगवान कृष्ण पाण्डवों से मिलने आते हैं | उस दिन युधिष्ठिर सारा वृतान्त उन्हें सुनाते हैं और इस कष्ट से बचाव का उपाय पूछते हैं | तब श्रीकृष्ण जी उन्हें कहते हैं कि आप सभी विधिपूर्वक अनन्त भगवान का व्रत करें | आपका खोया हुआ राज्य आपको पुन: प्राप्त हो जाएगा | फिर भगवान कृष्ण उन्हें एक कथा सुनाते हैं | कथा है :-कृष्ण जी कहते हैं कि प्राचीन समय में सुमन्त नाम का एक ब्राह्मण था | इस ब्राह्मण की सुशीला नाम की एक कन्या थी | ब्राह्मण ने सुशीला के बडे़ होने पर उसका विवाह कौडिन्य ऋषि के साथ सम्पन्न कर दिया | कौडिन्य ऋषि सुशीला को लेकर अपने आश्रम की ओर चल दिए | चलते-चलते रास्ते में ही संध्या हो गई | ऋषि नदी के किनारे रास्ते में ही संध्या करने लगे | तभी सुशीला ने देखा कि वहाँ बहुत सी स्त्रियाँ किसी देवता की पूजा कर रही हैं | वह उनके पास जाकर पूछने लगी कि अप किस देवता की पूजा कर रही हैं | उन स्त्रियों ने सुशीला को अनन्त भगवान की पूजा के व्रत की महिमा के विषय में बताया | व्रत के विषय में जानकारी पाने पर सुशीला ने भी वहीम उस व्रत का अनुष्ठान किया और चौदह गाँठों वाला डोरा हाथ में बाँधकर ऋषि कौडिन्य के पास आ गई |सुशीला के हाथ में बंधे डोरे को देखकर कौडिन्य ने उसका रहस्य पूछा | सुशीला ने सारा वृतान्त उन्हें सुना दिया | कौडिन्य ने सभी कुछ सुनने पर डोरा तोड़कर अग्नि में डाल दिया | इससे भगवान अनन्त का अपमान हुआ | जिसके परिणाम स्वरुप ऋषि सुखी नहीं रह सकें और उनकी सारी धन-दौलत समाप्त हो गई | ऋषि ने सुशीला से इसका कारण पूछा | तब सुशीला ने ऋषि को अनन्त डोरे की बात याद दिलाई | कौडिन्य पश्चाताप से उद्विग्न हो गए और उस डोरे की तलाश में वन चले गए | वन में काफी दिन घूमते-घूमते वह एक दिन भूमि पर गिर पडे़ | तब अनन्त भगवान ने उन्हें दर्शन दिए और कहा - हे कौडिन्य ऋषि आपने मेरा तिरस्कार किया था | इसलिए तुम्हें इतना कष्ट भोगना पडा़ | अब तुम अपने घर वपिस जाओ और अनन्त चतुर्दशी का व्रत 14 वर्षों तक निरन्तर करो | इससे तुम्हारा दु:ख - दारिद्रय मिट जाएंगें | तुम फिर से धन-धान्य से सम्पन्न हो जाओगे |


Tuesday, September 22, 2015

सोरहिया मेला

धर्म नगरी काशी में वैसे तो सात वार और नौ त्यौहार की मान्यता वर्षों से चली आ रही है जिसमें 16 दिनों तक चलने वाले सोरहिया मेले का खासा महत्व है। आज से शुरू हुए इस सोरहिया मेले का आयोजन लक्सा स्थित प्राचीन लक्ष्मी मंदिर पर सोलह दिनों तक होता है। इस पर्व के दौरान महिलाएं व्रत रह कर मां लक्ष्मी की पूजा करती है। मान्यता है कि इससे सुख समृद्धि और संतान सुख की प्राप्ति होती है।
हिन्दू मान्यता में मां लक्ष्मी को पूजे जाने का विशेष स्थान है। मां लक्ष्मी को धन, सम्पदा, और वैभव की देवी माना जाता है। वाराणसी में 16 दिनों तक खास पर्व सोरहिया मेला के दौरान मां लक्ष्मी की लगातार 16 दिनों तक पूजन अर्चना चलती है। 
इस दौरान हजारों लाखों श्रद्धालु लक्सा स्थित प्राचीन लक्ष्मी कुंड पर मां की उपासना करते है और मंदिर में मां के दर्शन करते है। ऐसा करने से सुख व समृद्धि के साथ ही संतान प्राप्ति का वैभव भी प्राप्त होता है।
व्रती महिलाएं पहले ही दिन से मां लक्ष्मी की मूर्ति में धागा लपेट कर पूरे सोलह दिन उसकी पूजा अर्चना करती है और अंतिम 16 वे दिन जिउतपुत्रिका यानि जिवतिया पर्व के साथ इस कठिन व्रत तप की समाप्ति करती हैं। साथ ही मां लक्ष्मी को 16 अलग अलग प्रकार के फल फूल और अन्य आमग्री अर्पित करती हैं।
इस पर्व के पीछे गाथा है कि महाराजा जिउत की कोई संतान नहीं थी जिसपर महाराजा ने मां लक्ष्मी का ध्यान किया और मां लक्ष्मी ने सपने में दर्शन देकर सोलह दिनों के इस कठिन व्रत को महाराजा से करने को कहा, जिसके बाद महाराजा को संतान के साथ समृद्धि और ऐश्वर्य की भी प्राप्ति हुई। तभी से इस परंपरा का नाम सोरहिया पड़ा और आज भी भक्त पूरी श्रृद्धा और विश्वास के साथ इस मेले और व्रत में भागीदारी करते हैं। 



Monday, September 21, 2015

पांच पैर वाली गाय को लेकर कौतूहल

चार पैर वाली गाय तो आम है पर गाय के पांच पैर हों तो यह अजूबे से कम नहीं है।वाराणसी में कुछ दिनों से 5 पैर वाली गाय शहर वासिओ के कौतूहल का विषय है। बताया जा रहा है कि गाय बाहर से आई है। उसका पांचवां पैर गर्दन के ऊपर से निकला हुआ है। 




Sunday, September 20, 2015

मणिकर्णिका कुण्ड

बिना निमंत्रण के जब माता पार्वती अपने पिता जी के होने वाले महायग में गई और साथ में हट करके शिव जी को भी ले गई ,वहा अपने पिता से अपने पति यानी शिव जी का अपमान होता देख माता पार्वती खुद को उसी हवन कुण्ड में अग्नि के हवाले कर लिए और भगवान शिव उनके जलते हुए शरीर को अपने हाथो से उठाकर वापस कैलास पर्वत कई और आने लगे तो पार्वती जी के कानो की मणि (बाली) इसी स्थान पर गिरी थी !
मान्यता है यह कुण्ड पाताल लोक से जुड़ा हुआ है !यहाँ मरने वाला हर व्यक्ति को मोक्ष की प्राप्ति होती है क्योकि हर काशी में हर मरने वालो के कानो में शिव स्वय तारक मन्त्र फूंकते है !



श्री काशी मराठा गणेश उत्सव समिति

भोले की नगरी में विराजे लाल बाग के राजा
शिव की नगरी काशी में इन दिनों गणेश उत्सव की धूम है। सबसे खास बात तो ये हैं कि बाबा की नगरी में इन दिनों लाल बाग़ के राजा के प्रति मूर्ति को स्थापित किया गया है। ताकि जो मुंबई नहीं जा पा रहे है उन्हें गणेश उत्सव का आनंद यही मिल सके।
काशी का मराठा समाज इन दिनों गणेश उत्सव के रंग में पूरी तरह से रंगा हुआ है। श्री काशी मराठा गणेश उत्सव समिति लगातार पांच साल से लाल बाग़ के राजा की प्रति मूर्ति की स्थापना यहाँ कर गणपति की अराधना की जाती है। बड़े ही धूम-धाम से यहां मराठा समाज एकत्र होकर मराठा वेश भूषा और मराठा परम्परा से गणपति का पूजन अर्चन करते हैं।












शारदाभवन गणेशोत्सव अगस्त्यकुंडा

गणेश चतुर्थी के मौके पर शहर की दर्जन भर गणेशोत्सव समितियों की ओर से भगवान गणेश का पूजन-अर्चन किया जाता है. शहर में विभिन्न पूजा समितियों की ओर से आयोजित होने वाली इस पूजा के लिए पंडाल बनाने से लगायत बाकि तैयारियां जोर शोर से जारी हैं. इस दौरान पूजा पंडालों में कई तरह सांस्कृतिक, शैक्षणिक कार्यक्रमों का आयोजन भी होता है.
ताकि रहे सुख समृद्धि
गणपति पूजा को लेकर शहर में रहने वाले मराठी और साउथ इंडियन फैमलीज में विशेष उत्साह रहता है. लोग सुख, शांति और समृद्धि की कामना में घरों में भी गणपति की स्थापना कर पूरे विधि विधान से पूजन करते हैं. जिसके लिए लोग बप्पा के आगमन को लेकर काफी उत्साही हैं और साफ सफाई से लेकर बाकि कामों को भी कर रहे हैं. इसके लिए गणेश प्रतिमा बनाने वाले भी तेजी से प्रतिमाओं को लास्ट टच देने का काम कर रहे हैं. शहर में मेनली नूतन बालक गणेशोत्सव समाज सेवा मण्डल, काशी गणेशोत्सव, श्री गणेश नवरात्र महोत्सव, श्रीराम तारका आन्ध्रा आश्रम मानसरोवर, लोकमान्य सार्वजनिक श्री गणेशोत्सव, बरनवाल सेवा सदन बेनियाबाग, श्री काशी मराठा गणेश उत्सव समिति, शारदा भवन गणेशोत्सव अगस्त्यकुंडा, श्री काशी विश्वनाथ गणपति महोत्सव मच्छोदरी की ओर से गणेश पूजा का भव्य आयोजन होता है.