Wednesday, November 19, 2014

रानी लक्ष्मीबाई

रानी लक्ष्मीबाई का जन्म वाराणसी जिले के भदैनी नामक नगर में 19 नवम्बर 1835 को हुआ था। उसके बचपन का नाम मणिकर्णिका था परन्तु प्यार से उसे मनु कहा जाता था। मनु की माँ का नाम भागीरथीबाई तथा पिता का नाम मोरोपन्त तांबे था। मोरोपन्त एक मराठी थे और मराठा बाजीराव की सेवा में थे। माता भागीरथीबाई एक सुसंस्कृत, बुद्धिमान एवं धार्मिक महिला थीं। मनु जब चार वर्ष की थी तब उनकी माँ की मृत्यु हो गयी। चूँकि घर में मनु की देखभाल के लिये कोई नहीं था इसलिए पिता मनु को अपने साथ बाजीराव के दरबार में ले गये जहाँ चंचल एवं सुन्दर मनु ने सबका मन मोह लिया। लोग उसे प्यार से "छबीली" कहकर बुलाने लगे। मनु ने बचपन में शास्त्रों की शिक्षा के साथ शस्त्रों की शिक्षा भी ली। सन् 1842 में उनका विवाह झाँसी के मराठा शासित राजा गंगाधर राव निम्बालकर के साथ हुआ और वे झाँसी की रानी बनीं। विवाह के बाद उनका नाम लक्ष्मीबाई रखा गया। सन् 1851 में रानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया पर चार महीने की आयु में ही उसकी मृत्यु हो गयी। सन् 1853 में राजा गंगाधर राव का स्वास्थ्य बहुत अधिक बिगड़ जाने पर उन्हें दत्तक पुत्र लेने की सलाह दी गयी। पुत्र गोद लेने के बाद 21 नवम्बर 1853 को राजा गंगाधर राव की मृत्यु हो गयी। दत्तक पुत्र का नाम दामोदर राव रखा गया।



Wednesday, November 5, 2014

कार्तिक पूर्णिमा


हिंदू पंचांग के अनुसार साल का आठवां महीना कार्तिक महीना होता है। कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा कार्तिक पूर्णिमा कहलाती है। प्रत्येक वर्ष पंद्रह पूर्णिमाएं होती हैं। जब अधिकमास या मलमास आता है तब इनकी संख्या बढ़कर सोलह हो जाती है। सृष्टि के आरंभ से ही यह तिथि बड़ी ही खास रही है। पुराणों में इस दिन स्नान,व्रत व तप की दृष्टि से मोक्ष प्रदान करने वाला बताया गया है।
इसका महत्व सिर्फ वैष्णव भक्तों के लिए ही नहीं शैव भक्तों और सिख धर्म के लिए भी बहुत ज्यादा है। विष्णु के भक्तों के लिए यह दिन इसलिए खास है क्योंकि भगवान विष्णु का पहला अवतार इसी दिन हुआ था। प्रथम अवतार में भगवान विष्णु मत्स्य यानी मछली के रूप में थे। भगवान को यह अवतार वेदों की रक्षा,प्रलय के अंत तक सप्तऋषियों,अनाजों एवं राजा सत्यव्रत की रक्षा के लिए लेना पड़ा था। इससे सृष्टि का निर्माण कार्य फिर से आसान हुआ।
शिव भक्तों के अनुसार इसी दिन भगवान भोलेनाथ ने त्रिपुरासुर नामक महाभयानक असुर का संहार कर दिया जिससे वह त्रिपुरारी के रूप में पूजित हुए। इससे देवगण बहुत प्रसन्न हुए और भगवान विष्णु ने शिव जी को त्रिपुरारी नाम दिया जो शिव के अनेक नामों में से एक है। इसलिए इसे 'त्रिपुरी पूर्णिमा' भी कहते हैं।
इसी तरह सिख धर्म में कार्तिक पूर्णिमा के दिन को प्रकाशोत्सव के रूप में मनाया जाता है। क्योंकि इसी दिन सिख सम्प्रदाय के संस्थापक गुरु नानक देव का जन्म हुआ था। इस दिन सिख सम्प्रदाय के अनुयाई सुबह स्नान कर गुरुद्वारों में जाकर गुरुवाणी सुनते हैं और नानक जी के बताए रास्ते पर चलने की सौगंध लेते हैं। इसे गुरु पर्व भी कहा जाता है।
इस तरह यह दिन एक नहीं बल्कि कई वजहों से खास है। इस दिन गंगा-स्नान,दीपदान,अन्य दानों आदि का विशेष महत्त्व है। इस दिन क्षीरसागर दान का अनंत महत्व है,क्षीरसागर का दान 24 अंगुल के बर्तन में दूध भरकर उसमें स्वर्ण या रजत की मछली छोड़कर किया जाता है। यह उत्सव दीपावली की भांति दीप जलाकर सायंकाल में मनाया जाता है।
ऐसा भी माना जाता है कि इस दिन कृतिका में शिव शंकर के दर्शन करने से सात जन्म तक व्यक्ति ज्ञानी और धनवान होता है। इस दिन चन्द्र जब आकाश में उदित हो रहा हो उस समय शिवा, संभूति, संतति, प्रीति, अनुसूया और क्षमा इन छह कृतिकाओं का पूजन करने से शिव जी की प्रसन्नता प्राप्त होती है।

देव दीपावली

विश्व के सबसे प्राचीन शहर काशी की संस्कृति एवं परम्परा है देवदीपावली। प्राचीन समय से ही कार्तिक माह में घाटों पर दीप जलाने की परम्परा चली आ रही है, प्राचीन परम्परा और संस्कृति में आधुनिकता का समन्वय कर काशी ने विश्वस्तर पर एक नये अध्याय का सृजन किया है। जिससे यह विश्वविख्यात आयोजन लोगों को आकर्षित करने लगा है। देवताओं के इस उत्सव में परस्पर सहभागी होते हैं- काशी, काशी के घाट, काशी के लोग। देवताओं का उत्सव देवदीपावली, जिसे काशीवासियों ने सामाजिक सहयोग से महोत्सव में परिवर्तित कर विश्वप्रसिद्ध कर दिया। असंख्य प्रज्वलित दीपकों व विद्युत झालरों की रोशनी से रविदास घाट से लेकर आदिकेशव घाट व वरुणा नदी के तट एवं घाटों पर स्थित देवालय, महल, भवन, मठ-आश्रम जगमगा उठते हैं, मानों काशी में पूरी आकाश गंगा ही उतर आयी हों। धार्मिक एवं सांस्कृतिक नगरी काशी के ऐतिहासिक घाटों पर कार्तिक पूर्णिमा को पतितपावनी मोक्षदायिनी मां गंगा की धारा के समान्तर ही प्रवाहमान होती है आस्था में गोते लगाये श्रद्धालुओं का जन सैलाब।
माना जाता है कि कार्तिक पूर्णिमा के दिन देवतागण दिवाली मनाते हैं व इसी दिन देवताओं का काशी में प्रवेश हुआ था। इस सम्बन्ध में मान्यता है कि- सतयुग में स्वर्ण, रजत व लौह से निर्मित त्रिपुर लोक में त्रिपुरासुर नामक महाशक्तिशाली राक्षस रहता था, जिसने तीनों लोकों पर अपना अधिकार जमा लिया था, सभी उसके अत्याचारों से त्रस्त थे, यहां तक की सभी देवताओं समेत देवराज इन्द्र को स्वर्ग छोड़ना पड़ा। देवतागणों ने भगवान शिव के समक्ष त्रिपुरासुर से उद्धार की विनती की। भगवान शिव ने कार्तिक पूर्णिमा के दिन त्रिपुरासुर राक्षस का वध कर उसके अत्याचारों से सभी को मुक्त कराया और त्रिपुरारि कहलाये। इससे प्रसन्न एवं उल्लासित देवताओं ने स्वर्ग लोक में दीप जलाकर दीपोत्सव मनाया था तभी से कार्तिक पूर्णिमा को देवदीपावली मनायी जाने लगी। काशी में देवदीपावली उत्सव मनाये जाने के सम्बन्ध में मान्यता है कि राजा दिवोदास ने अपने राज्य काशी में देवताओं के प्रवेश को प्रतिबन्धित कर दिया था, कार्तिक पूर्णिमा के दिन रूप बदल कर भगवान शिव काशी के पंचगंगा घाट पर आकर गंगा स्नान कर ध्यान किया, यह बात जब राजा दिवोदास को पता चला तो उन्होंने देवताओं के प्रवेश प्रतिबन्ध को समाप्त कर दिया। इस दिन सभी देवताओं ने काशी में प्रवेश कर दीप जलाकर दीपावली मनाई थी।
काशी में देवदीपावली का वर्तमान स्वरूप पहले नहीं था, पहले लोग कार्तिक पूर्णिमा को धार्मिक महात्म्य के कारण घाटों पर स्नान-ध्यान को आते और घरों से लाये दीपक गंगा तट पर रखते व कुछ गंगा की धारा में प्रवाहित करते थे, घाट तटों पर ऊचे बांस-बल्लियों में टोकरी टांग कर उसमें आकाशदीप जलाते थे जो देर रात्रि तक जलता रहता था। इसके माध्यम से वे धरती पर देवताओं के आगमन का स्वागत एवं अपने पूर्वजों को श्रद्धांजलि प्रदान करते थे। सन् 1986 में रामानन्द सम्प्रदाय के धर्मगुरू स्वामी रामनेरशाचार्य ने कार्तिक पूर्णिमा के दिन पंचगंगा घाट स्थित श्री मठ संस्थान को विद्युत झालरों व दीपकों से आकर्षित रूप से सजाया था। गंगा तट पर टिमटिमाती ज्योति काशीवासियों को ऐसा सम्मोहित कर गई की यह कारवां बढ़ता गया, सन् 1988 तक यह उत्सव काशी के 24 घाटों तक फैल गई। सन् 1989 और 1990 में अयोध्या राम मन्दिर विवाद के समय इस उत्सव पर संकट के बादल छाये, कोई भी व्यक्ति उत्सव आयोजन के लिये तैयार नहीं था, परन्तु परम्परा को संजोने एवं निर्वाह करने के लिये देवदीपावली महासमिति ने सभी घाटों पर सौ-सौ दीपक प्रज्जवलित करवाये थे। देव दीपावली उत्सव को महोत्सव में परिवर्तित करने का नेतृत्व किया केन्द्रीय देवदीपावली समिति ने। काशीवासियों के साथ ही तत्कालीन मण्डलायुक्त (कमिश्नर) मनोज कुमार से भी प्रेरणा एवं सहयोग प्राप्त हुआ। सभी प्रमुख घाटों पर भव्यता के साथ देवदीपावली आयोजन का निर्णय लिया गया। जिसके परिणाम स्वरूप सन् 1991 में पं0 नारायण गुरू ने केन्द्रीय देवदीपावली समिति की स्थापना की। सन् 1991 में पं0 नारायण गुरू के प्रयास से ही पुनः 19 घाटों पर देव दीपावली का आयोजन आरम्भ हुआ। सन 1996 में केन्द्रीय देवदीपावली समिति द्वारा कुछ स्थानीय युवकों के समक्ष उत्सव को वृहद स्तर पर आयोजित करने का प्रस्ताव रखकर उन्हें प्रेरणा प्रदान कर उनका सहयोग प्राप्त किया गया, परिणाम स्वरूप काशी के प्रत्येक घाट पर स्थानीय नागरिकों के सहयोग एवं समर्थन से देवदीपावली समिति का गठन किया गया। वर्तमान में यह महोत्सव राजघाट की सीमा को लांघकर वरूणा के तट तक जा पहुंचा है, तथा काशी में स्थिति प्रत्येक देवालयों में देवदीपावली का आयोजन होने लगा है यहां तक की गंगा पार रेती पर भी उत्सव का आयोजन कर दीपोत्सव मनाया जाता है तथा भव्य रूप में आतिशबाजी की जाती है। केन्द्रीय देवदीपावली समिति घाटों पर गठित अन्य देवदीपावली समितियों का मार्गदर्शन कर सहायता प्रदान करती है। अब उत्तरोत्तर अनेक दीप महोत्सव समितियाँ काशी को संजाती, परम्परा व संस्कृति को संजोती जा रही है। देवदीपावली काशी की लख्खी मेलों (अस्सी घाट की नागनथैया, चेतगंज नक्कैटया, नाटी इमली भरत मिलाप एवं बुढ़वा मंगल आदि जिसमे लाखो लोगों का जनसैलाब उमड़ पड़ता है।) की भांति निरन्तर गतिमान होती जा रही है।
परम्परा, संस्कृति और आधुनिकता का अद्भुत संगम काशी के वर्तमान देवदीपावली महोत्सव का साक्षी है महारानी अहिल्याबाई होल्कर द्वारा पंचगंगा घाट पर स्थित माधवराव के धरहरे पर स्थापित ’दीप हजारा’ (1001 दीपकों का स्तम्भ) काशीनरेश द्वारा सूर्यास्त के पश्चात क्रमशः गणेश वन्दना, ’दीप हजारा’ में दीप प्रज्ज्वलन, गंगा आरती व गंगा की धारा में दीप प्रवाहित करने के साथ ही काशी में देवदीपावली महोत्सव का शुभारम्भ हो जाता है। प्रातः काल के समय श्रद्धालु गंगा, स्नान-ध्यान करते हैं, दिन के दूसरे पहर से ही प्रत्येक घाट पर स्थानीय देवदीपावली समिति द्वारा स्थानीय नागरिकों के सहयोग से घाटों पर दीपकों को क्रमबद्ध आकृतियों में सुसज्जित करना आरम्भ कर दिया जाता है। घाट तटों पर आकर्षक रंगोलियां बनायी जाती हैं इन रंगोलियों में दीपकों को भी स्थान दिया जाता है। सूर्यास्त के पश्चात ‘दीप हजारा’ में दीप प्रज्ज्वलित होने के साथ ही घाट पर सजे इन दीपकों का प्रज्ज्वलन आरम्भ कर दिया जाता है। श्रद्धालुओं द्वारा गंगा की लहरों में दीप प्रवाहित किया जाता है। गंगा में प्रवाहित एवं घाट तटों पर प्रज्ज्वलित इन दीपकों से काषी के गंगा घाटों पर अद्भुत मनोहारी एवं नयनाभिराम दृश्य प्रस्तुत होते हैं। टिमटिमाते दीपकों की रोशनी एवं गंगा की धारायें उत्सव के उत्साह में एक दुसरे से अठखेलियां करती हुई प्रतीत होती हैं। प्रकाश तरंगों से जगमगाते गंगा घाटों के सुरम्य तटों पर उत्पन्न ऐसे उत्सवरूपी अलौकिक वातावरण की अनुभूति हेतु उत्सुक देश-विदेश के लाखों सैलानियों का जनसैलाब उमड़ पड़ता है। यह विश्व में होने वाले सबसे बड़े जल उत्सव  के आकर्षण का प्रभाव है कि घाट तट छोटे पड़ जाते हैं। जनसैलाब के कारण एक घाट का दूसरे घाटों से सम्पर्क टूट जाता है। गंगा का जलमार्ग व्यस्त हो जाता है। लोग नौकाओं द्वारा भी इस नयनाभिराम दृश्य का आनन्द लेते हैं। नौकायें कई दिन पहले से ही आरक्षित करा ली जाती हैं। आस-पास के जिलों से भी नौकायें मंगायी जाती हैं। घाटों पर गंगा आरती के साथ ही सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन होता है पर दशाश्वमेघ घाट एवं राजेन्द्र प्रसाद घाट पर आयोजित कार्यक्रम विशेष होता है। दोनों ही घाटों पर वैदिक मंत्रों के साथ 21-21 ब्राह्मणों एवं सहभागी 21-21 चंवर डुलाती कन्याओं द्वारा घण्टा-घड़ियाल एवं शंखों के ध्वनि के साथ माँ गंगा की विशेष महाआरती सम्पन्न होती है। इसके साथ ही घाट के सामने गंगा में बजड़ों (कई नावों को आपस में जोड़कर एक विशाल मंच तैयार किया जाता है) पर सांस्कृतिक कार्यक्रमों (नृत्य, गायन, वादन) का आयोजन किया जाता हैए इस शास्त्रीय संगीत समारोह में स्थानीय एवं ख्यातिलब्ध कलाकारों की सहभागिता सहर्ष ही होती है। कारगिल युद्ध के समय अमिताभ भट्टाचार्य, सतेन्द्र मिश्र एवं अवनीधर के प्रयास से दशाश्वमेघ घाट पर गंगा आरती के साथ शहीदों के शहादत को भी जोड़ा गया। घाट पर शहीदों की स्मृति में पूरे कार्तिक माह आकाशदीप प्रज्वलित किया जाता है एवं इण्डिया गेट की प्रतिकृति बनाकर ‘अमर जवान ज्योति’ से ज्योतिमय बनाया जाता है। इस इण्डिया गेट के प्रतिकृति के समक्ष सेना के तीनों अंगों द्वारा भारतीय वायु सेना, थल सेना, जल सेना, अर्द्वसैनिक बलों, सीमा सुरक्षा बल, सीआरपीएफ एवं पुलिस के शहीद जवानों को बैंड धुनों के साथ पुष्पांजलि अर्पित कर श्रद्धासुमन समर्पित किया जाता है। स्वामी रामनरेशाचार्य, पं0 नारायण गुरू, किशोरी रमण दुबे ‘बाबु महाराज’, सतेन्द्र मिश्र, कन्हैया त्रिपाठी, अमिताभ भट्टाचार्य तथा अवनीधर ने काशीवासियों के सहयोग से देवदीपावली को भव्य आयाम प्रदान कर जीवंत नगरी काशी की संस्कृति का पहचान बना दिया।
- धीरज कुमार गुप्ता